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सोमवार, 15 जून 2015

Mathura may ruin soon!

मथुरा कैसे झेल पाएगा ऐसे भूकंप को ?

                                                               पंकज चतुर्वेदी

हाल ही में नेपाल  में आए विनााषकारी भूकंप के झटके पूरे देष ने सहे हैं। ऐसे में राश्ट्रीय आपदा प्रबंधन
संस्थान ने उत्तर प्रदेष के 26 जिलों को भूकंप के प्रति संवेदनषील जोन-4 में रखा है। जोन 4 का अर्थ है कि पांच क्षमता के भूकंप आने की प्रबल संभावना व उससे कमजोर संरचनाओं की पूरी तरह तबाही। इसमें से एक मथुरा भी है, जो बीते दो दषकों से पल-पल दरक रहा है। लोग चिंता में हैं और प्रषासन किसी बड़े हादसे के इंतजार में है। द्वारिकाधीष मंदिर के पीेछे की सघन बस्ती चैबिया पाड़ा, मथुरा की पहचान है। पहाड़ी  के ढलान पर स्थित इस बसावट में गजापायसा लगभग चोटी पर है। अभी एक दषक पहले तक यहां बने मकान एक दूसरे से सटे हुए थे, आज इनके बीच तीन से छह फुट की दूरी है। कोई भी घर ऐसा नहीं है जिसकी दीवारें चटक नहीं गई हों। जब कहीं से गड़गड़ाहट की आवाज आती है तो लोग जान जाते हैं कि किसी का आषियाना उजड़ गया है। किसी का संकल्प है तो किसी की आस्था व बहुत से लोगों की मजबूरी, वे जानते हैं कि यह मकान किसी भी दिन अर्रा कर जमींदोज हो सकता है, लेकिन वे अपने पुष्तैनी घरों को छोड़ने को राजी नहीं हैं। आए रोज मकान ढह रहे हैं व सरकारी कागजी घोड़े अपनी रफ्तार से बेदिषा दौड़ रहे हैं।
कृश्ण की नगरी के नाम से विष्व प्रसिद्ध मथुरा असल में यमुना के साथ बह कर आई रेत-मिट्टी के टीलों पर बसी हुई हैं। जन्मभूमि से लेकर होली गेट तक की मथुरा की आबादी लगभग नदी के तट पर ही हैं।  नगर के बसने का इतिहास सात सौ साल पहले का है, लेकिन अभी दो षतक पहले तक यहां टीलों पर केवल अस्थाई झुग्गियां हुआ करती थीं। वैसे तो मथुरा ब्रज में कंकाली टीला, भूतेष्वर टीला, सोंख टीला, सतोहा टीला, गनेषरा टीला कीकी नगला, गौसना, मदनमोहन मंदिर टीला जैसे कई बस्तियां हैं। लेकिन सबसे घनी बस्ती वाले हैं - चैबों का टीला, उसके बगल में गोसाईयों की बस्ती व पीछे का कसाई पाड़ा। जब चैबों के यहां जजमान आने लगे, परिवहन के साधन बढ़े तो असकुंडा घाट के सामने द्वारिकाधीष मंदिर के पीछे चैबों ने टिकाने बना लिए। देखते ही देखते पूरी पहाड़ी पर बहुमंजिला भवन बन गए। फिर उनमें षौचालय, सीवर, बिजली, एसी लगे।
कोई दो दषक पहले इप बस्तियों में मकान में दरार आना षुरू हुईं, पहले तो इसे निर्माण के दौरान कोई कमी मान लिया गया, लेकिन जब मकानों के बीच की दूरियां बढ़ीं और उसके बाद मकान का ढह कर बिखर जाने का सिलसिला षुरू हुआ तो लोगों की चिंताएं बढ़ने लगीं। अभी तक चैबच्चा, काला महल, सतघड़ा, ताजपुरा, महौली की पौर, घाटी बहालराय, सरवरपुरा, काजी पाड़ा, रतन कुंड, नीम वाली गली सहित 35 मुहल्लों में हजार से ज्यादा मकान ताष के पत्तों की तरह बिखर चुके हैं। नगर पालिका ने जब इसी प्रारंीिाक जाच की तो पता चला कि लगभग 90 साल पहले पड़ी पानी सप्लाई की भूमिगत लाईन जगह-जगह से लीक कर रही थी व उससे जमीन दलदल बन कर कमजोर हुई। लगातार लीकेज ठीक करने का काम भी हुआ, लेकिन मर्ज काबू में नहीं आया। आठ साल पहले आईआईटी रूड़की का एक दल भी यहां जांच के लिए आया। उन्होंने जमीन के ढहने के कई कारण बताए- जमीन की सहने की क्षमता से अधिक वनज के पक्के निर्माण, अंधाधुंध बोरिंग करने से भूगर्भ जल की रीता होना व उससे निर्वात का निर्माण तथा, जल निकासी की माकूल व्यवस्था ना होना।  यह भी सामने आया है कि सीवर व पानी की लाईन में अवैध कनेक्षन लीकेज का सबसे बड़ा कारण हैं। मामला विधान सभा में भी उठा, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को ना तो समस्या की सटीक जानकारी रही और ना ही उसके समाधान का सलीका। अब हर दिन समस्या पर विमर्ष तो होता है, लेकिन समाधान के प्रयास नहीं। जवाहरलाल नेहरू षहरी परियोजना के तहत यहां सीवर व ड्रेनेज के अलावा पेयजल लाईनें नए सिरे से बिछाने का बजट भी कें्रद को भेजा गया, लेकिन स्वीकृत नहीं हुआ।
असल में इस समस्या को बुलाया तो बाषिंदों ने ही है। रेत व पीली मिट्टी के टीलों पर मनमाने ढंग से मकान तान दिए गए। फिर सन साठ के बाद मकानों में ही षौचालय बने व उसकी माकूल तकनीकी निकासी का जरिया बना नहीं। जब बढ़ी आबादी के लिए पानी की मांग हुई तो जमीन का सीना चीर कर नलकूप रोपे गए। दो से पांच फुट चैड़ी गलियो ंमें जम कर एयरकंडीषनर लगे। यही नहीं बस्ती से सट कर बह रही यमुना को होली गेट के करीब बैराज बना कर बांधा गया। इनका मिला-जुला परिणाम है कि जमीन भीतर से खोखली, दलदली व कमजोर हो गई। एसी व अन्य कारकों से तापमान बढ़ने ने इस समस्या को और विकराल बनाया। सरकार में बैठे लोग समस्या को समझते हैं लेकिन ऐसा कोई फैसला लेने से बचते हैं जिसमें  जनता को कोई नसीहत हो। परिणाम सामने हैं आए दिन मकान ढहते हैं, बयानबाजी होती है और हालात जस के तस रह जाते हैं।
अभी आए भूकंप का हालांकि मथुरा पर ज्यादा असर नहीं था, लेकिन पुराने मथुरा के कई भवनों के बीच की दरार बढ़ गई है। उस भूकंप के बाद आज भी पुरोन मथुरा में लोग अपने घरों में सोने से डर रहे हैं। यदि मथुरा की पुरानी बस्ती को बचाना है तो सबसे पहले वहां हर तरीके के नए निमार्ण पर रोक लगनी चाहिए। फिर बैराज के बनने से  बढ़े दलदल व जमीन के कमजोर होने का अध्ययन होना चाहिए। भूजल पर पाबंदी तो है लेकिन उस पर अमल नहीं। यह जान लें कि पहाड़ पर बनी बस्तिययों में नीचे की ओर जल निकासी निर्बाध होना चाहिए व कहीं भी लीकेज बेहद खतरनाक हो सकता हे। यदि इन ंिबदुओं के साथ पुराने मथुरा के पुनर्वासन पर काम किया जाए तो मकानों के ढहने की समस्या का निराकरण करना कठिन नहीं है।

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