जरूरत है बेहतर भंडारण सुविधा की
पंकज चतुर्वेदीअभी दो महीने पहले ही जब देश के बड़े हिस्से में ओला वृष्टि और बेमौसम बारिश के कारण किसान हताश हो कर आत्महत्या कर रहा था तो उसी समय बंगाल में कई किसानों ने इस लिए मौत को गले लगा लिया था कि उनके यहां बंपर फसल हुई थी और इतनी अधिक हुई थी कि बाजार में उसका खरीदार नहीं था। सरकार में बैठे लोग दोनो ही हालात में बस मुआवजे व कर्ज बांट कर मलळम लगाने की बात करते हैं, जबकि हकीकत तो यह है कि एक साल में जितना मुआवजा बांटा जाता है, उससे आंचलिक क्षेत्रों में भंडारण की माकूल व्यवस्था बना दी जाए तो किसान को अपना माल तत्काल बेचने की बैचेनी या मजबूरी नहीं रहेगी, इसके चलते उसे फसल का सही दाम भी मिलेगा और बाजार खुद उसके पास चल कर बाजार आएगा।
एक तरफ जहां किसान प्राकृतिक आपदा में अपनी मेहनत व पूंजी गंवाता है तो यह भी डरावना सच है कि हमारे देश में हर साल कोई 75 हजार करोड के फल-सब्जी, माकूल भंडारण के अभाव में नष्ट हो जाते हैं। आज हमारे देश में कोई 6300 कोल्ड स्टोरेज हैं जिनकी क्षमता 3011 लाख मेट्रीक टन की है। जबकि हमारी जरूरत 6100 मोट्रीक टन क्षमता के कोल्ड स्टोरेज की है। मोटा अनुमान है कि इसके लिए लगभग 55 हजार करोड रूपए की जरूरत है। जबकि इससे एक करोड़ 20 लाख किसानों को अपने उत्पाद के ठीक दाम मिलने की गारंटी मिलेगी। वैसे जरूरत के मुताबिक कोल्ड स्टोरेज बनाने का व्यय सालाना हो रहे नुकसान से भी कम है। चाहे आलू हो या मिर्च या ऐसेी ही फसल, इनकी खासियत है कि इन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। टमाटर, अंगूर आदि का प्रसस्करण कर वह पर्याप्त लाभ देती हैं। सरकार मंडियों से कर वूसलने, वहां राजनीति करने में तो आगे रहती है, लेकिन वेयर हाउस या कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने की उनकी जिम्मेदारिया पर चुप रहती हे। यही तो उनके द्वारा किसान के शोषण का हथियार भी बनता हे।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है । दुखद कि देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है । पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया । फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा- कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों । किसान जब ‘‘केश क्राप’’ यानी फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचौलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है। पिछले साल उत्तर प्रदेष में 88 लाख मीट्रिक टन आलू हुआ था तो आधे साल में ही मध्यभारत में आलू के दाम बढ़ गए थे। इस बार किसानों ने उत्पादन बढ़ा दिया, अनुमान है कि इस बार 125 मीट्रिक टन आलू पैदा हो रहा है। कोल्ड स्टोरेज की क्षमता बामुष्किल 97 लाख मीट्रिक टन की है। जाहिर है कि आलू या तो सस्ते- मंदे दामों में बिकेगा या फिर फिर किसान उसे खेत में ही सड़ा देगा- आखिर आलू उखाड़ने, मंडी तक ले जाने के दाम भी तो निकलने चाहिए।
हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक कंे कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मषहूर हरी मिर्चों को सड़क पर लावारिस फैंक कर अपनी हताशा का प्रदर्शन करते हैंे। तीन महीने तक दिन-रात खेत में खटने के बाद लहलहाती फसल को देख कर उपजी खुशी किसान के ओठों पर ज्यादा देर ना रह पाती है। बाजार में मिर्ची की इतनी अधिक आवक होती है कि खरीदार ही नहीं होते। उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है- घर की नई छप्पर, बहन की शादी, माता-पिता की तीर्थ-यात्रा; ना जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर मिर्चियों के साथ फैंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता-- मिर्ची की खेती के लिए बीज,खाद के लिए लिए गए कर्जे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां हजारेंा किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं, दुख की बात यह नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक में ऐसा लगभग हर साल किसी ना किसी फसल के साथ होता है। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी ना निकले।
देष के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताष करती है। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। दिल्ली से सटे पष्चिमी उत्तर प्रदेष के कई जिलों में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े, मवेषियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं। आष्चर्य इस बात का होता है कि जब हताष किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चौपट करता होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा, या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, और उप्र के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनांए हर दूसरे-तीसरे साल होती रहती है। जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तो तब षुगर मिलें या तो गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत नीचा देती हैं, वह भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काट कर खरदी केंद्र तक ढो कर ले जाना, फिर घूस दे कर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना; किसान को घाटे का सौदा दिखता है। अतः वह खड़ी फसल जला कर अपने कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं सब्जी, फल और दूसरी कैष-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुश्परिणाम दाल, तेल-बीजों(तिलहनों) और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फॅसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे; इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो, साथ ही प्रसंस्करण के कारखाने छोटी-छोटी जगहों पर लगें।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देश के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका शोषण हो रहा है । किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेश पर प्रतिबंध -जैसे कदम देष का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं । विडंबना है कि हमारे आर्थिक आधार की मजबूत कड़ी के प्रति ना ही समाज और ना ही सियासती दल संवेदनशील दिख रहे हैं। काश कोई किसान को फसल की गारंटेड कीमत का आश्वासन दे पाता तो किसी भी किसान कोे कभी जान ना देनी पड़ती।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005
9891928376
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