My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

Non- textbook can change learning process of primary school

राष्ट्रीय सहारा , १९ अगस्त १५  

व्यावहारिक शिक्षा की ओर बढ़ें कदम


पंकज चतुर्वेदी 
सरकार में बैठे लोग यह समझ गए हैं कि जब तक देश की साक्षरता दर नहीं बढ़ेगी, तब तक हर साल की अरबों रपए की कल्याणकारी योजनाओं का पानी में जाना जारी रहेगा। सारे देश में प्राथमिक शिक्षा की पहुंच अधिक से अधिक लोगों तक करने के नए-नए प्रयोग चल रहे हैं। यह भी स्वीकार किया जाने लगा है कि हमारी पाठ्य पुस्तकों में कहीं न कहीं कोई कमी अवश्य है तभी बच्चा वाक्यों को ‘‘डिकोड’ करना तो सीख लेता है , लेकिन उसके व्यावहारिक प्रयोग से अनभिज्ञ रहता है। इसे भी स्वीकार किया जाने लगा है कि सरकारी स्कूलों की हालत सुधारे बगैर देश में प्राथमिक शिक्षा की गाड़ी सड़क पर लाना असंभव ही है। देश के लाखों लाख सरकारी स्कूल- कई लाख में भवन नहीं हैं, कई लाख में एक ही शिक्षक कई-कई कक्षाओं को पढ़ाता है, कई हजार में ब्लैक बोर्ड और चाक जैसी सुविधाएं नहीं हैं। ऐसे स्कूलों की संख्या भी हजारों में है, जो कि केवल कागजों पर हैं।इसके बावजूद जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी), सर्व शिक्षा अभियान, जनशाला और ऐसी ही अन्य अनेक योजनाओं के माध्यम से सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने के भरसक प्रयास हो रहे हैं। अब गांव-गांव के स्कूलों तक भी बच्चों की पुस्तकें पहुंच रही हैं- रंग-बिरंगी कहानियों की पुस्तकें, ज्ञानवर्धक और रोचक पुस्तकें, शिक्षकों के लिए प्रेरक व दिशा निर्देशक पुस्तकें! प्रत्येक शिक्षक को भी हर साल पांच सौ रपए दिए जा रहे हैं कि वे अपनी पसंद की शिक्षण-सहायक सामग्री खरीद लें। अधिकांश स्थानों पर शिक्षक पुस्तकें ही खरीद रहे हैं। यानी, हर स्कूल तक पुस्तकें पहुंचने का सिलसिला शुरू हो गया है।इतनी पुस्तकें हैं, लेकिन पाठक नहीं हैं । यह सत्य का दूसरा पहलू है। पढ़ने वाले तो हैं, लेकिन पुस्तकें पाठकों तक देने में कई व्यवधान भी हैं। समय नहीं हैं, साधन नहीं हैं और स्थान नहीं हैं। लेकिन इन तीन ‘‘स’ के बीच जिन शिक्षकों के पास चौथा ‘‘स’ है, वहां पुस्तकें पाठकों तक पहुंुंच रही हैं और बच्चे उनका मजा उठा रहे हैं। इससे उनका शैक्षिक व बौद्धिक स्तर भी ऊंचा हो रहा है। यह चौथा ‘‘ स’ है- संकल्प। कुछ नया करने व मिलने वाले वेतन को न्यायोचित ठहराने का संकल्प ।इसमें दो राय नहीं कि समूचे प्रशासनिक ढांचे को बदलना तत्काल संभव नहीं हैं, लेकिन उस बदलाव के इंतजार में वर्तमान और भविष्य दोनों को नष्ट कर देना भी समझदारी नहीं है। ऐसी स्थिति में अलग तरह की पुस्तकों के माध्यम से सरकारी स्कूल के शिक्षकों की व्यावहारिक परेशानियों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसा गतिविधि केंद्र विकसित करने के सुझाव दिया जा सकता है जो कि बच्चों के लिए तो लाभदायक होगा ही, शिक्षक भी इससे बेहद लाभान्वित होंगे ।वास्तव में शिक्षा के निमित्त स्कूल महज एक तरफा संवाद का माध्यम नहीं होना चाहिए जिसमें शिक्षक केवल पाठय़ पुस्तक को पढ़ाते हुए बच्चों को समझा रहा है और बच्चे सुन रहे हों। स्कूल बच्चों के लिए घुटनभरा कमरा न बन कर रह जाए, इसके लिए छोटी-छोटी गतिविधियां बेहद लाभकारी हैं। स्कूल में एक ऐसा कोना अनिवार्यत: हो जहां बच्चा अपने मन की बात शिक्षक से कह सके। वह जो कुछ करना चाहता है- गाना, बजाना, चित्र बनाना, लिखना, प्रकृति को देखना-यानी जो कुछ वह चाहता है, उसे करने का अवसर मिले और वह अपने समाज व परिवेश को समझ सके। यदि थोड़ा सा प्रयास किया जाए तो स्कूल बच्चों का पसंदीदा मनोरंजक स्थल बन सकता है। साथ में गैर-पाठ्य पुस्तकें भी हों तो रचनात्मकता और सीखने की प्रक्रिया को सही दिशा मिलना तय है।आकस्मिक या मनमर्जी से समय का इस्तेमाल भी बच्चों की रचनात्मकता विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इससे बच्चों को पारंपरिक पढ़ाई की एक तरह की दिनर्चया से छूट मिलती है और उनमें आत्मनिर्भरता बढ़ती है। मिशिगन विविद्यालय के सामाजिक शोध विभाग ने हाल में इस बारे में एक शोध भी किया था। बच्चों का जीवन स्कूल व घर दोनों जगह बड़ों द्वारा बनाए गए कानूनों व टाइम टेबिल में बंधा होता है। वह भी हर दिन एक सरीखा। यहां तक कि बच्चों के लिए बड़ों द्वारा बनाये खेल भी कहीं न कहीं उनको तनाव देते हैं, क्योंकि उनमें बड़ों के मानसिक स्तर के नियम, बंधन होते हैं, जीतने का अव्यक्त तनाव होता है। प्रयोग के तौर पर बच्चों को अपने खुद के खेल और कायदे-कानून बनाने का मौका दें। या फिर स्कूल में बच्चों की दिनर्चया में अचानक बदलाव करें। जैसे किसी दिन पहले गणित पढ़ाई तो अगले दिन की शुरुआत हिन्दी से की जा सकती है। खेल के समय, बाल सभा, बाहर घूमने, प्रकृति विचरण जैसे गतिविधियों के लिए बगैर किसी पूर्व सूचना के समय निकालने का भी बच्चों के व्यक्तित्व विकास पर अलग प्रभाव डालेगा। स्कूल में बच्चों को यह भी सिखाना जरूरी है कि क्रोध, खुशी, अनिच्छा जैसी भावनाओें पर जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया देने से कैसे बचा जाए। सामाजिक जुड़ाव यानी बच्चे का अपने गांव, मुहल्ले, घर-परिवेश से भावनात्मक जुड़ाव बना रहे, इसके लिए भी व्यावहारिक स्तर पर शुरू से प्रयास जरूरी हैं ।आमतौर पर स्कूलों में खेल का समय बीच में या फिर आखिर में होता है जबकि 10-12 साल के बच्चों के लिए शारीरिक मेहनत उनके सीखने व याद करने की प्रक्रिया में ग्लूकोज जैसा काम करती है। अत: स्कूलों में खेलकूद जैसी गतिविधियां शुरू में ही रखी जानी चाहिए। इससे बच्चे का स्कूल में मन भी लगेगा, साथ ही वे शारीरिक रूप से बौद्धिक कार्य करने के लिए भी तैयार रहेंगे। एक प्राथमिक स्कूल के शिक्षक की भूमिका बच्चे को ज्ञान देने वाले या फिर मनोरंजन करने वाले से अधिक उसके सहयोगी की होना चाहिए। वह केवल यह देख्ेा कि बच्चा किस दिशा में जा रहा है। बच्चा जब पहले-पहल चलना सीखता है तो उसका लड़खड़ाना वाजिब है, इसी तरह सीखने-सिखाने की शुरुआती प्रक्रिया में बच्चे के लड़खड़ाने पर शिक्षक को उसे तत्काल संभालने की कोशिश से बचना चाहिए। बच्चे अपने अनुभव और प्रयोगों से जल्दी व ज्यादा सीखते हैं ।बच्चों की सृजनात्मकता विकसित करने के लिए उन्हें अपने परिवेश से ही उदाहरण चुनने के लिए प्रेरित करना चाहिए। खेत-खलिहान के काम, मवेशी चराने, गृहिणी की दिनर्चया या मकान या सड़क बना रहे मजदूर की गतिविधियों में भी सृजनात्मकता की स्थितियां समझी-बूझी जा सकती हैं। शिक्षक, समाज और बच्चों के बीच दिनों-दिन बढ़ रहे अविास को समाप्त करने के लिए कुछ छोटी-छोटी जिम्मेदारियों को साझा करने के प्रयोग शुरू करने चाहिए। इस कार्य में बच्चे और समुदाय दोनों को ही शामिल किया जाना चातहए गांव या मोहल्ले का छोटा सा पुस्तकालय स्कूल में शुरू करना इस दिशा में बड़ी रचनात्मक पहल हो सकता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Have to get into the habit of holding water

  पानी को पकडने की आदत डालना होगी पंकज चतुर्वेदी इस बार भी अनुमान है कि मानसून की कृपा देश   पर बनी रहेगी , ऐसा बीते दो साल भी हुआ उसके ...