अन्य शहरों को चेन्नई से सबक लेने की जरूरत
Peoples samachar 10-12-15 |
नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजास्टर मैनेजमेंट
की रिपोर्ट में बताया गया है कि 650 से अधिक जल निधियों में कूड़ा भर कर
चौरस मैदान बना दिए गए । चैन्नई शहर की खूबसूरती व जीवन रेखा कहलाने वाल दो
नदियों- अडयार और कूवम के सा थ समजा ने जो बुरा सलूक किया, प्रकृति ने इस
बारिश में इसी का मजा जनता को चखाया। अडयार नदी कांचीपुरम जिले में स्थित
विशाल तालाब चेंबरवक्कम के अतिरिक्त पानी के बहाव से पैदा हुई। यह पश्चिम
से पूर्व की दिशा में बहते हुए कोई 42 किलोमीटर का सफर तय कर चैन्नई में
सांथम व इलियट समुद्र तट के बीच बंगाल की खाड़ी में मिलती है। यह नदी शहर के
दक्षिणी इलाके के बीचों बीच से गुजरती हैं और जहां से गुजरती है वहां की
बस्तियों का कूड़ा गंदगी अपने साथ ले कर एक बदबूदार नाले में बदल जाती है।
यही नहीं इस नदी के समुद्र के मिलन-स्थल बेहद संकरा हो गया है व वहां रेत
का पहाड़ है। कूवम शब्द ‘कूपम’ से बना है, जिसका अर्थ होता हैं कुआं। कूवम
नदी 75 से ज्यादा तालाबों के अतिरिक्त जल को अपने में सहजे कर तिरूवल्लूर
जिले में कूपम नामक स्थल से उद्गमित होती है। दो सदी पहले तक इसका उद्गम
धरमपुरा जिले था, भौगोलिक बदलाव के कारण इसका उदगम स्थल बदल गया। बंगलुरू
जैसे शानदार शहर में अब थोड़े से बादल रसने पर जाम हो जाना आम बात है और
वहां भी 160 से ज्यादा कॉलोनी, स्टेडियम, सड़कें पारंपरिक तालाबों को भरकर
बनाए गए। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक नब्बे साल पहले बंगलुरू शहर में 2789
केरे यानी झील हुआ करती थीं। सन साठ आते-आते इनकी संख्या घट कर 230 रह गई।
सन 1985 में शहर में केवल 34 तालाब बचे और अब इनकी संख्या तीस तक सिमट गई
है। जल निधियों की बेरहम उपेक्षा का ही परिणाम है कि ना केवल शहर का मौसम
बदल गया है, बल्कि लोग बूंद- बूंद पानी को भी तरस रहे हैं। वहीं ईएमपीआरई
यानी सेंटर फार कन्सर्वेसन, इनवारमेंटल मेनेजमेंट एंड पॉलिसी रिसर्च
इंस्टीट्यूट ने दिसंबर-2012 में जारी अपनी रपट में कहा है कि बंगलूरू में
फिलहाल 81 जल िनधियों का अस्तित्व बचा है, जिनमें से नौ बुरी तरह और 22
बहुत कुछ दूषित हो चुकी हैं। जाहिर है कि इनमें एकत्र होने वाला पानी अब
सड़कों पर जमा होता है। राजधानी दिल्ली वैसे तो बूंद-बूंद पानी को तरसती है,
लेकिन थोड़ी सी बारिश में ही पूरे शहर में हाहाकार मच जाता है। विडंबना है
कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौड़े सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों
के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं । सारा दोष नालों की सफाई ना होने, बढ़ती
आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। शहरों में
बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों में पानी
की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने
का करना होगा । यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संकलन
किसी तालाब में ही होगा । विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों
में खो गए हैं । परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता
है ।
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