हाथी के दांत न बन जाए डिजिटल इंडिया
पिछले दिनों प्रधानमंत्री द्वारा प्रारंभ किया गया ‘डिजिटल इंडिया’ आजादी के बाद संभवतया सबसे बड़ी व महत्वाकांक्षी ऐसी परियोजना है, जिसके चलते आम लोगों को सरकारी दफ्तरों की जटिलता, दिक्कतों, रोज-रोज के चक्कर लगाने से मुक्ति मिलेगी। हो सकता है कि आज आम लोग कंप्यूटर पर काम नहीं करते हों, लेकिन देश के कमजोर लोगों तक के हाथ में मोबाइल आ गया है व वह इस संचार सुविधा का उपयोग अपने दैनिक जीवन में कर भी रहा है। गौरतलब यह है कि डिजिटल इंडिया जैसे कार्यक्रमों की जिम्मेदारी यदि मौजूदा सिस्टम के ही हाथ मंे रही तो उसके अपेक्षित परिणाम मिलना संदिग्ध है। याद करें कि पारदर्शी, निष्पक्ष, सर्वसुलभ और न जानें ऐसे ही भारी-भरकम जुमलों के साथ सरकारी महकमों के कंप्यूटरीकरण पर बीते कई सालों में करोड़ों रुपए खर्च किए गए। केंद्र क्या, राज्य सरकारों ने भी अपनी-अपनी वेबसाइटें बना ली हैं और उस पर बाकायदा विभाग के प्रमुख के ईमेल दिए जा रहे हैं- कोई समस्या हो, परेशानी हो, संपर्क करो। मशीनें इंसान द्वारा संचालित होती हैं और वे उसके प्रवृत्ति को बदल नहीं सकती हैं। ऐसे ही कुछ अनुभव मैंने किए, जिनसे पता चलता है कि कंप्यूटरीकरण का मुख्य उद्देश्य महज अपने बजट को खर्चना होता है, जन-सरोकार से उसका कोई वास्ता ही नहीं है।
इन दिनों उत्तर प्रदेश के कई महकमों की वेबसाइट को ही लें, उसमें कई अधिकारियों के नाम पुराने वाले ही चल रहे हैं। इन साइटों पर दर्ज किसी भी ईमेल का कभी कोई जवाब नहीं आता है। अभी बहुत से जिलों में कलेक्टर व पुलिस अधीक्षक फेसबुक व अन्य सोशल मीडिया पर खुद को जोड़े हैं। लेकिन देखा जा रहा है कि ये सभी एकालाप कर रहे हैं। यानी महकमे अपनी सूचना या उपलब्धियां तो इस पर डाल रहे हैं, लेकिन यदि जनता उस पर कोई शिकायत करे तो उस पर कार्यवाही शायद ही होती हो। कई बार यह जवाब आता है कि अपनी बात अमुक महकमे को कहें, यह हमारा काम नहीं है। उप्र में कई विभागों से जुड़ी शिकायतों को दर्ज करने की एक वेबसाइट तो है, लेकिन या तो यह काम नहीं करती है या फिर उस पर दर्ज शिकायतें उन क्लर्क तक ही पहुंच जाती हैं। जो उन दिक्कतों के उत्पादक होते हैं। न कोई मानीटरिंग, न कोई फालोअप। मेरे आवासीय इलाके में पीएनजी के लिए खुदाई की गई और गहरे गड्ढे एक महीने तक ऐसे ही पड़े रहे। कुछ बच्चे व मवेशी उसमें गिरे भी। वहां लगे बोर्ड पर दर्ज हेल्पलाइन नंबर पर फोन करने पर भी जब किसी ने नहीं सुना तो आईजीएल की वेबसाइट पर जा कर ‘हेल्प मी’ कालम पर एक ईमेल छोड़ दिया। कई दिन बीत गए-नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा, आखिरकार खुद का मजदूर लगा कर आसपास के गड्ढे भरवाए। साफ लगा कि ये गड्ढे व्यवस्था के हैं, जिन्हें कोई ईमेल नहीं भर सकता। ठीक ऐसे ही मेरे ईमेल पर लगातार विदेशी लाटरी, ईनाम जीतने जैसे मेल आ रहे थे। मैंने उन्हें सीबीआई की वेबसाइट पर ‘संपर्क’ वाले पते पर अग्रसित कर दिया। मैं उम्मीद करता रहा कि कम से कम एक धन्यवाद का जवाब तो आएगा ही, लेकिन मेरी उम्मीदों पर सरकारी तंत्र की ढर्राशाही भारी रही। इसी तरह सरकारी सफेद हाथी एअर इंडिया की विभागीय साइट पर सीधे टिकट न बुक होने और किसी एजेंट के माध्यम से टिकट लेने पर तत्काल मिल जाने की शिकायत विभाग के मंत्री से ले कर नीचे तक ईमेल के जरिए करने का नतीजा भी शून्य ही रहा। आमतौर पर सभी सरकारी महकमों में अफसरान के ईमेल बना कर दे दिए जाते हैं व उसे वेबसाइट पर भी डाल दिया जाता है। हकीकत में अफसरान उन ईमेल का इस्तेमाल करते ही नहीं है। केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय की वेबसाइट पर हिंदी में लेखन पर पुरस्कार का उल्लेख है। जब विभाग के कई अफसरों को इस बाबत मेल किया तो एक का जवाब आया-‘ मुझे इस पद पर चार साल हो गए हैं, मैंने इस तरह के किसी पुरस्कार के बाबत सुना नहीं है’। जरा गौर करें कि महकमे की वेबसाइट या तो अपडेट नहीं हुई या अफसर अपडेट नहीं। उत्तर प्रदेश के परिवहन विभाग ने अपनी एक बेहतरीन वेबसाइट बना रखी है, जिसमें कई फार्म डाउनलोड करने की सुविधा है, ड्राइविंग लाइसेंस से लेकर बस परमिट पाने के कायदे दर्ज हैं। साथ ही प्रत्येक जिले के परिवहन अधिकारी व सहायक परिवहन अधिकारियों के विभागीय ईमेल की सूची भी दी गई है। हाल ही में मुझे अपने ड्राइविंग लाइसेंस का नवीनीकरण करवाना था। एक आदर्श नागरिक की तरह मैंने गाजियाबाद के दोनों ईमेल पर अपना निवेदन किया तथा मुझे क्या साथ ले कर आना होगा, कब आना होगा, जानने का निवेदन भेजा। पूरे एक सप्ताह इंतजार किया, कोई जवाब नहीं आया। मैंने फोन करने का प्रयास किया, जान कर आश्चर्य होगा कि विभाग के सभी नंबरों पर फैक्स टोन आती थी। आखिरकार दफ्तर गया और पता चला कि वहां ईमेल या फोन का कोई काम नहीं है, सभी जगह दलाल हैं, जोकि आपका कोई भी काम ईमेल से भी तेज गति से करवा देते हैं, बस हाथ में नोट होना चाहिए।वैसे तो कई ऐसे असफल प्रयोग मेरे पास हैं, लेकिन सबसे दुखद अनुभव सीबीएसई से हुआ। सेंट्रल बोर्ड आफ स्कूल एजुकेशन, जोकि सभी बच्चों को ज्ञानवान, अनुशासित और आदर्श नागरिक बनाने के लिए कृतसंकल्पित होने का भरोसा अपनी वेबसाइट पर देता है। हुआ यूं कि इकलौती बच्चियों को कक्षा 11-12वीं के लिए सीबीएसई की ओर से वजीफा देने के बाबत एक अखबार में आलेख छपा था। साथ में यह भी कि विस्तृत जानकारी के लिए सीबीएसई की वेबसाइट देखें। मैं वेबसाइट को अपने बुद्धि और विवेक के अनुसार भरपूर तलाशा, लेकिन कहीं कुछ मिला नहीं। आखिरकार मैंने महकमे की जनसंपर्क अधिकारी का ईमेल पता वेबसाइट से ही लिया और मेल भेज दिया। दो महीना बीत गया, अभी तक तो उसका कोई जवाब आया नहीं है, लगता है कि आएगा भी नहीं। ऐसा नहीं कि सभी विभाग के यही हाल हैं- दिल्ली पुलिस को भेजे जाने वाले प्रत्येक मेल का सही जवाब मिलता है और कार्यवाही भी होती है। गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के व्हाट्सएप पर संदेश देते ही कुछ घंटों में जवाब आता है व कार्यवाही भी होती है। इससे साफ है कि महकमा भले ही कितना व्यस्त, भ्रष्ट या लापरवाह हो, चाहे तो ईमेल के जवाब दे सकता है। सरकारी महकमे सही कर्मचारी न होने, ठीक ट्रेनिंग न होने, समय की कमी का रोना रोते रहते हैं, यदि ऐसा है तो वेबसाइट बनाने व उसके मेंटेनेंस पर हर साल लाखों रुपए खर्च करने से पहले खुद के प्रशिक्षण की बात क्यों नहीं उठाई जाती है? असल बात तो यह है कि इस संवादहीनता का असली कारण लापरवाही, पारदर्शिता से बचने की आदत और शासक-भाव है। इससे उबरने का अभी कोई सॉफ्टवेयर बना ही नहीं है। डिजिटल इंडिया का व्यापक लाभ आम लोगों को मिले, इसके लिए मल्टीलेवल मानिटरिंग, तंत्र का सरलीकरण, लोगों को अपने काम के लिए कम से कम कार्यरत कर्मचारी से संपर्क करना पड़े और इन सबके लिए बेहतर प्रशिक्षण व जिम्म्ेादारी के लिए ‘जीरो टालरेंस’ की योजना पर काम करना जरूरी है।
prabhat,meerut,12-7-15 |
= पंकज चतुर्वेदी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें