कानून के बारे में ज्यादा नहीं जानते गरीब
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RAAJ EXPRESS 10-7-15 |
भारत की जेलों में जो लोग बंद हैं, विचाराधीन कैदी के रूप में, उनमें ज्यादा तादाद दलितों, मुसलमानों व आदिवासियों की है। इनमें से कई बंदी तो ऐसे हैं, जो लंबे समय से बंद हैं। इस समस्या का समाधान यही है कि गरीबों को कानून के प्रति जागरूक किया जाए।हाल ही में भारतीय जेलों से छूटकर 88 मछुआरे पाकिस्तान पहुंचे। इनमें से ज्यादातर तीन साल या उससे अधिक से जेलों में बंद थे। इनमें से लगभग सभी की शिकायत जेल में अत्याचार, मारपीट, पैसे छुड़ा लेने की रही है। इन लोगों के साथ यह सब इसलिए हो रहा था, क्योंकि उनकी पैरवी करने वाला कोई नहीं था या फिर उनके पास रिहाई के लिए पैसा नहीं था। हालांकि, समुद्र के असीम जल-भंडार में दो देशों की सीमा तलाशना लगभग मुश्किल है और इसी वजह से उनसे एक ऐसा अपराध हो जाता है, जो वे कभी करना नहीं चाहते थे। यानी, यह अपराध उनसे अनजाने में हो जाता है, जिसकी वे सजा भुगतते हैं। कई लोग तो अपनी सजा पूरी होने या जमानत मंजूर हो जाने के बाद भी जेल में हैं, क्योंकि या तो उन्हें औपचारिकताओं की जानकारी नहीं है या फिर उनके पास पैसों की कमी है। भारत की जेलों में बंद कैदियों के बारे में सरकारी रिकार्ड में दर्ज आंकड़े चौंकाने वाले हैं। अनुमान है कि इस समय कोई चार लाख से ज्यादा लोग देशभर की जेलों में बंद हैं, जिनमें से करीब एक लाख तीस हजार सजायाफ्ता और करीब दो लाख 80 हजार विचाराधीन बंदी हैं। देश में दलित, आदिवासी व मुसलमानों की कुल आबादी 40 फीसदी के आसपास है, जबकि जेलों में उनकी संख्या 67 प्रतिशत है। हमारी दलित आबादी 17 फीसदी है, वहीं जेल में बंद लोगों में 22 प्रतिशत दलितों का है। कुल आदिवासी आबादी नौ प्रतिशत है, पर जेल में बंद आदिवासियों का प्रतिशत 11 है। मुस्लिम आबादी भी 14 प्रतिशत है, मगर जेल में उनकी मौजूदगी 20 प्रतिशत से ज्यादा है। एक आंकड़ा यह भी चौंकाने वाला है कि प्रतिबंधात्मक कार्रवाई या ऐसे ही अन्य कानूनों के तहत बंदी बनाए गए लोगों में से आधे मुस्लिम होते हैं। इस तरह के मामले दर्ज करने के लिए पुलिस को वाहवाही मिलती है कि उसने अपराध होने से पहले ही कार्रवाई कर दी। हमारे आंचलिक इलाकों में ऐसे मामले न्यायालय में नहीं जाते हैं। इनकी सुनवाई नायब तहसीलदार से लेकर एसडीएम तक करता है और उनकी जमानत सुनवाई कर रहे अफसरों की इच्छा पर निर्भर है। अब पिछले साल बस्तर अंचल की चार जेलों में बंद बंदियों के बारे में सूचना के अधिकार के तहत सामने आई जानकारी पर नजर डालें। दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है, लेकिन यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों में 377 लोग बंद हैं, जो सभी आदिवासी ही हैं। कुल 429 क्षमता वाली जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं। इनमें से 512 आदिवासी हैं। इनमें 53 महिलाएं हैं और नौ लोग पांच साल से ज्यादा से बंद हैं तथा आठ लोगों की बीते एक साल में कोई भी अदालत में पेशी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं। इनमें से 134 आदिवासी और छह औरतें हैं, जबकि इस जेल की बंदी क्षमता मात्र 85 है। दुर्ग जेल की क्षमता 396 बंदियों की है। यहां चार औरतों सहित 57 नक्सली बंदी हैं। इनमें से 51 आदिवासी हैं। इससे स्पष्ट है कि सिर्फ चार जेलों में एक हजार से ज्यादा आदिवासी बंद हैं। यदि पूरे राज्य की गणना करें, तो यह संख्या पांच हजार के आसपास पहुंचेगी। इन आंकड़ों के विश्लेषण का मतलब यह कतई नहीं है कि अपराध या अपराधियों को जाति या समाज में बांटा जाए, पर यह तो विचारणीय है कि हमारी न्याय व्यवस्था, जेल पुलिस उन लोगों के लिए ही अनुदार क्यों है, जो लोग आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक तौर पर पिछड़े होते हैं और जिनका शोषण और उत्पीड़न सरल होता है। यह बात आए रोज सुनने को मिलती है कि फलां व्यक्ति आतंकवाद के आरोप में 10 या उससे अधिक साल तक जेल में रहा और अब उसे अदालत ने बाइज्जत छोड़ दिया। मगर, यह विचार करने वाला कोई नहीं होता कि 10 साल में उसने जो बदनामी एवं शोषण सहा है, उसकी भरपाई अदालत के फैसलों से नहीं हो सकती। जेल से निकलने वाले को समाज भी उपेक्षित नजर से देखता है व ऐसे लोग आमतौर पर न चाहते हुए भी उन लोगों की तरफ चले जाते हैं, जो आदत से अपराधी होते हैं। इस बीच जब लक्ष्मणपुर बाथे या फिर हाशिमपुरा में सामूहिक हत्याकांड के दोषियों के अदालत से बरी हाने की खबरें आती हैं, तो भले ही उनसे सियासती हित साधने वालों को कुछ लाभ हो, लेकिन समाज में इसका संदेश गलत ही जाता है। मुसलमानों के लिए तो कई धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक संगठन आवाज भी उठाते रहते हैं, पर आदिवासियों या दलितों के लिए कभी संगठित प्रयास नहीं होते। आदिवासियों के मसले में तो अब एक नया ट्रैंड चल पड़ा है कि उनके हित में बात करना यानी नक्सलवाद को बढ़ावा देना। हालांकि, इसका निदान पहले शिक्षा या जागरूकता और उसके बाद आर्थिक स्वावलंबन ही है। जरूरी है कि इसके लिए कुछ प्रयास सरकार के स्तर पर व अधिक प्रयास समाज के स्तर पर हों। यह भी बेहद जरूरी है कि आम लोगों को पुलिस की कार्यप्रणाली, अदालतों की प्रक्रिया, मुफ्त कानूनी सहायता जैसे विषयों की जानकारी दी जाए। वरना, लोग जेलों में सड़ते रहेंगे। |
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