कार बनाती बेकार
Peoples samachar 21-12-15 |
‘‘ कार के मालिक हर साल अपने जीवन के 1600 घंटे कार में बिताते हैं , चाहे कार चल रही हो या खड़ी हो - कभी गाड़ी की पार्किंग के लिए जगह तलाषना होता है तो कभी पार्किंग से बाहर निकालने की मषक्कत, या फिर ट्राफिक सिग्नल पर खड़ा होना पड़ता है। पहले वह कार खरीदने के लिए पैसे खर्च करता है, फिर उसकी किष्तें भरता है । उसके बाद अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा पेट्रोल, बीमा, टेक्स, पार्किंग, जुर्माने, टूटफूट पर खर्च करता रहता है । इंसान की प्रति दिन जाग्रत अवस्था 16 घंटे की होती है, उसमें से वह चार घंटे सड़क पर कार में होता है । हर कार मालिक 1600 घंटे कार के भीतर बिताने के बाद भी सफर करता है मात्र 7500 मील, यानी एक घंटे में पांच मील । ’’ प्रख्यात षिक्षा षास्त्री इवान इलीच कार को एक त्रासदी के रूप में कुछ इस तरह परिभाशित करते हैं । हाल ही में सियाम यानि सोसायटी आफ इंडियान आटो मोबाईल मेनुफक्चरर्स ने आंकड़ जारी किए हैं कि पिछले साल की तुलना में इस साल नवंबर में 10.39 फीसदी कारें ज्यादा बिकीं। दूसरी ओर दिल्ली के महौल को दमघोटूं बनाने का पूरा आरोप कारों पर आ रहा है और यहां सम-विशम नंबर की कारों को एक-एक दिन सड़क पर आने से रोकने की नीति लागू की जा रही है।
भारत के महानगर ही नहीं सुदूर कस्बे भी कारों की दीवानगी के षिकार जहां देष का बड़ा हिस्सा खाने-पीने की चीजों की बेतहाषा महंगाई से हलाकांत है, वहीं सियाम के मुताबिक आने वाले तीन-चार सालों में भारत में कार के क्षेत्र में कोई 25 हजार करोड़ का विदेषी निवेष होगा । इस बात को नजरअंदाज किया जा रहा है कि हमारे देष की विदेषी मुद्रा के भंडार का बड़ा हिस्सा पेट्रो पदार्थ खरीदने में व्यय हो रहा है। भले ही कार कंपनियां आंकड़ें दें कि चीन या अन्य देषों की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति कार की संख्या बहुत कम है, लेकिन आए रोज लगने वाले जाम के कारण उपज रही अराजकता इस बात की साक्षी है कि हमारी सड़कें फिलहाल और अधिक वाहनों का बोझ झेलने में सक्षम नहीं हैं। यहां यह भी जानना जरूरी है कि बीते साल भारत सरकार ने पेट्रोल-डीजल व अन्य ईंधन पर 1,03,000करोड़ की सबसिडी दी है। सरकार की छूट के पैसे से खरीदे गए ईंधन को जाम में फंस कर उड़ना एक तरह का देष-विरोधी कृत्य भी है।
अर्थव्यवस्था के षब्दों में ‘‘समृद्ध देषों में लोगों की जीवनषैली कारें निर्धारित करती हैं ।’’ लेकिन भारत सरीखे देष में यह गौर करना होगा कि तथाकथित उंची जीवन षैली पाने के लिए कीमत क्या चुकानी पड़ रही है । दिल्ली और उसके आसपास, जहां जमीन-जायदाद की कीमतें बुलंदी पर हैं, अपने पुष्तैनी खेत बेच कर मिले एकमुष्त धन से कई-कई कारें खरीदने और फिर उन कारों के संचालन में अपनी जमापूंजी लुटा कर कंगाल बनने के हजारों उदाहरण देखने को मिल जाएंगे । यह प्राथमिकता तो समाज को तय करनी होगी कि जमीन से गेहूं या गोभी उगाना जरूरी है या फिर उसे बेच कर कार चलाना ।
व्यक्तिगत समृद्धि की प्रतीक कारों का संसार आबाद करने की बड़ी कीमत उन लोगों को भी उठानी पड़ती है, जिनका कार से कोई वास्ता नहीं है । दुर्घटनाएं, असामयिक मौत व विकलांगता, प्रदूशण, पार्किंग व ट्राफिक जाम व इसमें बहुमूल्य जमीनों का दुरूपयोग,; ऐसी कुछ विकराल समस्याएं हैं, जोकि कार को आवष्यकता से परे विलासिता की श्रेणी में खड़ा कर रही है । गौरतलब है कि दिनों दिन बढ़ रही कारों की संख्या से देष में पेट्रोल की मांग भी बढ़ी है । देष में पेट्रोलियम मांग का अधिकांष हिस्सा विदेषों से मंगाया जाता है । इस तरह हमारे देष का बेषकीमती विदेषी मुद्रा भंडार का बड़ा हिस्सा महज दिखावों के निहितार्थ दौड़ रहीं कारों पर खर्च करनाप पड़ रहा है ।
राजधानी दिल्ली में कारों से सफर करने वाले बामुष्किल 15 फीसदी लोग होंगे, लेकिन ये सड़क का 80 फीसदी हिस्सा घेरते हैं । यहां रिहाईषी इलाकों का लगभग आधा हिस्सा कारों के कारण बेकार हो गया है । कई सोसायटियों में कार पार्किंग की कमी पूरा करने के लिए ग्रीन बेल्ट को ही उजाड़ दिया गया है । घर के सामने कार खड़ी करने की जगह की कमी के कारण अब लोग दूर -दूर बस रहे हैं और इससे महानगर का विस्तार हो रहा है । महानगर का विस्तार छोटे व मध्यम वर्ग के लिए नई त्रासदियों को जन्म देता है । यही नहीं षहरों के क्षेत्रफल में विस्तार का विशम प्रभाव सार्वजनिक विकास कार्यों पर भी पड़ता है ।
कारों की बढ़ती संख्या सड़कों की उम्र घटा रही है । मषीनीकृत वाहनेंा की आवाजाही अधिक होने पर सड़कों की टूटफूट व घिसावट बढ़ती है । वाहनों के ध्ुाएं से हवा जहरीली होने व ध्वनि प्रदूशण बढ़ने तथा इसके कारण मानव जीवन पर जहरीला प्रभाव पड़ने से सभसी वाकिफ हैं । इसके बावजूद सरकार की परिवहन नीतियां कहीं ना कहीं सार्वजनिक वाहनों को हतोत्साहित कर कार खरीदी को बढ़ावा देने वाली हैं । आज जेब में एक रूप्या ना होने पर भी कार खरीदने के लिए कर्जा देने वाली संस्थाएं व बैंक कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली, कस्बे-कस्बे तक पहुंच गई हैं । जबकि स्वास्थ्य, षिक्षा, सफाई जैसे मूलभूत क्षेत्र धन के अभाव में आम आदमी की पहुच से दूर होते जा रहे हैं । विदेषी निवेष के लालच में हम कार बनाने वालों को आमंत्रित तो कर रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि बढ़ती कारों के खतरों को जानने के बावजूद उसका बाजार भी यहीं बढ़ा रहे हैं ।
कार पुलिस के लिए कानून-व्यवस्था का नया संकट बनती जा रही है- कारों की चोरी कारों की दुर्घटनाएं, कारों के टकराने से होने वाले झगड़े ; पुलिस की बड़ी उर्जा इनमें खर्च हो रही है। एक घर में एक से अधिक कार रखने पर कड़े कानून, सड़क पर नियम तोड़ने पर सख्त सजा, कार खरीदने से पहले उसकी पार्किंग की समुचित व्यवस्था होने का भरोसा प्राप्त करने जैसे कदम कारों की भीड़ रोकने में सक्षम हो सकते हैं । सड़क पर कारों के संचालन के समय उसमें सवारियों की संख्या तय करने का प्रयोग भी कारों की भीड़ को कम कर सकता है । किसी कार की क्षमता पांच सवारी की है, यदि तय कर दिया जाए कि यदि कार को सड़क पर लाना है तो उसमें कम से कम तीन लोगों का बैठना जरूरी है तो इससे कार-पूल की प्रवृति को बढ़ावा मिलेगा । यह पर्यावरण, धन और सामाजिक बंधनों को मजबूत करने का ताकतवर तरीका हो सकता है । सबसे जरूरी तो सार्वजनिक परिवहन को और सुखद व पहंुच में विकसित करना होगा ।
पंकज चतुर्वेदी
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