पहले कहा जाता था कि भारत गांवों में बसता है और उसकी अर्थव्यवस्था का आधार खेती-किसानी है, लेकिन मुक्त अर्थव्यवस्था के दौर में यह पहचान बदलती सी लग रही है। लगता है कि सारा देश बाजार बन रहा है और हमारी अर्थव्यवस्था का आधार खेत से निकल कर दुकानों पर जा रहा है। भारत की एक प्रमुख व्यावसायिक संस्था के फौरी सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा दुकानें भारत में हैं। जहां अमेरिका जैसे विकसित या सिंगापुर जैसे व्यापारिक देश में प्रति हजार आबादी पर औसत 7 दुकानें हैं, वहीं भारत में यह आंकड़ा 11 है। उपभोक्ताओं की संख्या की तुलना में भारत सबसे अधिक दुकानों वाला देश बन गया है। सवाल यह है कि इस आंकड़े को उपलब्धि मान कर खुश हों या अपने देश के पारंपरिक ढांचे के दरकने की चेतावनी मान कर सतर्क हो जाएं। इस निर्णय के लिए जरूरी है कि इसी सर्वे का अगला हिस्सा देखें, जिसमें बताया गया है कि भारत का मात्र दो प्रतिशत बाजार ही नियोजित है, शेष 98 प्रतिशत असंगठित है और उसकी कोई पहचान नहीं है। यूं भी कहा जा सकता है कि बेतरतीब खुल रहे पान व चाय की गुमटियों ने हमें यह गौरव दिलवा दिया है। यह असंगठित बाजार बहुत हद तक कानून सम्मत भी नहीं हैं। देश की राजधानी दिल्ली में सवा करोड़ की आबादी पर 12 लाख दुकान हैं। खोके, गुमटी, रेहड़ी पर बाजार अलग। कुल मिला कर देखें तो प्रत्येक 10 आदमी पर एक दुकान। इनमें दलालों, सत्ता के मठाधीशों को जोड़ा नहीं गया है, वरना जितने आदमी, उतनी दुकानें भी हो सकती हैं। बााजार की चमक ही तो है, जिसके मोहपाश में बंध कर एक तरफ खुदरा बाजार में बड़े ब्रांड, बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना दखल बढ़ा रही हैं तो नई-नई बनती कालेानियों में घर तोड़ कर दुकान बनाने की प्रवृत्ति भी बेरोकटोक जारी है। अब छोटे कस्बों के बेरोजगार युवकों के शादी-संबंध कुछ हद तक उनके मुख्य सड़क पर स्थित पुश्तैनी मकान पर ही निर्भर हैं। घर के अगले हिस्से में भीतर जाने के लिए एक पतली गली छोड़ कर दो दुकानें बना ली जाती हैं। एक दुकान में खुद
बेरोजगार किसी रेडीमेट गारमेंट या किराने की दुकान खोल लेता है व दूसरे को किराए पर उठा देता है। इस बहाने उसकी शादी हो जाती है और फिर उसकी आय का जरिया ससुराल हो जाती है, भले ही उसकी दुकान चले या ना चले। यही लोग व्यापारी हित व व्यापारी एकता के नारे लगाते हुए जब-तब सड़कों पर आ जाते हैं। लोगों की जीवन शैली पर बाजार का वजन बढ़ना जारी है और सरकार इसे खुशहाली का प्रतीक मान रही है। गत पांच सालों में व्यक्तिगत लोन, क्रेडिट कार्ड पर कर्ज के आंकड़ों में कई सौ गुने की दर से बढ़ोतरी हुई है। जब बाजार में इस दौर में किसानों, बुनकरों ही नहीं महानगरों में रहने वाले मध्यमवर्गीय युवाओं में आत्महत्या की संख्या भी बेतहाशा बढ़ी है। कुछ रुपयों के लिए हत्या, घरों में चोरी, सरेआम छीना-झपटी की खबरें अब पुलिस की संवेदनओं को कतई नहीं झकझोरती हैं। देखते ही देखते ब्लैक एंड व्हाइट टीवी और एकरंगी स्क्रीन वाले मोबाइल नदारद होते जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि आम आदमी की बाइंग कैपेसिटी यानी खरीददारी की क्षमता बढ़ी है। समाज में दिखावे को पूरा न करने से बढ़ी कुंठा व उससे उपजते अनाचार की संख्या पर सरकार क्यों आंखें मूंदे हुए है?दुकानों का बढ़ना महज खरीददारी को ही नहीं बढ़ा रहा है, बल्कि इसके साए में बहुत कुछ गैरकानूनी भी फल-फूल रहा है। गली-मुहल्लों के नुक्कड़ों पर खुल गई गुमटियां या छोटी-मोटी दुकानें नकली, डुप्लीकेट ब्रांड व घटिया उत्पादों को खपाने का सबसे बड़ा केंद्र हैं। इसी के चलते हमारे उपभोक्ता सामान के अंतरराष्ट्रीय मानदंडों पर खरा उतरने के बारे में सोचते ही नहीं हैं और देशी शेयर विदेशों के बाजार में जाते ही ढेर हो जाते हैं। चीन जैसे देश के दोयम दजेर्े के माल हमारे बाजार में धड़ल्ले से बिकते हैं। ये असंगठित दुकानें कानून के विरुद्ध आवासीय क्षेत्रों में विकसित हो रही हैं, जिससे जन-पर्यावास का स्तर खराब हो रहा है। इनसे पाकिंर्ग, ध्वनि प्रदूषण, बिजली-पानी की कमी, आवासीय परिसरों की दरों में बेतहाशा वृद्धि जैसी समस्याएं उपज रही हैं। देश में इन दिनों सड़कों का जाल बिछ रहा है। कई सुपर फास्ट एक्सप्रेस वे भी हैं, लेकिन विडंबना है कि नई सड़क बनने से पहले ही उसके दोनों तरफ ढाबे, आटो मोबाइल रिपेयर दुकानें खुल जाती हैं। जब सड़क बन कर तैयार होती है तो वहां घना बाजार होता है व वाहनों की गति सपना बन जाती है। असंगठित बाजार जहां सार्वजनिक संसाधनों के दोहन में निर्मम है, वहीं कर चोरी अपना अधिकार समझता है। दिल्ली से हरिद्वार तक के हाइवे पर फैले लगभग एक सैकड़ा ढाबे हर रोज 20 लाख रूपए का व्यापार करते हैं, लेकिन इनमें से एक भी आयकर दाता की सूची में शामिल नहीं हैं। देश में व्यापार का बढ़ना समृद्धि का प्रतीक है, लेकिन अनियोजित व्यापार अराजकता को बढ़ावा देता है। फिर खेत पर मेहनत करने के बनिस्पत दिनभर दुकान पर बैठना कुछ इज्जत वाला काम है- ऐसा संदेश भी एक मृगमरीचिका से अधिक नहीं है। हमारा व्यापार तभी तक लक्ष्मी-वर्षा करेगा, जब तक खेतों में फसल लहलहाती रहेगी। विदेशों से सामान मंगवा कर अपने बाजार में बेचने से उपजी संपन्नता तो एक गुब्बारे के मानिंद है, इसकी हवा कभी भी निकल सकती है ।
= पंकज चतुर्वेदी
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