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सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

Only law can not prevent sexual attacks on women

राज एक्सप्रेस मप्र २० अक्टूबर १५
मोमबत्ती की ऊष्मा वहां तक क्यों नहीं पहुंचती ?
पंकज चतुर्वेदी
यह सप्ताह चन रहा है नारी शक्ति की पूजा का और छोटी बच्चियों को अपने घर बुला कर उनके चरण पखारने का और ऐसे में बीते षुक्रवार को दिल्ली में दो बच्चियों के साथ कुकर्म हुआ- ढाई साल व चार साल की बच्चियां। अभी पिछले सप्ताह ही एक चार साल की बच्ची के साथ दरिंदों ने ना केवल मुंह काला किया था बल्कि उसे कई जगह ब्लैड मार कर घायल कर दिया था। दिल्ली से सटे नोएडा के छिजारसी गांव में उसी ष्ुाक्रवार की रात 12वीं में पढने वाली एक बच्ची ने इस लिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे गांव के कुछ षोहदे लगातार छेड़ रहे थे और उनके परिवार द्वारा पुलिस में कई बार गुहार लगाने के बावजूद लफंगों के हौंसल बुलंद ही रहे। चार साल पहले दिल्ली व देष के कई हिस्सों में उस अनाम अंजान ‘‘दामिनी’ के लिए खड़ा हुआ आंदोलन, आक्रोष, नफरत सभी कुछ विस्मृत हो चुका है। अभी दिल्ली के ईद-गिर्द एक सप्तहा में ही जो कुछ हो गया, उस पर महज कुछ सियासी तीरबाजी या स्थानीय गरीब लोगों द्वारा गुस्से का इजहार कहीं ना कहीं इस बात पर तो सवाल खड़े करता ही है कि कहीं विरोध एक नियोजित एकांकी होता है जिसके मंचन के पात्र, संावद, मीडिया आदि सभी कुछ कहीं बुनी जाती है और उसके निर्देषक महज सत्ता तक पुहंचने के लिए बच्चियों के साथ वहषियाना व्यवहार को मौके की तरह इस्तेमाल करते हैं। या फिर जंतर मंतर पर प्रज्जवलित होने वाली मोमबत्तिया केवल उन्ही लोेगों का झकझोर पा रही हैं जो पहले से काफी कुछ संवदेनषील है- समाज का वह वर्ग जिसे इस समस्या को समझना चाहिए -अपने पुराने रंग में ही है - इसमें आम लोग हैं, पुलिस भी है और समूचा तंत्र भी।
अभी हाल के ही दिनों में दिल्ली  कई-कई बार षर्मसार हुई। अगस्त में ओखला में एक सात साल की बच्ची के साथ षारीरिक षोशण कर उसके नाजुक अंगों को चाकू से गोद दिया गया। सितंबर में द्वारका में एक पांच साल की बच्ची के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। अभी 11 अक्तूबर को केषवपुरम में एक झुग्गी बस्ती की बच्ची के साथ कुकर्म कर उसे रेल की पटरियों पर मरने को छोड़ दिया गया। यह तो बस फौरी घटनाएं हैं और वह भी महज दिल्ली की। दामिनी कांड में सजा होने के बाद व उससे पहले भी ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाएं होती रहीं, उनमें से अधिकांष में पुलिस की लापरवाही चलती रही, वरिश्ठ नेता बलात्कारियों कों बचाने वाले बयान देते रहे । दिल्ली में दामिनी की घटना के बाद हुए देषभर के धरना-प्रदर्षनों में षायद करोड़ो मोमबत्तिया जल कर धुंआ हो गई हों, संसद ने नाबालिक बच्चियों के साथ छेडछाड़ पर कड़ा कानून भी पास कर दिया हो, निर्भया के नाम पर योजनाएं भी हैं लेकिन समाज के बड़े वर्ग पर दिलो-दिमाग पर औरत के साथ हुए दुव्र्यवहार को ले कर जमी भ्रांतियों की कालिख दूर नहीं हो पा रही हे। ग्रामीण समाज में आज भी औरत पर काबू रखना, उसे अपने इषारे पर नचाना, बदला लेने - अपना आतंक बरकरार रखने के तरीके आदि में औरत के षरीर को रोंदना एक अपराध नहीं बल्कि मर्दानगी से जोड़ कर ही देखा जाता हे। केवल कंुठा दूर करने या दिमागी परेषानियों से ग्रस्त पुरूश का औरत के षरीर पर बलात हमला महज महिला की अस्मत या इज्जत से जोड़ कर देखा जाता हे। यह भाव अभी भी हम लोगों में पैदा नहीं कर पा रहे हैं कि बलात्कार करने वाला मर्द भी अपनी इज्जत ही गंवा रहा है। हालांकि जान कर आष्चर्य होगा कि चाहे दिल्ली की 45 हजार कैदियों वाली तिहाड़ जेल हो या फिर दूरस्थ अंचल की 200 बंदियों वाली जेल ; बलात्कार के आरोप में आए कैदी की , पहले से बंद कैदियों द्वारा दोयम दर्जें का माना जाता है और उसकी पिटाई या टाॅयलेट सफाई या जमीन पर सोने को विवष करने जैसे स्वघोशित नियम लागू हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जेल जिसे असामाजिक लोगों की बस्ती कहा जाता है, जब वहां बलात्कारी को दोयम माना जाता है तो बिरादरी-पंचायतें- पुलिस इस तरह की धारणा क्यों विकसित नहीं कर पा रही हैं। खाप, जाति बिरादरियां, पंचायतें जिनका गठन कभी समाज के सुचारू संचालन के इरादे से किया गया था अब समानांतर सत्ता या न्याय का अड्डा बन रही है तो इसके पीछे वोट बैंक की सियासत होना सर्वमान्य तथ्य है।
ऐसा नही है कि समय-समय पर  बलात्कार या षोशण के मामले चर्चा में नहीं आते हैं और समाजसेवी संस्थाएं इस पर काम नहीं करती हैं, । इक्कीस साल पहले भटेरी गांव की साथिन भंवरी देवी  को बाल विवाह के खिलाफ माहौल बनाने की सजा सवर्णों द्वारा बलात्कार के रूप में दी गई थीं उस ममाले को कई जन संगठन सुप्रीम कोर्ट तक ले गए थे और उसे न्याय दिलवाया था। लेकिन जान कर आष्चर्य होगा कि वह न्याय अभी भी अधूरा है । हाई कोर्ट से उस पर अंतिम फैसला नहीं आ पाया है । इस बीच भंवरी देवी भी साठ साल की हो रही हैं व दो मुजरिमों की मौत हो चुकी है। ऐसा कुछ तो है ही जिसके चलते लोग इन आंदालनो, विमर्षों, तात्कालिक सरकारी सक्रिताओं को भुला कर गुनाह करने में हिचकिचाते नहीं हैं। आंकडे गवाह हैं कि आजादी के बाद से बलात्कार के दर्ज मामलों में से छह फीसदी में भी सजा नहीं हुई। जो मामले दर्ज नहीं नहीं हुए वे ना जाने कितने होंगे।
फांसी की मांग, नपुंसक बनाने का षोर, सरकार को झुकाने का जोर ; सबकुछ अपने अपने जगह लाजिमी हैं लेकिन जब तक बलात्कार को केवल औरतों की समस्या समझ कर उस पर विचार किया जाएगा, जब तक औररत को समाज की समूची ईकाई ना मान कर उसके विमर्ष पर नीतियां बनाई जाएंगी; परिणा अधूरे ही रहें्रे। फिर जब तक सार्वजनिक रूप से मां-बहन की गाली बकना , धूम्रपान की ही तरह प्रतिबंधित करने जैसे आघारभूत कदम नहीं उठाए जाते  , अपने अहमं की तुश्टि के लिए औरत के षरीर का विमर्ष सहज मानने की मानवीय वत्त्ृिा पर अंकुष नहीं लगाया जा सकेगा। भले ही जस्टिस वर्मा कमेटी सुझाव दे दे, महिला हेल्प लाईन षुरू हो जाए- एक तरफ से कानून और दूसरी ओर से समाज के नजरिये में बदलाव की कोषिष एकसाथ किए बगैर असामनता, कुंठा, असंतुश्टि वाले समाज से ‘‘रंगा-बिल्ला’’ या ‘‘राम सिंह-मुकेष’’ की पैदाईष को रोका नहीं जा सकेगा।

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