जरूरी है व्यवहारिक चुनाव सुधार
जनसत्ता 29.11.15 |
आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्यवर्ग की मतदान में कम रुचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, राजनीति में बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, आचार संहिता की अवहेलना आदि कुछ ऐसी बुराइयां हैं, जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए खतरनाक हैं।
रणनीतिकार मतदाता सूची का विश्लेषण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला निर्वाचन क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यहां कोई एक वोट के अंतर से जीते या पांच लाख के, दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं। अगर राष्ट्रपति पद के चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, न कि केवल जातीय वोट।
जमानत राशि बढ़ाने से निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या भले कम हुई हो, पर लोकतंत्र को नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो राष्ट्रीय दल का दर्जा पाने के मकसद से तयशुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर देती हैं। ऐसे प्रत्याशी चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां फैलाने में भी आगे रहते हैं। सैद्धांतिक रूप से यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि ‘बेवजह उम्मीदवारों’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारों की बात कोई राजनीतिक दल नहीं करता।
जब से चुनाव आयोग ने चुनाव खर्च पर निगरानी के लिए कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं। किसी जाति-धर्म या क्षेत्र विशेष के मतों को किसी के पक्ष में एकजुट होने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूटनीति बन गया है। विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिह्न से मिलते-जुलते चिह्न पर किसी को खड़ा कर मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान-मशीन का आकार बढ़ जाता है। चुनाव में बड़े राजनीतिक दल भले मुद्दों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि देश के दो सौ से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोटकाटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है।
ऐसे भी लोगों की संख्या कम नहीं है, जो स्थानीय प्रशासन या राजनीति में अपना रसूख दिखाने भर के लिए पर्चा भरते हैं। जेल में बंद कुख्यात अपराधियों का जमानत पाने, कारावास की चारदीवारी से बाहर निकलने के बहानों के रूप में या फिर मुकदमे के गवाहों और तथ्यों को प्रभावित करने के लिए चुनाव में पर्चा भरना भी एक आम हथकंडा है। विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगी भर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आकर चुनाव लड़ जाता है और पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीशाहों और नवसामंत वर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा। इस कदम से संसद में कॉरपोरेट दुनिया के बनिस्बत आम आदमी के सवालों को अधिक जगह मिलेगी।
इस समय चुनाव कराना बेहद खर्चीला होता जा रहा है, तिस पर अगर किसी राज्य में दो चुनाव हो जाएं तो न सिर्फ सरकारी खजाने का दम निकलता है, राज्य के काम भी प्रभावित होते हैं। विकास के कई आवश्यक काम आचार संहिता के कारण रुके रहते हैं। ऐसे में तीनों चुनाव (कम से कम दो तो अवश्य)- लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय एक साथ कराने की व्यवस्था जरूरी है। रहा सवाल सदन की स्थिरता का, तो उसके लिए एक मामूली कदम उठाया जा सकता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव खुले सदन में वोट की कीमत, यानी जो जितने वोट से जीता है, उसके वोट की सदन में उतनी ही अधिक कीमत होगी- के आधार पर पांच साल के लिए हो।
लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुश भी स्थायी और मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में दो प्रतिशत वोट पाने वाले दल को ही संसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम होना चाहिए। ठीक इसी तरह के बंधन राज्य स्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की शर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याशी लोकतंत्र का मजाक न बना पाएं। गौरतलब है कि सोलह से अधिक उम्मीदवार होने पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की एक से अधिक यूनिट लगानी पड़ती है, जो खर्चीला और जटिल है। जमानत जब्त होने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों को अगले दो चुनावों में उम्मीदवारी से रोकना जैसे कुछ कड़े कानून समय की मांग है।
चुनाव खर्च की बाबत कानून में ढेरों खामियों को सरकार और सभी सियासी पार्टियां स्वीकार करती हैं। पर उनके निदान के सवाल को सदा खटाई में डाला जाता रहा है। राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुआई में गठित चुनाव सुधारों से संबंधित समिति का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, र्इंधन, मतदाता सूचियां, लाउड-स्पीकर आदि मुहैया कराए जाने चाहिए। वे सिफारिशें कहीं ठंडे बस्ते में पड़ी हुई हैं। 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर-सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात’ रहा।
चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर हर चुनाव के पहले घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम समिति ने कहा था कि राजनीतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है। 1971 में वांचू समिति ने अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्च काले धन को प्रोत्साहित करता है। इस रपट में हर दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के खाते का नियमित आॅडिट करवाने के सुझाव थे। 1980 में राजाचलैया समिति ने भी लगभग यही सिफारिशें दी थीं। ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके हैं।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उनकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए। आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासी पार्टियां अपने लेन-देन का नियमित आॅडिट नहीं कराती हैं। अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के भी निर्देश दिए थे। चुनाव आयोग जब कड़ा रुख अपनाता है तभी पार्टियां तुरत-फुरत गोलमाल रिपोर्टें जमा करती हैं। आज भी इस पर गंभीरता नहीं दिखती।
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