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शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

How to reduce the weight of school bags, on Childrens' day












आज है बाल दिवस

बस्ते के बोझ से दबा बचपन



उम्र साढ़े आठ साल, कक्षा तीन में पढ़ती है। स्कूल सुबह पौने आठ से है, सो साढ़े छह बजे सो कर उठती है। स्कूल से घर आने में दो बज जाता है। फिर वह खाना खाती है और कुछ देर आराम करती है। पांच बजते-बजते किताबों, कापियों और होम वर्क से जूझने लगती है। यह काम कम से कम तीन घंटे का होता है। उसके बाद अंधेरा हो जाता है। यह अंधेरा बचपन की मधुर यादें कहे जाने वाले खेल, शैतानियां, उधम सभी पर छा जाता है। अजीब सी छटपटाहट है, उसके बालसुलभ मन में। कुछ देर टीवी देखेगी और सो जाएगी, उस खौफ के साथ, जो उसके साथ बस्ते की शक्ल में चिपटा हुआ है। छटपटा तो महान शिक्षाविद प्रो. यशपाल की वह रिपोर्ट भी रही होगी, जिसमें बच्चे के बस्ते का बोझ कम करने के साथ-साथ शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के कई सुझाव आज से बीस साल पहले दिए गए थे।छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो. यशपाल कर रहे थे। समिति ने देशभर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है, न समझ पाने का बोझ। सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं। फिर देश की राजनीति मंदिर-मस्जिद जैसे विवादों में ऐसी फंसी कि उस रिपोर्ट की सुध ही नहीं रही।वैसे सरकार में बैठे लोगों से बात करें तो वे इस बात को गलत ही बताएंगे कि यशपाल समिति की रिपोर्ट लागू करने की ईमानदार कोशिशें नहीं हुईं। जमीनी हकीकत जानने के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में चिनहट के पास गणेशपुर गांव के बच्चों का उदाहरण काफी है। कक्षा पांच की विज्ञान की किताब के पहले पाठ के दूसरे पेज पर दर्ज था कि पेड़ कैसे श्वसन किया करते हैं। बच्चों से पूछा गया कि आपमें से कौन-कौन श्वसन क्रिया करता है, सभी बच्चों ने मना कर दिया कि वे ऐसी कोई हरकत करते भी हैं। हां, जब उनसे सांस लेने के बारे में पूछा गया तो वे उसका मतलब जानते थे। बच्चों से पूछा गया कि सहायता का क्या
Prabhat , meerut, 15-11-15
मतलब है तो जवाब था कि पूछना, रूपया, मांगना। उनके किताबी ज्ञान ने उन्हें सिखाया कि दुनिया का अर्थ शहर, जमीन, पृथ्वी या जनता होता है। आंगनबाड़ी केंद्र में चार्ट के सामने रट रहे बच्चों ने न तो कभी अनार देखा था और न ही उन्हें ईख, ऐनक, ऐड़ी और ऋषि के मायने मालूम थे। सामने है कि किताबों ने बच्चों को भले ही ज्ञानवान बना दिया हो, पर कल्पना व समझ के संसार में वे दिनों-दिन कंगाल होते जा रहे हैं ।यशपाल समिति की पहली सिफारिश थी कि बच्चों को निजी सफलता वाली प्रतियोगिताओं से दूर रखा जाए। क्योंकि यह आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है। इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए। इसके विपरीत बीते एक दशक में कक्षा में अव्वल आने की गला काट प्रतिस्पर्धा में न जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार होकर मौत को गले लगा चुके हैं। हायर सेकेंडरी के रिजल्ट के बाद ऐसे हादसे सारे देश में होते रहते हैं। अपने बच्चे को पहले नंबर पर लाने के लिए कक्षा एक-दो में ही पालक युद्ध सा लड़ने लगते हैं। कहने को अब कक्षा दस में ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर दिया गया है। लेकिन ग्रेड भी तो नंबर-दौड़ का ही दूसरा चेहरा है। समिति की दूसरी सिफारिश पाठ्य पुस्तक के लेखन में शिक्षकों की भागीदारी बढ़ाकर उसे विकेंद्रित करने की थी। सभी स्कूलों को पाठ्य पुस्तकों और अन्य सामग्री के चुनाव सहित नवाचार के लिए बढ़ावा दिए जाने की बात भी इस रपट में थी। अब प्राईवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के शोषण का जरिया बन गया है। पब्लिक स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं। उधर सरकारी स्कूलों के लिए पाठ्य पुस्तकें तैयार करने वाला एनसीईआरटी इतने विवादों में है कि वह पुस्तकें लिखने वाले लेखकों का नाम तक गोपनीय रखने लगा है। किताबें किस रंग की हों, इसका फैसला सड़कों पर करने के लिए सियासती दल कमर कस रहे हैं। ऐसे ही हालात विभिन्न राज्यों के पाठ्य पुस्तक निगमों के हैं। दिल्ली सरकार के स्कूलों के लिए एनसीईआरटी द्वारा तैयार पुस्तकें आधा साल गुजरने के बाद भी बच्चों तक नहीं पहुंचती हैं। जाहिर है कि बच्चों को अब पूरे साल का पाठ्यक्रम तीन महीने में पूरा करने की कवायद करनी होगी। ऐसे में उन पर पढ़ाई का बोझ कम होने की बात करना बेमानी ही होगा। पाठ्य पुस्तकों को स्कूल की संपत्ति मानने व उन्हें बच्चों को रोज घर ले जाने की जगह स्कूल में ही रखने के सुझाव न जाने किस लाल बस्ते में बंध कर गुम हो गए।समिति की एक राय यह भी थी कि केंद्रीय स्कूल व नवोदय विद्यालयों के अलावा सभी स्कूलों को उनके राज्य के शिक्षा मंडलों से संबद्ध कर देना चाहिए। लेकिन आज सीबीएसई से संबद्धता स्कूल के स्तर का मानदंड माना जाता है और हर साल खुल रहे नए-नए पब्लिक स्कूलों को अपनी संबद्धता बांटने में सीबीएसई दोनों हाथ खोले हुए है। नतीजा है कि राज्य बोर्ड से पढ़ कर आए बच्चों को दोयम दर्जे का माना जा रहा है। कक्षा दस व बारह के बच्चों को कोर्स रटने की मजबूरी से छुटकारा दिलाने के लिए समिति ने परीक्षाओं के तरीकों में आमूलचूल बदलाव की बात कही थी। पर नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा और बोर्ड की परीक्षाओं में अव्वल आने का सबसे बढि़या फंडा रटना ही माना जा रहा है ।शिक्षाविदों की एक और सिफारिश अभी तक मूर्तरूप नहीं ले पाई है, जिसमें सुझाया गया था कि नर्सरी कक्षाओं में दाखिले के लिए होने वाले टेस्ट व इंटरव्यू बंद होने चाहिए। साथ ही गैर सरकारी स्कूलों को मान्यता देने के मानदंड कड़े करने की बात भी कही गई थी। जगह, स्टाफ, पढ़ाई और खेल के सामान के मानदंड सरकारी स्कूलों पर भी लागू हों। यह सर्वविदित है कि आज प्राईवेट स्कूल खोलना कितना सरल हो गया है और दूरस्थ गांवों तक बड़े-बड़े नाम वाले पब्लिक स्कूल खोल कर अभिभावकों की जेब काटने के धंधे पर कहीं कोई अंकुश नहीं है।आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के आतंक में दबे पड़े हैं। जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी क्लासों में बच्चों को गृह कार्य सिर्फ इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होम वर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठ्य पुस्तक से नहीं हो। पर आज तो होम वर्क का मतलब ही पाठ्य पुस्तक के सवालों-जवाबों को कापी पर उतारना या उसे रटना रह गया है। कक्षा में 40 बच्चों पर एक टीचर, विशेषरूप से प्राइमरी में 30 बच्चों पर एक टीचर होने की सिफारिश खुद सरकारी स्कूलों में भी लागू नहीं हो पाई है। अब एक ही शिक्षक को एक साथ कई कक्षाएं पढ़ाने की बाकायदा ट्रेनिंग शुरू हो गई है। पत्राचार के जरिए बीएड की उपाधि देने वाले पाठ्यक्रमों की मान्यता समाप्त करने की सिफारिश भी यशपाल कमेटी ने की थी। विडंबना है कि इस रिपोर्ट को सरकार द्वारा स्वीकार कर लेने के बाद करीबन एक दर्जन विश्वविद्यालयों को पत्राचार से बीएड कोर्स की अनुमति सरकार ने ही दी।समिति ने पाठ्यक्रम को तैयार करने में विषयों के चयन, भाषा, प्रस्तुति, बच्चों के लिए अभ्यास आदि पर गहन चिंतन कर कई सुझाव दिए थे। उन सब की चर्चा रिपोर्ट जारी होने के समय खूब हुई। पर धीरे-धीरे शैक्षिक संस्थाओं को दुकान बनाने वाले काकस का पंजा कसा और सबकुछ पहले जैसा ही होने लगा। भाषा के मायने संस्कृतनिष्ठ जटिल वाक्य हो गए, तभी बच्चे कहने में नहीं हिचकिचाते हैं कि वे श्वसन क्रिया तो करते ही नहीं हैं।आज हमारे देश में शिक्षा के नाम पर विदेशी पैसे की बाढ़ आई हुई है। उसे मनमाने तरीके से उड़ाने वाले यह नहीं सोच रहे हैं कि यह धन हमारे देश पर यानी हम सभी पर कर्ज है, जिसे मय सूद के लौटाना है। पैसा विदेशी है तो उससे क्रियान्वित होने वाली अवधारणाएं व प्रक्रियाएं भी सात समंदर पार वाली हैं। ऐसे में स्थानीय देश, काल व परिस्थितियों को ध्यान में रख कर तैयार प्रो. यशपाल व उनके आठ सहयोगियों की रपट अधिक कारगर व सटीक होगी। डीपीईपी, सर्व शिक्षा अभियान, स्कूल चलो या शिक्षा गारंटी योजना जैसे प्रयोग स्कूल में बच्चों के नामांकन को भले ही बढ़ा सकते हैं, शब्द व अंक को पहचानने वाले साक्षरों के आंकड़ों में शायद इजाफा भी हो जाए, पर शिक्षा का मूल उद्देश्य यानी जागरूक नागरिक कहीं नहीं दिखेगा। अपने वजन से अधिक का बस्ता ढोते बच्चों के लिए शिक्षा भी महज एक बोझ बनकर रह गई है। काश, इससे उबरने की सुध कोई लेता!
= पंकज चतुर्वेदी

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