My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 18 अक्टूबर 2015

pulses away from AAM AADMI

दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ ....?


पीपुल्स समाचार मध्य प्रदेश १९ अक्टूबर १५
इस साल की शुरूआत में ही मौसम विभाग ने कम बारिष की चेतावनी दी थी और उसके बाद बेमौसम बारिश ने देशभर में खेती-किसानी का जो नुकसान हुआ था उसी समय कृषि मंत्रालय ने घोषणा कर दी थी कि इसका असर दाल पर जबरदस्त होगा। यह पहली बार भी नहीं हो रहा है कि मांग की तुलना में दाल की आपूर्ति या उत्पादन कम होने से बाजार में दाल के दामों ने हाहाकार मचाया है। प्रत्येक वर्ष की तरह इस साल भी दाल आयात करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई, लेकिन यहां यह समझना जरूरी है कि विदेशों से दाल मंगवा कर ना तो हम आम आदमी की थाली में दाल की वापसी कर सकते हैं और न ही इसकी कीमतों पर नियंत्रण। जरूरत इस बात की है कि हमारे खेतों में दाल की बुवाई का रबवा बढ़े साथ ही किसान को दाल की उपज के लिए प्रोत्साहन मिले। भारत में दालों की खपत 220 से 230 लाख टन की सालाना, जबकि कृषि मंत्रालय मार्च में कह चुका था कि इस बार दाल का उत्पादन 184.3 लाख टन रह सकता है जो पिछले साल के उत्पादन 197.8 लाख टन से बेहद कम है। दाल की कमी होने से इसके दाम भी बढे, नजीतन आम आदमी प्रोटीन की जरूरतों की पूर्ति के लिए दीगर अनाजों और सब्जियों पर निर्भर होना शुरू कर दिया। जाहिर है अब दूसरे अनाजों व सब्जियों में भी कमी होगी और दाम में उनके दाम बढ़ेंगे।
सनद रहे कि गत 25सालों से हम हर साल दालों का आयात कर रहे हैं, लेकिन दाल के उत्पादन और इसकी खेती में रकबा बढ़ाने की किसी ठोस योजना नहीं बनाई जा रही है। यहां जानना जरूरी है कि भारत दुनियाभर में दाल का सबसे बड़ा खपतकर्ता, पैदा करने वाला और आयात करने वाला देश है। दुनिया में दाल के कुल खेतों का 33 प्रतिशत हमारे यहां है जबकि खपत 22 फीसदी है। इसके बावजूद अब वे दिन सपने हो गए है जब आम-आदमी को ‘‘दाल-रोटी खाओ, प्रभ्ुा के गुण गाओ’’ कह कर कम में ही गुजारा करने की सीख दी जाती थी। आज दाल अलबत्ता तो बाजार में मांग की तुलना में बेहद कम उपलब्ध है, और जो उपलब्ध भी है तो उसकी कीमत चुकाना आम-आदमी के बस के बाहर हो गया है। वर्ष 1965-66 में देश का दलहन उत्पादन 99.4 लाख टन था, जो 2006-07 आते-आते 145.2 लाख टन ही पहुंच पाया। सन 2008-09 में देश के 220.9 लाख हैक्टर खेतों में 145.7 लाख टन दाल पैदा हो सकी। इस अवधि में देश की जनसंख्या में कई-कई गुना वृद्धि हुई है, जाहिर है आबादी के साथ दाल की मांग भी बढ़ी। हरित क्रांति के दौर में दालों की उत्पादकता दर, अन्य फसलों की तुलना में बेहद कम रही है । दलहन फसलों की बुवाई के रकबे में वृद्धि न होना भी चिंता की बात है। सन 1965-66 में देश के 227.2 लाख हेक्टेयर खेतों पर दाल बोई जाती थी, सन 2005-06 आते-आते यह घट कर 223.1 लाख हेक्टेयर रह गया। वर्ष 1985-86 में विश्व में दलहन के कुल उत्पादन में भारत का योगदान 26.01 प्रतिशत था, 1986-87 में यह आंकड़ा 19.97 पर पहुंच गया। सन 2000 आतेआत् ो इसमें कुछ वृद्धि हुई और यह 22.64 फीसदी हुआ। लेकिन ये आंकड़े हकीकत में मांग से बहुत दूर रहे। पिछले साल देश के बाजारों में दालों के रेट बहुत बढ़े थे, तब आम आदमी तो चिल्लाया था, लेकिन आलू-प्याज के लिए कोहराम काटने वाले राजनैतिक दल चुप्पी साधे रहे। पिछले साल सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एमएमटीसी ने नवंबर तक 18,000 टन अरहर और मसूर की दाल आयात करने के लिए वैश्विक टेंडर को मंजूरी दी थी। माल आया भी, उधर हमारे खेतों ने भी बेहतरीन फसल उगली। एक तरफ आयातित दाल बाजार में थी, सो किसानों को अपनी अपेक्षित रेट नहीं मिला। दाल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के इरादे से केंद्र सरकार ने सन 2004 में इंटीग्रेटेड स्कीम फार आईल सीड, पल्सेज, आईल पाम एंड मेज (आईएसओपीओएम) नामक योजना शुरू की थी । इसके तहत दाल बोने वाले किसानों को सबसिडी के साथ-साथ कई सुविधाएं देने की बात कही गई थी । वास्तव में यह योजना नारा बनकर रह गई। इससे पहले चौथी पंचवर्षीय योजना में ‘‘इंटेंसिव पल्सेस डिस्ट्रीक्ट प्रोग्राम’’ के माध्यम से दालों के उत्पादन को बढ़ावा देने का संकल्प लाल बस्तों से उबर नहीं पाया। सन 1991 में शुरू हुई राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना भी आधे-अधूरे मन से शुरू योजना थी, उसके भी कोई परिणाम नहीं निकले। जहां सन 1950-51 में हमारे देश में दाल की खपत प्रति व्यक्ति/प्रति दिन 61 ग्राम थी, वह 2009-10 आते-आते 36 ग्राम से भी कम हो गई। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की मानें तो हमारे देश में दलहनों के प्रामाणिक बीजों की सालाना मांग 13 लाख क्विंटल है, जबकि उपलब्धता महज 6.6 लाख क्विंटल। यह तथ्य बानगी है कि सरकार दाल की पैदावार बढ़ाने के लिए कितनी गंभीर है। यह दुख की बात है कि भारत , जिसकी अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है, वहां दाल जैसी मूलभूत फसलों की कमी को पूरा करने की कोई ठोस कृषि-नीति नहीं है। कमी हो तो बाहर से मंगवा लो, यह तदर्थवाद देश की परिपक्व कृषि-नीति का परिचायक कतई नहीं है। नेशनल सैंपल सर्वे के एक सर्वेक्षण के मुताबिक आम भारतीयों के खाने में दाल की मात्रा में लगातार हो रही कमी का असर उनके स्वास्थ्य पर दिखने लगा है। इसके बावजूद दाल की कमी कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं बन पा रहा है। शायद सभी सियासती पार्टियों की रूचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक दालें बाहर से मंगवाने में हैं। तभी तो इतने शोर-शराबे के बावजूद दाल के वायदा कारोबार पर रोक नहीं लगाई जा रही है। इससे भले ही बाजार भाव बढ़े, सटोरियों को बगैर दाल के ही मुनाफा हो रहा है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...