कूड़ा ढोने का मार्ग बन गई हैं नदियां
पंकज चतुर्वेदी
अब सुनने में आया है कि लखनऊ में शामे अवध की शान गोमती नदी को लंदन की टेम्स नदी की तरह संवारा जाएगा। महानगर में आठ किलो मीटर के बहाव मार्ग को घाघरा और षारदा नहर से जोड़कर नदी को सदानीरा बनाया जाएगा। साथ ही इसके सभी घाट व तटों को चमकाया जाएगा। इस पर खर्च आएगा ‘‘महज ’’ छह सौ करोड़। पूर्व में भी गोमती को पावन बनाने पर कोई 300 करोड़ खर्च हुए थे, लेकिन इसकी निचली लहर में बीओडी की मात्रा तयशुदा मानक से चार गुणा ज्यादा जहरीली ही रही। इससे पहले कॉमनवेल्थ खेलों के पहले दिल्ली में यमुना तट को भी टेम्स की तरह सुदर बनाने का सपना दिया गया था, नदी तो और मैली हो गई हां, जहां नदी का पानी बहना था, वहां कॉमनवेल्थ गेम विलेज, अक्षरधाम मंदिर और ऐसे ही कई निर्माण कर दिए गए। कैसी विडंबना है कि जिस देष का समाज, सभ्यता, संस्कृति, पर्व, जीवकोपार्जन, संस्कार, सभी कुछ नदियों के तट पर विकसित हुआ और उसी पर निर्भर रही है, वहां की हर छोटी-बड़ी नदी अब कूड़ा ढोने का वाहन बन कर रह गई है। विकास की सबसे बड़ी कीमत नदियां चुकाती रही है, क्योंकि जब विकास की परिभाशा में सबसे आगे निर्माण कार्य का नाम आता है और इसके लिए अनिवार्य रेत की निकासी नदी से ही होनी है। घरेलू निस्तार, कारखानों का कूड़ा, बेकार पड़ा मलवा या जो कुछ भी अनुपयोगी लगा, उसे नदी में बहा दिया गया। फिर नदी में इतना भी जल नहीं बचा कि वह अपषिश्ट बहा सके। जब हालात बिगड़ते हैं तो नदी की सेहत की याद आती है और फिर उसको सुधारने के नाम पर पैसा फूंका जाता है। कुछ दिन सौन्दर्यीकरण के नाम पर भ्रम फैलाया जाता है कि नदी सुधर गई है, लेकिन कास्मेटिक के जरिेये रक्त या अस्थि के रोग ठीक होते नहीं हैं।
बहुत-बहुत पुरानी बात है- हमारे देश में एक नदी थी, सिंधु नदी। इस नदी की घाटी में खुदाई हुई तो मोईन जोदड़ों नाम का पूरा शहर मिला, ऐसा शहर जो बताता था कि हमारे पूर्वजों के पूर्वजों के पूर्वज बेहद सभ्य व सुसंस्कृत थे और नदियों से उनका शरीर-स्वांस का रिश्ता था। नदियों किनारे समाज विकसित हुआ, बस्ती, खेती, मिट्टी व अनाज का प्रयोग, अग्नि का इस्तेमाल के अन्वेषण हुए। मंदिर व तीर्थ नदी के किनारे बसे, ज्ञान व अध्यात्म का पाठ इन्हीं नदियों की लहरों के साथ दुनियाभर में फैला। कह सकते हैं कि भारत की सांस्कृतिक व भावात्मक एकता का सम्वेत स्वर इन नदियों से ही उभरता है। इंसान मशाीनों की खोज करता रहा, अपने सुख-सुविधाओं व कम समय में ज्यादा काम की जुगत तलाशता रहा और इसी आपाधापी में सरस्वती जैसी नदी गुम हो गई। गंगा व यमुना पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया। बीते चार दशकों के दौरान समाज व सरकार ने कई परिभाषाएं, मापदंड, योजनाएं गढ़ीं कि नदियों को बचाया जाए, लेकिन विडंबना है कि उतनी ही तेजी से पावनता और पानी नदियों से लुप्त होता रहा।
हमारे देश में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस संपूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहां से पानी बह कर नदियों में आता है। इसमें हिंमखंड, सहायक नदियां, नाले आदि शामिल होते हैं। जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा होता है , उन्हें बड़ा-नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किजरेमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। इस मापदंड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्रह्मणी, महानदी, और साबरमति बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियां हैं। इनमें से तीन नदियां - गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। षेश दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलतः वर्शा पर निर्भर होती हैं।
यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के माग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिषत है। आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।
नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिए भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूशण।
धरती के तापमान में हो रही बढ़ौतरी के चलते मौसम में बदलाव हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिष अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम। मानसून के तीन महीनों में बामुष्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अंधाधंुध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियां नदियों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं। बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा, महानदी और ब्राह्मणी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम बहाव 4.7 लाख घनमीटर प्रति वर्गकिलोमीटर होता है। वहीं कृश्णा, सिंधु, तापी, नर्मदा और गोदावरी का पथ कम वर्शा वाला है सो इसमें जल बहाव 2.6 लख घनमीटर प्रति वर्गकिमी ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमति में तो बहाव 0.6 लख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य कार्यों के लिए नदियों के अधिक दोहन, बांध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी छेड़छाड़ र्हुअ व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है।
नदियां अपने साथ अपने रास्ते की मिट्टी, चट्टानों के टकुड़े व बहुत सा खनिज बहा कर लाती हैं। पहाड़ी व नदियों के मार्ग पर अंधाधंुध जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने, विस्फोटकों के इस्तेमाल आदि के चलते थेाडी सी बारिष में ही बहुत सा मलवा बह कर नदियों में गिर जाता है। परिणामस्वरूप् नदियां उथली हो रही हैं, उनके रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही ववे बाढ़ का रूप् ले लेती हैं।
आधुनिक युग में नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदूशण से है। कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रायायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिषत की ही खपत होती है, षेश 80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। यही अपषिश्ट या माल-जल कहा जाता है, जो नदियों का दुष्मन है। भले ही हम कारखानों को दोशी बताएं, लेकिन नदियों की गंदगी का तीन चौथाई हिस्सा घरेलू माल-जल ही है।
आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेडी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंदा, मप्र की खान, उप्र की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्टकृ की भीमा मिलाकर 10 नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। हालत यह है कि देश की 27 नदियां नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं। वैसे गंगा हो या यमुना, गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलुज, चिनाव, रावी, व्यास, पार्वती, हरदा, कोसी, गंडगोला, मसैहा, वरुणा हो या बेतवा, ढौंक, डेकन, डागरा, रमजान, दामोदर, सुवणर्रेखा, सरयू हो या रामगंगा, गौला हो या सरसिया, पुनपुन, बूढ़ी गंडक हो या गंडक, कमला हो या फिर सोन हो या भगीरथी या फिर इनकी सहायक, कमोेबेश सभी प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। दरअसल पिछले 50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चंूकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक भारत की कुल 445 नदियों में से आधी नदियों का पानी पीने के योग्य नहीं है। अपशिष्ट जल को साफ करके ये सुनिश्चित किया जा सकता है कि गंदे पानी से जल स्रोत्र प्रदूषित नहीं होंगे। जल संसाधनों का प्रबंधन किसी भी देश के विकास का एक अहम संकेतक होता है। अगर इस मापदंड पर भारत खरा उतरना है तो देश को ताजा पानी पर निर्भरता घटानी होगी और अपशिष्ट जल के प्रशोधन को बढ़ावा देना होगा। जून- 2014 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने लोकसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में कहा कि राज्यवार प्रदूषित नदियों की सूची में पहले स्थान पर महाराष्ट्र है जहां 28 नदियां प्रदूषित हैं. दूसरे स्थान पर गुजरात है जहां ऐसी 19 नदियां हैं. सूची में 12 प्रदूषित नदियों के साथ उत्तर प्रदेश तीसरे स्थान पर हैं.
कर्नाटक की 11 नदियां प्रदूषित नदियों की सूची में हैं, जबकि मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु प्रत्येक में 9 नदियां ऐसी हैं. राजस्थान की पांच और झारखंड की तीन नदियां इस सूची में हैं. साथ ही उत्तराखंड और हिमाचल की तीन तीन नदियां शामिल हैं. दिल्ली से गुजरने वाली एक ही नदी यमुना है और वह भी इस सूची में शामिल है। एक अनुमान है कि आजादी के बाद से अभी तक गंगा की सफाई के नाम पर कोई 20 हजार करोड़ रूप्ए खर्च हो चुके हैं। अप्रेल-2011 में गंगा सफाई की एक योजना सात हजार करोड़ की बनाई गई। विष्व बैंक से इसके लिए कोई एक अरब डालर का कर्जा भी लिया गया, लेकिन ना तो गंगा में पानी की मात्रा बढ़ी और ना ही उसका प्रदूशण घटा। नई सरकार ने गंगा सफाई के लिए अलग से महकमा बनाया है, । गंगा सफाई अभियान की पहली बैठक का व्यय ही 49 लाख रहा । बताया जाता है कि गंगा के पूरे 2400 किलोमीटर रास्ते को ठीक करने के लिए अब अस्सी हजार करोड़ की येाजना बनाई जा रही है। गंगा की समस्या केेवल प्रदूशण नहीं है, तटों का कटाव, बाढ़, रास्ता बदलना जैसे मसले भी इस पावन नदी के साथ जुड़े हैं। यमुना की कहानी भी कुछ अलग नहीं है । हाल ही में उत्तर प्रदेष सरकार ने दिल्ली को खत लिख कर धमका दिया कि यदि यमुना में गंदगी घोलना बंद नहीं किया तो राजधानी का गंगा-जल रोक देंगे। हालांकि दिल्ली सरकार ने इस खत को कतई गंभीरता से नहीं लिया है, ना ही इस पर कोई प्रतिक्रिया दी है, लेकिन यह तय है कि जब कभी यमुना का मसला उठता है,, सरकार बड़े-बड़े वादे करती है लेकिन क्रियान्वयन स्तर पर कुछ होता नहीं है। फरवरी-2014 के अंतिम हफ्ते में ही षरद यादव की अगुवाई वाली संसदीय समिति ने भी कहा कि यमुना सफाई के नाम पर व्यय 6500 करोड़ रूपए बेकार ही गए हैं क्योंकि नदी पहले से भी ज्यादा गंदी हो चुकी है। समिति ने यह भी कहा कि दिल्ली के तीन नालों पर इंटरसेप्टर सीवर लगाने का काम अधूरा है। गंदा पानी नदी में सीधे गिर कर उसे जहर बना रहा है। विडंबना तो यह है कि इस तरह की चेतावनियां, रपटें ना तो सरकार के और ना ही समाज को जागरूक कर पा रही हैं। दिल्ली मे यमुना को साफ-सुथरा बनाने की कागजी कवायद कोई 40 सालों से चल रह है। सन अस्सी में एक योजना नौ सौ करोड़ की बनाई गई थी। दिसंबर-1990 में भारत सरकार ने यमुना को बचाने के लिए जापान सरकार के सामने हाथ फैलाए थे। जापानी संस्था ओवरसीज इकोनोमिक कारपोरेषन फंड आफ जापान का एक सर्वें दल जनवरी- 1992 में भारत आया था। जापान ने 403 करेड़ की मदद दे कर 1997 तक कार्य पूरा करने का लक्ष्य रखा था। लेकिन यमुना का मर्ज बढ़ता गया और कागजी लहरें उफनती रहीं। अभी तक कोई 1800 करोड़ रूपए यमुना की सफाई के नाम पर साफ हो चुके हैं। इतना धन खर्च होने के बावजूद भी केवल मानसून में ही यमुना में ऑॅक्सीजन का बुनियादी स्तर देखा जा सकता है। इसमें से अधिकांष राषि सीवेज और औद्योगिक कचरे को पानी से साफ करने पर ही लगाई गई।
यमुना की सफाई के दावों में उत्तरप्रदेष सरकार भी कभी पीछे नहीं रही। सन 1983 में उ.प्र. सरकार ने यमुना सफाई की एक कार्ययोजना बनाई। 26 अक्तूबर 1983 को मथुरा में उ.प्र. जल निगम के प्रमुख आरके भार्गव की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय बैठक हुई थी। इसमें मथुरा के 17 नालों का पानी परिषोधित कर यमुना में मिलाने की 27 लाख रूपए की योजना को इस विष्वास के साथ मंजूरी दी गई थी कि काम 1985 तक पूरा हो जाएगा। ना तो उस योजना पर कोई काम हुआ, और ना ही अब उसका कोई रिकार्ड मिलता है। उसके बाद तो कई-कई करोड़ के खेल हुए, लेकिन यमुना दिन-दुगनी, रात चौगुनी मैली होती रही। आगरा में कहने को तीन सीवर षोधन संयत्र काम कर रहे हैं, लेकिन इसके बाद भी 110 एमएलडी सीवरयुक्त पानी हर रोज नदी में मिल रहा है। संयत्रों की कार्यक्षमता और गुणवत्ता अलग ही बात है। तभी आगरा में यमुना के पानी को पीने के लायक बनाने के लिए 80 पीपीएम क्लोरीन देनी होती है। सनद रहे दिल्ली में यह मात्रा आठ-दस पीपीएम है।
सरकारी रिकार्ड से मिलने वाली जानकारी तो दर्षाती है कि देष की नदियों में पानी नहीं नोट बहते हैं, वह भी भ्रश्टाचार व अनियमितता के दलदल के साथ। बीते दस सालो ंके दौरान गंगा और यमुना की सफाई पर 1150 करोड़ व्यय हुए, लेकिन हालात बद से बदतर होते गए। सन 2000 से 2010 के बीच देष के बीस राज्यों को नदी संरक्षण ष्योजना के तहत 2607 करोड़ रूप्ए जारी किए गए। इस योजना में कुल 38 नदियां आती है। राश्ट्रीय नदी निदेषालय द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार सन 2001 से 2009-10 तक दिल्ली में यमुना की सफाई पर 322 करोड़, हरियाणा में 85 करोड़ का खर्च कागजों पर दर्ज है। उ.प्र में गंगा, यमुना, गोमती की सफाई में 463 करोड़ की सफाई हो जाना, बिहार में गंगा के षुद्धिकरण के लिए 50 करोड़ का खर्च सरकारी दस्तावेज स्वीकार करते हैं। गुजरात में साबरमति के संरक्षण पर 59 करोड़, कर्नाटक में भद्रा, तुंगभद्रा,, कावेरी, तुंपा नदी को साफ करने पर 107 करोड़, मध्यप्रदेष में बेतवा, तापी, बाणगंगा, नर्मदा, कृश्णा, चंबल, मंदाकिनी को स्वच्छ बनाने के मद में 57 करोड़ का खर्चा किया गया। इस अवधि में पंजाब में अकेले सतलुज ो प्रदूशण मुक्त करने के लिए सरकार ने 154.25 करोड़ रूपए खर्च किए, जबकि तमिलनाडु में कावेरी, अडियार, बैगी, वेन्नार नदियों की सफाई का बिल 15 करोड़ का रहा। गंगा की जन्म स्थली उत्तराखंड में गंगा को पावन रखने के मद में 47 करोड़ खर्च हुए, जबकि पष्चिम बंगाल में गंगा, दामोदर, महानंदा के संरक्षण के लिए 264 करोड़ का सरकारी धन लगाया गया। कहने की जरूरत नहीं है कि अरबों पीने के बाद नदियों की सेहत कितनी सुधरी है व इस काम में लगी मषीनरी की कितनी।
यह जानना जरूरी है कि नदियों की सफाई, संरक्षण तो जरूरी है, लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है कि नदियों के नैसर्गिक मार्ग, बहाव से छेड़छाड़ ना हो, उसके तटों पर लगे वनों में पारंपरिक वनों का संरक्षण हो, नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र मे आने वाले इलाकों के खेतों में रासायनिक खाद व दवा का कम से कम इस्तेमाल हो। नदी को तो यह कायनात का वरदान होता है कि वह उसके मार्ग में आने वाली अषुद्धियों, गंदगी को पावन बना देती है, लेकिन मिलावट भी प्रकृति-सम्मत हो तब तक ही। नदियों से खनन, उसके तट पर निर्माण कार्य पर पाबंदी में यदि थोड़ी भी ढील दी जाती है तो जान लें कि उसके संरक्षण के लिए व्यय राषि पानी तो नहीं ला सकती , लेकिन एक बार फिर पानी में चली जाएगी।
कुछ प्रमुख नदियों में प्रदूशण के मुख्य स्त्रोत
क्रमांक नदी स्थान प्रदूशण का कारण
1. काली मेरठ षक्कर, षराब, पेंट साबुन, रेषम, सूत, टिन, ग्लीसरीन कारखाने
2. यमुना दिल्ली डीडीटी, ताप बिजली घर, षहरी गंदगी,
3. गोमती लखनऊ कागज और षहरी गंदगी
4 गंगा कानपुर चमड़ा, जूट, व अन्य कारखाने
5. दजोरा बरेली रबर
6. दामोदर बोकारो खाद, स्टील कोयला कारखाने व बिजली घर
7. हुगली कोलकाता कागज, जूट, कपड़ा, पेंट वार्निष रेयान, पालिथिन कारखाने व षहरी गंदगी
8. सोन डायमिया नगर सीमेंट, कागज करखाने
9. भद्रा कर्नाटक कागज, स्टील
10. कूम चैन्ने मोटर कार वर्कषाप, बंकिम नहर, नगरीय कचरा
11 गोदावरी दक्षिणी राज्य कागज, सल्फर, सीमेंट, चीनी कारखाने
12 नर्मदा मध्यप्रदेष खेती, खाद कागज
13. हिंडन सहारनपुर से ग्रेटर नोएडा तक कारखाने, षहरीय सीवर
राश्ट्रीय पर्यावरण संस्थान, नागपुर की एक रपट बताती है कि गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी सहित देष की 14 प्रमुख नदियों में देष का 85 प्रतिषत पानी प्रवाहित होता है। ये नदियां इतनी बुरी तरह प्रदूशित हो चुकी हैं कि देष की 66 फीसदी बीमारियों का कारण इनका जहरीला जल है। इस कारण से हर साल 600 करोड़ रूपए के बराबर सात करोड़ तीस लाख मानव दिवसों की हानि होती है।
अभी तो देश में नदियों की सफाई नारों के षोर और आंकड़ों के बोझ में दम तोड़ती रही हैं। बड़ी नदियों में जा कर मिलने वाली हिंडन व केन जैसी नदियों का तो अस्तित्व ही संकट में है तो यमुना कहीं लुप्त हो जाती है व किसी गंदे नाले के मिलने से जीवित दिखने लगती है। सोन, जोहिला , नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से ही नदियों के दमन की षुरूआत हो जाती है तो कही नदियों को जोड़ने व नहर से उन्हें जिंदा करने के प्रयास हो रहे हैं। नदी में जहर केवल पानी को ही नहीं मार रहा है, उस पर आश्रित जैव संसार पर भी खतरा होता है। नदी में मिलने वाली मछली केवल राजस्व या आय का जरिया मात्र नहीं है, यह जल प्रदूशण दूर करने में भी सहायक होती हैं।
जल ही जीवन का आधार है, लेकिन भारत की अधिकांष नदियां शहरों के करोड़ों लीटर जल-मल व कारखानों से निकले जहर को ढ़ोने वाले नाले का रूप ले चुकी हैं। नदियों मंे शवबहा देने, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को रोकने या उसकी दिषा बदलने से हमारे देष की असली ताकत, हमारे समृद्ध जल-संसाधन नदियों का अस्तित्व खतरे में आ गया है।
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