साल की शुरुआत में ही मौसम विभाग ने कम बारिश की चेतावनी दी थी और उसके बाद बेमौसम बारिश से देशभर में खेती-किसानी का जो नुकसान हुआ था, उसी समय कृषि मंत्रालय ने घोषणा कर दी थी कि इसका असर दाल पर जबर्दस्त होगा. यह पहली बार नहीं हो रहा है कि मांग की तुलना में दाल की आपूर्ति या उत्पादन कम होने से बाजार में दाल के दामों ने हाहाकार मचाया है. हर बार की तरह इस साल भी दाल आयात करने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गई लेकिन यहां यह समझना जरूरी है कि विदेशों से दाल मंगवाकर न तो हम आम आदमी की थाली में दाल की वापसी कर सकते हैं और न ही इसकी कीमतों पर नियंत्रण. जरूरत इस बात की है कि हमारे खेतों में दाल की बुवाई का रकबा बढे. व किसान को भी दाल उगाने के लिए प्रोत्साहन मिले.
भारत में दालों की खपत 220 से 230 लाख टन सालाना है, जबकि कृषि मंत्रालय मार्च में कह चुका था कि इस बार दाल का उत्पादन 184. 3 लाख टन रह सकता है जो पिछले साल के उत्पादन 197. 8 लाख टन से काफी कम है. दाल की कमी होने से इसके दाम भी बढे., नतीजतन आम आदमी ने प्रोटीन की जरूरतों की पूर्ति के लिए दीगर अनाजों और सब्जियों पर निर्भर होना शुरू कर दिया. इस तरह दूसरे अनाजों व सब्जियों की भी कमी और दाम में बढ.ोत्तरी होगी. सनद रहे कि गत 25 सालों से हम हर साल दालों का आयात तो कर रहे हैं लेकिन दाल में आत्मनिर्भर बनने के लिए इसका उत्पादन और रकबा बढ.ाने की कोई ठोस योजना नहीं बन पा रही है.
यहां जानना जरूरी है कि भारत दुनियाभर में दाल का सबसे बड.ा खपतकर्ता, पैदा करने वाला और आयात करने वाला देश है. दुनिया में दाल के कुल खेतों का 33 प्रतिशत हमारे यहां है जबकि खपत 22 फीसदी है. इसके बावजूद अब वे दिन सपने हो गए हैं जब आम-आदमी को 'दाल-रोटी खाओ, प्रभुा के गुण गाओ' कहकर कम में ही गुजारा करने की सीख दे दी जाती थी. आज दाल बाजार में मांग की तुलना में बेहद कम उपलब्ध है और जो उपलब्ध भी है उसकी कीमत चुकाना आम-आदमी के बस के बाहर है. नेशनल सैंपल सर्वे के एक सर्वेक्षण के मुताबिक आम भारतीयों के खाने में दाल की मात्रा में लगातार हो रही कमी का असर उनके स्वास्थ्य पर दिखने लगा है. इसके बावजूद दाल की कमी राजनैतिक मुद्दा नहीं बन पा रहा है. ल्ल■ आम भारतीयों के खाने में दाल की मात्रा में लगातार हो रही कमी का असर उनके स्वास्थ्य पर दिखने लगा है.
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हिंदुस्तान,17अक्तूबर15 |
यह पहली बार भी नहीं हो रहा है कि मांग की तुलना में दाल की आपूर्ति या
उत्पादन कम होने से बाजार में दाल के दामों ने हाहाकार मचाया है। हर बार की
तरह इस साल भी दाल आयात की प्रक्रिया शुरू हो गई है, लेकिन सच यह है कि
विदेश से दाल मंगवाकर न तो हम आम आदमी की थाली में दाल की वापसी कर सकते
हैं, और न ही इसकी कीमतों पर नियंत्रण।
समाधान एक ही है कि हमारे खेतों में दाल की बुवाई का रकबा बढ़े व किसान को
दाल उगाने के लिए प्रोत्साहन मिले। पिछले 25 साल से हम दालों का आयात कर
रहे हैं, लेकिन उनका उत्पादन और रकबा बढ़ाने की कोई ठोस योजना नहीं बना
पाए।
भारत में दालों की खपत 220 से 230 लाख टन सालाना है, जबकि कृषि मंत्रालय
मार्च में कह चुका था कि इस बार दाल का उत्पादन 184.3 लाख टन रह सकता है,
जो पिछले साल के उत्पादन 197.8 लाख टन से काफी कम है। दाल की कमी होने से
इसके दाम भी बढ़े, और आम आदमी ने प्रोटीन की जरूरत के लिए दीगर अनाजों व
सब्जियों पर निर्भर होना शुरू कर दिया।
इससे इन अनाजों और सब्जियों की भी कमी व दाम में बढ़ोतरी होगी। भारत दुनिया
में दाल का सबसे बड़ा खपतकर्ता, पैदा करने वाला और आयात करने वाला देश है।
1965-66 में देश का दलहन उत्पादन 99.4 लाख टन था, जो 2006-07 के आते-आते
145.2 लाख टन ही पहुंच पाया। जबकि इस दौरान आबादी में कई गुना बढ़ोतरी हुई।
इस दौरान गेहूं की फसल 104 लाख टन से बढ़कर 725 लाख टन और चावल की पैदावार
305.9 लाख टन से बढ़कर 901.3 लाख टन हो गई।
पिछले साल भी बाजार में दालों के रेट बहुत बढ़े थे, तब आम आदमी तो चिल्लाया
था, लेकिन आलू-प्याज के लिए कोहराम काटने वाले राजनीतिक दल चुप्पी साधे
रहे। पिछले साल सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एमएमटीसी ने नवंबर तक 18,000 टन
अरहर और मसूर की दाल आयात करने के लिए वैश्विक टेंडर को मंजूरी दी थी। उधर
हमारे खेतों ने भी बेहतरीन फसल उगली। आयातित दाल बाजार में थी, सो किसानों
को अपेक्षित रेट नहीं मिला। निराशा की हालत में किसानों ने अगली फसल में
दालों से एक बार फिर मुंह मोड़ लिया।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की बात पर गौर करें, तो देश में दलहनों के
प्रामाणिक बीजों की हर साल मांग 13 लाख कुंतल है, जबकि उपलब्धता महज 6.6
लाख कुंतल। यह बताता है कि सरकार दाल की पैदावार बढ़ाने के लिए कितनी गंभीर
है। नेशनल सैंपल सर्वे के के अध्ययन बताते हैं कि आम भारतीयों के खाने में
दाल की मात्रा में लगातार हो रही कमी का असर उनके स्वास्थ्य पर भी दिखने
लगा है। इसके बावजूद दाल की कमी देश में कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पा
रही है। शायद सभी सियासी पार्टियों की रुचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक
दालें बाहर से मंगवाने में है।
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