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गुरुवार, 3 सितंबर 2015

Now they never come back !

आखिर कब लौटेंगे हमारे लापता फौजी!


1देश की नई पीढ़ी को तो शायद यह भी याद नहीं होगा कि 1971 के पाकिस्तान युद्ध में देश का इतिहास व विश्व का भूगोल बदलने वाले कई रणबांकुरे अभी भी पाकिस्तान की जेलों में नारकीय जीवन बिता रहे है्ं। उन जवानों के परिवारजन अपने लोगों के जिंदा होने के सबूत देते हैं, लेकिन भारत सरकार महज औपचारिकता निभाने से अधिक कुछ नहीं करती है। इस बीच ऐसे फौजियों की जिंदगी पर बालीवुड में कई फिल्में बन गई हैं और उन्हें दर्शकों ने सराहा भी। लेकिन वे नाम अभी भी गुमनामी के अंधेरे में हैं जिन्हें ना तो शहीद माना जा सकता है और ना ही गुमशुदा । भारत-पाक रिश्तों के लिए भारत हर समय ‘शिमला समझौत’ के अनुरूप बगैर किसी मध्यस्थ के बातचीत की दुहाई देता रहा है। यह बिडंबना भी है और शर्मनाक भी कि जिन फौजियों के खून से शिमला समझौते की इबारत लिखी गई थी, उन्हें सरकार और समाज दोनों भुला बैठे हैं। जब कभी भी पाकिस्तान से हमारे मधुर संबंधों की बात आती है, तब सीमा पर घुसपैठ और आतंकवाद या फिर व्यापार बढ़ाने पर जोरशोर से चर्चा होती है,
Peoples Samachar 3-9-15
लेकिन हमारी सरकार उन 70 रणबाकुरों को पूरी तरह बिसरा चुकी है, जिन्होंने 1965 और 1971 में इस देश की एकता-अखंडता का जिम्मा उठाया था व आज तक उनका कोई अता-पता नहीं है। हर साल संसद में यह स्वीकार किया जाता रहा है कि पाकिस्तान की जेलों में हमारे 70 सैनिक लापता हैं। जिनमें से 54 जवान 1971 के युद्ध बंदी हैं । उम्मीद के हर कतरे की आस में तिल-दर-तिल घुलते इन जवानों के परिवारजनए अब लिखा-पढ़ी करके थक गए हैं। 1971 के युद्ध के दौरान जिन 54 फौजियों के पाकिस्तानी गुनाहखानों में होने के दावे हमारे देशवासी करते रहे हैं, उनमें से 40 का पुख्ता विवरण उपलब्ध हैं । इनमें 6-मेजर, 1-कमाडंर, 2 लाइंग आफिसर, 5 कैप्टन, 15 μलाईट लेμिटनेंट, 1 सेकंड ला.लेट, 3 स्क्वाड्रन लीडर, 1 नेवी पालयट कमांडर, 3 लांसनायक, और 3 सिपाही हैं। एक लापता फौजी मेजर अशोक कुमार सूरी के पिता डॉ आरएलएस सूरी के पास तो कई पक्के प्रमाण हैं, जो उनके बेटे के पाकिस्तानी जेल में होने की कहानी कहते हैं। डॉ सूरी को 1974 व 1975 में उनके बेटे के दो पत्र मिले, जिसमें उसने 20 अन्य भारतीय फौजी अफसरों के साथ, पाकिस्तान जेल में होने की बात लिखी थी। 1979 में डॉ सूरी को किसी अंजान ने फोन करके बताया कि उनके पुत्र को पाकिस्तान में उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश की किसी भूमिगत जेल में भेज दिया गया है। पाकिस्तान जेल में कई महीनों तक रहने के बाद लौटे एक भारतीय जासूस मोहन लाल भास्कर ने, लापता विंग कमांडर एचएस गिल को एक पाक जेल में देखने का दावा किया था। लापता μलाईट लैμिटनेंट वीवी तांबे को पाकिस्तानी फौज द्वारा जिंदा पकड़ने की खबर, ‘संडे पाकिस्तान आबजर्वर’ के पांच दिसंबर 1971 के अंक में छपी थी। वीर तांबे का विवाह बेडमिंटन की राष्टÑीय चैंपियन रहीं दमयंती से हुआ था । सेकंड लेμिटनेंट सुधीर मोहन सब्बरवाल जब लड़ाई के लिए घर से निकले थे, तब मात्र 23 वर्ष के थे । कैप्टन रवीन्द्र कौरा को अदभ्य शौर्य प्रदर्शन के लिए सरकार ने ‘वीर चक्र’ से सम्मानित किया था, लेकिन वे अब किस हाल में और कहां हैं, इसका जवाब देने में सरकार असफल रही है । पाकिस्तान के मरहूम प्रधानमंत्री जुल्फकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के तथ्यों पर छपी एक किताब भारतीय युद्धवीरों के पाक जेल में होने का पुख्ता सबूत मानी जा सकती है। बीबीसी संवाददाता विक्टोरिया शोफील्ड की किताब ‘भुट्टो: ट्रायल एंड एक्सीक्यूशन’ के पेज 59 पर भुट्टो को फांसी पर लटकाने से पहले कोट लखपतराय जेल लाहौर में रखे जाने का जिक्र है। किताब में लिखा है कि भुट्टो को पास की बैरक से हृदयविदारक चीख पुकार सुनने को मिलती थीं । भुट्टो के एक वकील ने पता किया था कि वहां 1971 के भारतीय युद्ध बंदी है। जो लगातार उत्पीड़न के कारण मानसिक विक्षिप्त हो गए थे। संयुक्त राष्ट के विएना समझौते में साफ जिक्र है कि युद्ध के पश्चात, रेडक्रॉस की देखरेख में तत्काल सैनिक अपने-अपने देश भेज दिए जाएंगे । दोनों देश आपसी सहमति से किसी तीसरे देश को इस निगरानी के लिए नियुक्त कर सकते हैं। इस समझौते में सैनिक बंदियों पर क्रूरता बरतने पर कड़ी पाबंदी है। लेकिन भारत-पाक के मसले में यह कायदा-कानून कहीं दूरदूर तक नहीं दिखा । 1972 में अंतरराष्टÑीय रेडक्रास ने भारतीय युद्ध बंदियों की तीन लिस्ट जारी करने की बात कही थी । लेकिन सिर्फ दो सूची ही जारी की गई । गुमशुदा μलाइंग आफिसर सुधीर त्यागी के पिता आरएस त्यागी का दावा है कि उन्हें खबर मिली थी कि तीसरी सूची में उनके बेटे का नाम था। लेकिन वो सूची अचानक नदारद हो गई । विएना समझौता के तहत सैनिकों के मारे जाने बाबत जो प्रमाण होने चाहिए,पाकिस्तान सरकार उनमें से एक भी प्रमाण इन 54 जवानों के लिए दे नहीं पाई है। अलबत्ता उनके पाकिस्तान सरकार ने लापता फौजियों को जेल में पहचानने के लिए एक भारतीय प्रतिनिधि मंडल को आने का न्यौता दिया था । पाकिस्तान के मानवाधिकर कार्यकतार्ओं को भी जेल दिखाने के नाटक किए जाते रहे। लेकिन अपनी एक गलती छुपाने के लिए पाकिस्तान सरकार ने भारतीय अभिभावकों के सामने 160 साधारण भारतीय बंदी शिनाख्त के लिए पेश किए गए। इनमें से एक भी फौजी नहीं था। जेल अधिकारियों ने ही दबी जुबान में कह दिया कि उन्हें गलत जगह भेजा गया है। भारत की सरकार लापता फौजियों के परिवारजनों को सिर्फ आस दिए हैं कि उनके बेटे-भाई जीवित हैं । लेकिन कहां है किस हाल में हैं ? कब व कैसे वापस आएंगे? इसकी चिंता ना तो हमारे राजनेताओं को है और ना ही आला फौजी अफसरों को। काश 1971 की लड़ाई जीतने के बाद भारत ने पाकिस्तान के 93,000 बंदियों को रिहा करने से पहले अपने एक-एक आदमी को वापस लिया होता। पूरे पांच साल तक प्रधानमंत्री रहे पीवी नरसिंहराव भी भूल चुके थे कि उन्होंने जून 90 में बतौर विदेश मंत्री एक वादा किया था कि सरकार अपने बहादुर सैनिक अधिकारियों को वापिस लाने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं । लेकिन देश के सर्वोच्च पद पर रहने के दौरान अपनी कुर्सी बचाने के लिए हर कीमत चुकाने की व्यस्तता में उन्हें उन 70 सैनिक परिवारों के आंसुओं की नमी का एहसास नहीं हुआ । भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि हमारी फौज के कई जवान पाक जेलों में नारकीय जीवन भोग रहे हैं। करनाल के करीम बख्श और पंजाब के जागीर सिंह का पाक जेलों में लंबी बीमारी व पागलपन के कारण निधन हो गया। 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान द्वारा युद्ध बंदी बनाया गया सिपाही धर्मवीर 1981 में जब वापस आया तो पता लगा कि यातनाओं के कारण उसका मानसिक संतुलन पूरी तरह बिगड़ गया है। सरकार का दावा है कि कुछ युद्ध बंदी कोट लखपतराय लाहौर, फैसलाबाद, मुलतान, मियांवाली और बहावलपुर जेल में है । 39 साल के लंबे अंतराल में हमारा लंबा चौड़ा प्रशासनिक व गुप्तचर-तंत्र, उन वीरों की वापसी तो दूर की बात है, वो प्रमाण भी सरकारी तौर पर मुहैया नहीं करवा पाया है, जिसके बूते पर हमारे जवानों के सलामत पाकिस्तानी जेल में होने का दावा अंतरराष्टय स्तर पर किया जा सके। ऊपर से हर साल संसद में उनके जीवित होने का दावा करके यादों में खोए उनके परिवारजनों को पुन: छटपटाने को मजबूर किया जाता रहा है । या तो सरकार उन जवानों के वीरगति को प्राप्त होने की घोषणा कर दें, ताकि उनके परिवारजन रो- धोकर संतोष कर लें। अपने लाड़लों की आत्मा की शांति हेतु धार्मिक कर्मकांडों से निवृत हो जाएं। या फिर उनको वापिस लाने का कोई समयबद्ध कार्यक्रम तय किया जाए। सरकार को जान लेना चाहिए कि फौजी जवानों को राजनैतिक दांवपेंच का मोहरा बनाना आने वाले दिनों में देश की एकतां अखंडता के लिए घातक हो सकता है। आज जब अमेरिका के दवाब में भारत- पाक संबंधों की मधुरता के लिए मुददे नए सिरे से तय हो रहे हैं, तब हरेक राष्टवादी राजनेता का यह पहला कर्तव्य है कि उन मुददों में हमारे रणबांकुरों की सकुशल वापसी की शर्त को प्राथमिकता से शामिल किया जाए ।

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