प्राथमिक शिक्षा के राष्ट्रीयकरण की जरुरत
पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के
स्कूलों में नर्सरी दाखिले को लेकर
अफरातफरी का आलम है। कहीं फार्मों की मनमानी कीमतों को लेकर असंतोष है, तो कोई सरकार द्वारा तय मापदंडों का पालन न होने से नाराज
है। स्थिति यह है कि स्कूलों में दाखिले
को लेकर कई महीनों से हाई कोर्ट और सुप्रीम
कोर्ट में मुकदमे चल रहे हैं और न तो पालक और न ही स्कूल इससे
संतुष्ट हैं। नर्सरी का खर्च आइआइटी की
फीस से भी महंगा हो गया है। देश में स्कूली
शिक्षा पर सरकार और समाज इफरात खर्च कर रहे हैं और कोई भी संतुष्ट
नहीं है। दिल्ली सरकार नर्सरी दाखिले
में अपने नियम तो लागू कराना चाहती है, लेकिन पूरी दिल्ली में उसका एक भी अपना नर्सरी स्कूल नहीं है।
यह भी
कटु सत्य है कि देश में आज भी प्राईमरी
स्तर के पचहत्तर फीसद स्कूल सरकारी हैं
और वहां पढ़ाई की गुणवत्ता इतनी कमजोर है कि पैंतालीस फीसद से ज्यादा
बच्चे कक्षा पांच से आगे पढ़ने के लायक
नहीं होते हैं।
राजधानी से सटे गाजियाबाद के कई नामचीन
स्कूलों में बढ़ी फीस का झंझट अब थाना-पुलिस
तक पहुंच गया है। स्कूल वाले बच्चों को प्रताड़ित कर रहे हैं, तो अभिभावक पुलिस के पास
गुहार लगा रहे हैं। स्कूल हाईकोर्ट की शरण में हैं तो पालक नेताओं की। इस मारामारी में आम निम्न-मध्यवर्गीय आदमी
की बुद्धि
गुम-सी हो गई है। माहौल ऐसा हो गया है
कि बच्चों के मन में स्कूल या शिक्षक के
प्रति कोई श्रद्धा नहीं रह गई है। वहीं स्कूल वालों की बच्चों के प्रति
न तो संवेदना रह गई है और न ही
सहानुभूति। ऐसा अविश्वास का माहौल बन गया है, जो बच्चों का जिंदगी भर साथ नहीं छोड़ेगा। शिक्षा का
व्यवसायीकरण कितना
खतरनाक होगा, इसका अभी किसी को अंदाजा नहीं है। लेकिन मौजूदा पीढ़ी जब
संवेदनहीन होकर अपने ज्ञान को महज पैसा
बनाने का जरिया मान कर इस्तेमाल करना
शुरू करेगी,
तब समाज और सरकार को इस भूल का अहसास
होगा। साफ है कि
शिक्षा-व्यवस्था अराजकता और अंधेरगर्दी
के ऐसे गलियारे में खड़ी है,
जहां से एक अच्छा नागरिक बनने की उम्मीद बेमानी होगी। ऐसे में एक ही
विकल्प है-
सभी को समान स्कूली शिक्षा।
कहा जाता है कि पहले ज्ञानार्जन का
अधिकार केवल उच्च वर्ग के लोगों के पास
हुआ करता था। इस ‘तथाकथित’ मनुवाद को कोसने का
इन दिनों कुछ फैशन-सा चला है, या यों कहें कि इसे सियासत की सहज राह कहा जा रहा है। लेकिन आज
की
मुक्त अर्थव्यवस्था से जिस नए ‘मनीवाद’
का जन्म हो रहा है, उस पर चहुं ओर चुप्पी
है। लक्ष्मी साथ है तो सरस्वती के द्वार आपके लिए खुले हैं, अन्यथा सरकार
और समाज दोनों की नजर में आपका अस्तित्व शून्य है। इस नए ‘मनीवाद’
का सर्वाधिक शिकार प्राथमिक शिक्षा हो रही है। हमारे देश में
प्राथमिक स्तर
पर ही शिक्षा लोगों का स्तर तय कर रही
है। एक तरफ कंप्यूटर,
एसी, खिलौनों से
सज्जित स्कूल हैं,
तो दूसरी ओर श्यामपट््ट, शौचालय जैसी मूलभूत जरूरतों को तरसते बच्चे।
दो-ढाई साल के बच्चों का प्री-स्कूल
प्रवेश चुनाव लड़ने जैसा कठिन हो गया है।
अगर जुगाड़ लगा कर मध्यवर्ग का कोई बच्चा इन बड़े स्कूलों में पहुंच भी
जाए तो वहां के चोंचले झेलना उसके बूते
के बाहर होता है। ठीक यही हालात देश के
अन्य महानगरों का भी है। बच्चे के जन्मदिन पर स्कूल के सभी बच्चों में
कुछ वितरित करना या ‘ट्रीट’
देना, सालाना जलसों के लिए स्पेशल ड्रेस बनवाना,
साल भर में एक-दो पिकनिक या टूर ये ऐसे
व्यय हैं,
जिन पर हजारों का खर्च हो जाता है। फिर स्कूल की किताबें, वर्दी,
जूते, वगैरह।
करीब अठारह साल पहले केंद्र सरकार के
कर्मचारियों के पांचवे वेतन आयोग के
समय दिल्ली सरकार ने फीस बढ़ोतरी के मुद्दे पर मानव संसाधन विकास
मंत्रालय से अवकाश प्राप्त सचिव जेवी
राघवन की अध्यक्षता में नौ सदस्यों की एक
समिति गठित की थी। इस समिति ने दिल्ली स्कूल अधिनियम 1973 में संशोधन की
सिफारिश की थी। समिति का सुझाव था कि पब्लिक स्कूलों को बगैर लाभ-हानि
के संचालित किया जाना चाहिए। समिति ने
पाया था कि कई स्कूल प्रबंधन, छात्रों से उगाही फीस
का इस्तेमाल अपने दूसरे व्यवसायों में कर रहे हैं। राघवन समिति ने ऐसे स्कूलों के प्रबंधन के खिलाफ कड़ी कार्रवाई
की अनुशंसा
की थी। समिति ने सुझाव दिया था कि
छात्रों से वसूले धन का इस्तेमाल केवल छात्रों
और शिक्षकों की बेहतरी पर किया जाए।
उसके बाद पांच साल पहले छठवें वेतन आयोग
के बाद भी सरकार ने बंसल समिति गठित
की,
जिसकी सिफारिशें राघवन समिति की तरह ही
थीं। ये रिपोर्ट बानगी हैं कि
स्कूली-शिक्षा अब एक नियोजित धंधा बन चुकी है। बड़े पूंजीपति, औद्योगिक घराने, माफिया,
राजनेता अपने काले धन को छिपाने के लिए
स्कूल खोल रहे हैं। वहां किताबों, वर्दी की खरीद, मौज-मस्ती की पिकनिक या हॉबी क्लास, सभी मुनाफे का व्यापार बन
चुके हैं। इसके बावजूद इन अनियमितताओं की अनदेखी केवल इसलिए है कि स्कूल प्रबंधन में नेताओं की सीधी साझेदारी है।
तिस पर सरकार
शिक्षा को मूलभूत अधिकार देने के
प्रस्ताव सदन में पारित कर चुकी है।
शिक्षा का सरकारी तंत्र जैसे ठप्प पड़
चुका है। निर्धारित पाठ्यक्रम की पुस्तकें
मांग के अनुसार उपलब्ध कराने में एनसीइआरटी सरीखी सरकारी संस्थाएं
बुरी तरह विफल रही हैं। जबकि प्राइवेट
या पब्लिक स्कूल अपनी मनमानी किताबें
छपवा कर कोर्स में लगा रहे हैं। यह पूरा धंधा इतना मुनाफे वाला बन
गया है कि अब छोटे-छोटे गांवों में भी
पब्लिक या कानवेंट स्कूल खुल रहे हैं।
कच्ची झोपड़ियों,
गंदगी के बीच, बगैर माकूल व्यवस्था के कुछ बेरोजगार एक बोर्ड लटका कर प्राइमरी स्कूल खोल लेते हैं। इन ग्रामीण
स्कूलों के
छात्र पहले तो वे लोग होते हैं, जिनके पालक पैसे वाले होते हैं और अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना हेठी समझते हैं।
कुल मिला कर दोष जर्जर सरकारी शिक्षा
व्यवस्था के सिर पर जाता है, जो आम
आदमी का विश्वास पूरी तरह खो चुकी है।
अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए
पालक मजबूरी में इन शिक्षा की दुकानों पर खुद लुटने को पहुंच जाते हैं।
लोग भूल चुके हैं कि दसवीं पंचवर्षीय
योजना के समापन तक यानी सन 2007 तक
शत-प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक शिक्षा
का सपना बुना गया था,
जिसे ध्वस्त हुए नौ साल बीत चुके हैं।
वैसे स्कूल रूपी दुकानों का रोग कोई दो
दशक पहले महानगरों से ही शुरू हुआ
था,
जो अब शहरों, कस्बों से संक्रमित होता हुआ दूरस्थ गांवों तक पहुंच
गया है। समाजवाद की अवधारणा पर सीधा
कुठाराघात करने वाली यह शिक्षा प्रणाली शुरू
से ही उच्च और निम्न वर्ग तैयार कर रही है, जिसमें समर्थ लोग और समर्थ
होते हैं,
जबकि विपन्न लोगों का गर्त में जाना
जारी रहता है।
विश्व बैंक की एक रपट कहती है कि भारत
में छह से दस साल के कोई तीन करोड़ बीस
लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। रपट में यह भी कहा गया है कि
भारत में शिक्षा को लेकर बच्चों में
खासा भेदभाव है। लड़कों-लड़कियों, गरीब-अमीर और जातिगत
आधार पर बच्चों के लिए पढ़ाई के मायने अलग-अलग हैं। रपट के अनुसार दस वर्ष तक के सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए
तेरह लाख
स्कूली कमरे बनवाने होंगे और 740 हजार नए शिक्षकों की जरूरत होगी। सरकार के
पास खूब बजट है और उसे निगलने वाले
कागजी शेर भी। लेकिन मूल समस्या स्कूली शिक्षा
में असमानता की है।
प्राथमिक स्तर की शिक्षण संस्थाओं की
संख्या बढ़ना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन ‘देश के भविष्य’ की नैतिक शिक्षा का पहला आदर्श शिक्षक जब तीन हजार
रुपए पर दस्तखत कर बमुश्किल डेढ़-दो सौ
रुपये का भुगतान पा रहा हो तो उससे किस
स्तर के ज्ञान की उम्मीद की जा सकती है। जब पहली कक्षा के ऐसे बच्चे
को, जिसे अक्षर ज्ञान भी बमुश्किल है, उसे कंप्यूटर सिखाया जाने लगे, महज इसलिए कि पालकों से
इस नाम पर अधिक फीस वसूली जा सकती है, तो किस तरह तकनीकी
शिक्षा प्रसार की बात सोची जा सकती है? प्राइवेट स्कूलों की आय की जांच,
फीस पर सरकारी नियंत्रण, पाठ्यक्रम, पुस्तकों आदि का
एकरूपीकरण,
सरकारी स्कूलों को सुविधा संपन्न बनाना, आला सरकारी अफसरों और जनप्रतिनिधियों
के बच्चों की सरकारी स्कूलों में शिक्षा की अनिवार्यता, निजी संस्था के शिक्षकों का वेतन सुनिश्चित करना सरीखे सुझाव
समय-समय पर
आते रहे और लाल बस्तों में बंध कर गुम
होते रहे हैं।
अतुल्य भारत के सपने को साकार करने की
प्राथमिक जरूरत स्तरीय प्राथमिक शिक्षा
का लक्ष्य पाने का एकमात्र तरीका है- स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण। अपने दो या तीन वर्ग किलोमीटर के दायरे में आने
वाले स्कूल
में प्रवेश पाना सभी बच्चों का हक हो, सभी स्कूलों की सुविधाएं, पुस्तकें, फीस एक समान हो, मिड-डे मील सभी को एक जैसा मिले अौर कक्षा आठ तक के सभी
स्कूलों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा
होे। फिर न तो किताबों का विवाद होगा
और न ही मदरसों की दुर्दशा पर चिंता। यह सब करने में खर्चा भी अधिक
नहीं है, बस जरूरत है तो इच्छाशक्ति की। जो अभिभावक नामचीन निजी स्कूलों
में अपने बच्चों के दाखिले के लिए लाखों
रुपए डोनेशन देते हैं वे अगर इसका एक
अंश अपने घर के पास के सरकारी स्कूल में लगाएंगे, जहां उनका बच्चा पढ़ता है
तो स्कूल स्तर पर विषमता की खाई आसानी से पाटी जा सकेगी।
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