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इस बार बारिश बहुत कम होने के आंकड़ों से देश के अधिकांश शहरी इलाकों के लोगों की चिंता की लकीरें इसलिए भी गहरा गई हैं कि यहां रहने वाली 16 करोड़ से ज्यादा आबादी के आधे से ज्यादा हिस्सा पानी के लिए भूजल पर निर्भर है। वैसे भी भूजल पाताल में जा रहा है और इस बार जब बारिश हुई नहीं तो रिचार्ज भी हुआ नहीं, अब सारा साल कैसे कटेगा। जमीन की नमी बरकरार रखनी हो या फिर भूजल का स्तर या फिर धरती के बढ़ते तापमान पर नियंत्रण, तालाब या झील ही ऐसी पारंपरिक संरचनाएं हैं, जो बगैर किसी खास खर्च के यह सब काम करती हैं। यह दुखद है कि आधुकिनता की आंधी में तालाब को सरकारी भाषा में जल संसाधन माना नहीं जाता है, वहीं समाज और सरकार ने उसे जमीन का संसाधन मान लिया। देशभर के तालाब अलग-अलग महकमोें में बंटे हुए हैं। जब जिसे सड़क, कालोनी, मॉल, जिसके लिए भी जमीन की जरूरत हुई, तालाब को समतल बना लिया। आज शहरों में आ रही बाढ़ हो या फिर पानी का संकट, सभी के पीछे तालाबों की बेपरवाही ही मूल कारण है। इसके बावजूद पारंपरिक तालाबों को सहेजने की कोई साझी योजना नहीं है। एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे।
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बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार तालाब और मैसूर राज्य में 39 हजार होने की बात अंग्रेजों का रेवेन्यू रिकार्ड दर्शाता है। दुखद है कि अब हमारी तालाब-संपदा अस्सी हजार पर सिमट गई है। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे। उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अंगे्रजों के जमाने में लगभग 500 तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्त ही कर दिया। देशभर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे़ पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यानी आजादी के बाद के 53 सालों में हमारा समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज बीस लाख करोड़ से कम नहीं होगा। सालभर प्यास से कराहने वाले बंुदेलखंड के छतरपुर शहर के किशोर सागर का मसला बानगी है कि तालाबों के प्रति सरकार का रुख कितना कोताहीभरा है। कोई डेढ़ साल पहले एनजीटी की भोपाल बेंच ने सख्त आदेश दिया कि इस तालाब पर कब्जा कर बनाए गए सभी निर्माण हटाए जाएं। अभी तक प्रशासन मापजोख नहीं कर पाया है कि कहां से कहां तक व कितने अतिक्रमण को तोड़ा जाए। गाजियाबाद में पारंपरिक तालाबों को बचाने के लिए एनजीटी के कई आदेश लाल बस्तों में धूल खा रहे हैं। तभी जरूरत महसूस हो रही है कि पूरे देश में तालाब संवर्धन के लिए सर्व अधिकार संपन्न ऐसे प्राधिकरण का गठन किया जाए जो तालाबों माप, स्थिति का सर्वेक्षण कर उनके रखरखाव का तो ध्यान रखे ही, उसके पास हाईकोर्ट के स्तर के ऐसे अधिकार हों जो तालाबों पर कब्जे की हर कोशिश को कड़ाई सें रोक सके। 10वीं
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PRABHAT 17-1-16 |
पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार यानी आरआरआर के लिए योजना बनाई। 11वीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढांचे का विकास करना था। गांव, ब्लाक, जिला व राज्य स्तर पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर तकनीकि सलाहकार समिति का गठन किया जाना था। सेंट्रल वाटर कमीशन और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने का जिम्मा दिया गया, जबकि निरीक्षण का काम जल संसाधन मंत्रालय कर रहा है। बस खटका वही है कि तालाब का काम करने वाले दीगर महकमे तालाब तो तैयार कर रहे हैं, लेकिन तालाब को तालाब के लिए नहीं। मछली वाले को मछली चाहिए तो सिंचाई वाले को खेत तक पानी। जबकि तालाब पर्यावरण, जल, मिट्टी, जीवकोपार्जन की एक एकीकृत व्यवस्था है और इसे अलग-अलग आंकना ही बड़ी भूल है। एक प्राधिकरण ही इस काम को सही तरीके से संभाल सकता है। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जलस्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है- तालाब, कुएं, बावड़ी। लेकिन एक बार फिर पीढि़यों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। यही नहीं सरकार का भी कोई एक महकमा मुकम्मल नहीं है, जो सिमटते तालाबों के दर्द का इलाज कर सके। तालाब कहीं कब्जे से तो कहीं गंदगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव से सूख रहे हैं। कहीं तालाबों को जानबूझ कर गैरजरूरी मान कर समेटा जा रहा है तो कहीं उसके संसाधनों पर किसी एक ताकतवर का कब्जा है। ऐसे कई मसले हैं, जो अलग-अलग विभागों, मंत्रालयों, मदों में बंट कर उलझे हुए हैं। देश के इतने बड़े प्राकृतिक संसाधन, जिसकी कीमत खरबों-खरब रुपए है, के संरक्षण के लिए एक स्वतंत्र, ताकतवर प्राधिकरण आवश्यक है। तालाब केवल इसलिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जलस्रोत हैं, तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। सन 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। कमीशन की रिपोर्ट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई। आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया गया। चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना, देश के जलसंकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। मछली, कमल गट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जलस्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है। इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीटयूट फॉर द सेडिएरीडट्रापिक्स के विशेषज्ञ बोन एप्पन और श्री सुब्बाराव का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होता है। उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए ‘भारतीय तालाब प्राधिकरण’ का गठन किया जाना चाहिए। पूर्व कृषि आयुक्त बीआर भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिमी है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है। असल में तालाबों पर कब्जा करना इसलिए सरल है कि पूरे देश के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं- राजस्व, विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटन ...शायद और भी कई अन्य हों। कहने की जरूरत नहीं है कि तालाबों को हड़पने की प्रक्रिया में स्थानीय असरदार लोगों और सरकारी कर्मचारी की भूमिका होती ही है। अभी तालाबों के कई सौ मामले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के पास हैं और चूंकि तालाबों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उसी विभाग के पास होता है, जिसकी मिली-भगत से उस की दुर्गति होती है, सो हर जगह लीपापोती होती रहती है। आज जिस तरह जलसंकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की अरबों रुपए वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं, तालाबों का सही इस्तेमाल कम लागत में बड़े परिणाम दे सकता है। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र में एक सशक्त तालाब प्राधिकरण गठित हो। हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नहीं है, न ही इसके लिए भारीभरकम मशीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थों के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट किया है? यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देशी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे सहर्ष राजी हो जाते जाएंगे।यदि जलसंकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए। जरूरत इस बात की है कि आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में अपनी जड़ों की ओर लौटने की इच्छाशक्ति विकसित करनी होगी। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो न तो तालाबों में गाद बचेगी, न ही सरकारी अमलों में घूसखोरी की कीच होगी। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि तालाबों को जल संसाधन मान कर इनका जिम्मा अलग से एक महकमे को दिया जाए।
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