क्यों नहीं रहा पुलिस का डर
पंकज चतुर्वेदी
आजादी के बाद लोकतांत्रिक सरकारों ने पुलिस को कानून के मातहत जन-हितैषी संगठन बनाने की बातें तो कीं, लेकिन इसमें संकल्पबद्धता कम और दिखावा ज्यादा रहा। वास्तव में राजनीतिक दलों को यह समझते देर नहीं लगी कि पुलिस उनके निजी हितों के पोषण में कारगर सहायक हो सकती है और उन्होंने सत्तासीन पार्टी के लिए इसका भरपूर दुरुपयोग किया। परिणामत: आम जनता व पुलिस में अविश्वास की खाई बढ़ती चली गई और समाज में असुरक्षा व अराजकता का माहौल बन गया...
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Daily News activist , lucknow, 20-8-15 |
लग रहा है कि समूचा देश अपराध की चपेट में है। बलात्कार, छेड़छाड़, लूट की घटनाओं से आम जनता हलकान है। यह तो सामने आ गया है कि यदि पुलिस मुस्तैद होती, फोर्स का सही इस्तेमाल होता तो यह आग इतना विकराल रूप नहीं लेती। वैसे भी पिछले कुछ सालों से पूरे देश में सरेआम अपराधों की जैसे झड़ी ही लग गई है। भीड़भरे बाजार में जिस तरह से हथियारबंद अपराधी दिनदहाड़े लूटमार करते हैं, महिलाओं की जंजीर व मोबाइल फोन झटक लेते हैं, एटीएम मशीन उखाड़ कर ले जाते हैं। इससे साफ है कि अपराधी पुलिस से दो कदम आगे हैं और उन्हें कानून या खाकी वर्दी की कतई परवाह नहीं है। पुलिस को मिलने वाला वेतन और कानून व्यवस्था को चलाने के संसाधन जुटाने पर उसी जनता का पैसा खर्च हो रहा है, जिसके जानोमाल की रक्षा का जिम्मा उन पर है। ऐसा नहीं है कि पुलिस खाली हाथ हैं, आए रोज कथित बाइकर्स गैंग पकड़े जाते हैं, बड़े-बड़े दावे भी होते हैं, लेकिन अगले दिन ही उससे भी गंभीर अपराध सुनाई दे जाते हैं। लगता है कि दिल्ली व पड़ोसी इलाकों में दर्जनों बाइकर्स गैंग काम कर रहे हैं और उन्हें पुलिस का कोई खौफ नहीं हैं। अकेले गाजियाबाद जिले की हिंडन पार की कालोनियों में हर रोज झपटमारी की दर्जनों घटनाएं हो रही हैं और अब पुलिस ने मामले दर्ज करना ही बंद कर दिया है। जिस गति से आबादी बढ़ी उसकी तुलना में पुलिस बल बेहद कम है। मौजूद बल का लगभग 40 प्रतिशत नेताओं व अन्य महत्वपूर्ण लोगों की सुरक्षा में व्यस्त है। खाकी को सफेद वर्दी पहना कर उन्हीं पर यातायात व्यवस्था का भी भार है। अदालत की पेशियां, अपराधों की तफ्तीश, आए रोज हो रहे दंगे, प्रदर्शनों को झेलना। कई बार तो पुलिस की बेबसी पर दया आने लगती है। मौजूदा पुलिस व्यवस्था वही है, जिसे अंग्रेजों ने 1857 जैसी बगावत की पुनरावृत्ति रोकने के लिए तैयार किया था। अंग्रेजों को बगैर तार्किक क्षमता वाले आततायियों की जरूरत थी, इसलिए उन्होंने इसे ऐसे रूप में विकसित किया कि पुलिस का नाम ही लोगों में भय का संचार करने को पर्याप्त हो। आजादी के बाद लोकतांत्रिक सरकारों ने पुलिस को कानून के मातहत जन-हितैषी संगठन बनाने की बातें तो कीं, लेकिन इसमें संकल्पबद्धता कम और दिखावा ज्यादा रहा। वास्तव में राजनीतिक दलों को यह समझते देर नहीं लगी कि पुलिस उनके निजी हितों के पोषण में कारगर सहायक हो सकती है और उन्होंने सत्तासीन पार्टी के लिए इसका भरपूर दुरुपयोग किया। परिणामत: आम जनता व पुलिस में अविश्वास की खाई बढ़ती चली गई और समाज में असुरक्षा व अराजकता का माहौल बन गया। शुरू-शुरू में राजनीतिक हस्तक्षेप का प्रतिरोध भी हुआ। थाना प्रभारियों ने विधायकों व मंत्रियों से सीधे भिड़ने का साहस दिखाया, पर जब ऊपर के लोगों ने स्वार्थवश हथियार डाल दिए, तब उन्होंने भी दो कदम आगे जाकर राजनेताओं को ही अपना असली आका बना लिया। अंतत: इसकी परिणति पुलिस-नेता-अपराधी गठजोड़ में हुई, जिससे आज पूरा समाज इतना त्रस्त है कि सर्वोच्च न्यायालय तक ने पुलिस में कुछ ढांचागत सुधार तत्काल करने की सिफारिशें कर दीं। लेकिन लोकशाही का शायद यह दुर्भाग्य ही है कि अधिकांश राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को नजरअंदाज कर रही हैं। परिणति सामने है- पुलिस अपराध रोकने में असफल है। कानून व्यवस्था या वे कार्य, जिनका सीधा सरोकार आम जन से होता है, उनमें थाना स्तर की ही मुख्य भूमिका होती है। लेकिन अब हमारे थाने बेहद कमजोर हो गए हैं। वहां बैठे पुलिसकर्मी आमतौर पर अन्य किसी सरकारी दफ्तर की तरह क्लर्क का ही काम करते हैं। थाने आमतौर पर शरीफ लोगों को भयभीत और अपराधियों को निरंकुश बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज जरूरत है कि थाने संचार और परिवहन व अन्य अत्याधुनिक तकनीकों से लैस हों। बदलती परिस्थितियों के अनुसार थानों का सशक्तीकरण महति है। आज अपराधी थाने में घुस कर हत्या तक करने में नहीं डरते। कभी थाने उच्चाधिकारियों और शासन की प्रतिष्ठा की रक्षा के सीमावर्ती किलों की भांति हुआ करते थे। जब ये किले कमजोर हो गए तो अराजक तत्वों का दुस्साहस इतना बढ़ गया कि वे जिला पुलिस अधीक्षक से मारपीट और पुलिस महानिदेशक की गाड़ी तक को रोकने से नहीं डरते हैं। रही बची कसर जगह-जगह अस्वीकृत चौकियों, पुलिस सहायता बूथों, पिकेटों आदि की स्थापना ने पूरी कर दी है। इससे पुलिस-शक्ति के भारी बिखराव ने भी थानों को कमजोर किया है। थानों में स्ट्राइकिंग फोर्स नाममात्र की बचती है। इससे किसी समस्या के उत्पन्न होने पर वे त्वरित प्रभावी कार्यवाही नहीं कर पाते हैं। तभी पुलिस थानों के करीब अपराध करने में अब अपराधी कतई नहीं घबराते हैं। पुलिस सुधारों में अपराध नियंत्रण, घटित अपराधों की विवेचना और दर्ज मुकदमें को अदालत तक ले जाने के लिए अलग-अलग विभाग घटित करने की भी बात है। सनद रहे, अभी ये तीनों काम एक ही पुलिस बल के पास है, तभी आज थाने का एक चौथाई स्टाफ हर रोज अदालत के चक्कर लगाता रहता है। नियमित पेट्रोलिंग लगभग न के बराबर है। यह भी एक दुखद हकीकत है कि पुलिस को गश्त के लिए पेट्रोल बहुत कम या नहीं मिलता है। पुलिसकर्मी अपने स्तर पर इंधन जुटाते हैं, जाहिर है कि इसके लिए गैरकानूनी तरीकों का सहारा लेना ही पड़ता होगा। उत्तर प्रदेश में कई थाने ऐसे हैं, जहां टेलीफोन कनेक्शन कट चुके हैं। राजधानी के समीपवर्ती गाजियाबाद जिले की पुलिस तो अभी भी सन् 65 के मॉडल की जीप पर गश्त कर रही है, जबकि अपराधी पलक झपकते ही हवा से बातें करने वाली मोटरसाइकिल पर सवार होते हैं। यहां उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के कराची में पुलिस विशेष रूप से तैयार किए गए तिपहिया स्कूटरों पर गश्त करती है। एक तो उस पर एक साथ तीन पुलिसवाले सवार हो जाते हैं, फिर इसमें इंर्धन का खर्च कम है और साथ ही यह तेज गति से गलियों में भी दौड़ लेता है। इन दिनों पुलिस सुधार का हल्ला चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट भी इस बारे में निर्देश दे चुका है, लेकिन देश का नेता पुलिस के उपनिवेशिक चेहरे को बदलने में अपना नुकसान महसूस करता है। तभी विवेचना और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए अलग-अलग एजेंसियों की व्यवस्था पर सरकार सहमत नहीं हो पा रही है। वे नहीं चाहते हैं कि थाना प्रभारी जैसे पदों पर बहाली व तबादलों को समयबद्ध किया जाए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दंगों में एक समाज विशेष के पुलिस वालों ने अल्पसंख्यकों की खूब गरदनें कटवाईं। जब पुलिस का जाति व सांप्रदायीकरण इस स्तर पर होगा या है तो जन सरोकार का गर्त में जाना लाजिमी ही है। इसी का परिणाम है कि उत्तर प्रदेश में अपराधी पुलिस की कमजोरियों का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। ऐसा ही देश के अन्य राज्यों में भी होता है। सभी जानते हैं कि अमुक दरोगा किसका आदमी है। वैसे भी अपराधों में इजाफा नगरीय अपसंस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है। कोई एक दशक पहले दिल्ली नगर निगम के स्लम विभाग द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट भले ही कहीं लाल बस्ते में बंध कर गुम हो गई है, लेकिन वह है आज भी प्रासंगिक। निगम के स्लम तथा जेजे विभाग की रिपोर्ट में कहा गया था कि राजधानी में अपराधों में ताबड़तोड़ बढ़ोतरी के सात मुख्य कारण हैं- अवांछित पर्यावरण, उपेक्षा तथा गरीबी, खुले आवास, बड़ा परिवार, अनुशासनहीनता व नई पीढ़ी का बुजुगोंर् के साथ अंतर्विरोध और नैतिक मूल्यों में गिरावट। पुलिस की मौजूदा व्यवस्था इन कारकों के प्रति कतई संवेदनशील नहीं है। वह तो डंडे और अपराध हो जाने के बाद अपराधी को पकड़ कर जेल भेजने की सदियों पुरानी नीति पर ही चल रही है। जबकि आज जिस तरह समाज बदल रहा है, उसमें संवेदना और आर्थिक सरोकार प्रधान होते जा रहे हैं, ऐसे में सुरक्षा एजेंसियों की जिम्मेदारी, कार्य प्रणाली व चेहरा सभी कुछ बदलना जरूरी है। आज जरूरत डंडे का दवाब बढ़ाने की नहीं है, सुरक्षा एजेंसियों को समय के साथ आधुनिक बनाने की है।
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