जेल बनें इंसानों के रहने लायक
पंकज चतुर्वेदीशामली, उ.प्र के इकबाल को लखनउ पुलिस ने सन 2007 में आतंकवाद, हत्या के प्रयास सहित आधा दर्जन मामलों में आतंकवादी बता कर जेल भेज दिया था। वह आठ साल जेल में रहा और इसी सप्ताह बाइज्ज्त बरी हो गया। अदालत ने पाया के उस पर लगे सभी आरोप फर्जी व गढ़े हुए थे। अब पता नहीं कि उसकी रिहाई में ‘‘बाइज्ज्त’’ के क्या मायने हैं लेकिन इस काल में उसका जीवन जरूर बदल गया। बाहर आ कर समाज व पुलिस दोनों उसे संदिग्ध नजर से देख रहे हैं, उसे काम पर रखने वाले तैयार नहीं हैं। वही आठ साल जेल में विचाराधीन कैदी के तौर पर हर दिन के तनावों के चलते उसका षारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ा गया है। कहा नहीं जा सकता है कि इस कुंठा व बेज्जती से कब उबर पाएगा। अब तो सुप्रीे कोर्ट ने भी कह दिया कि जेल में विचराधीन कैदियों की हालत बहुत बुरी है और द्वामता से कई सौ गुना ज्यादा भीड़ से भरे जेल इंसन के आत्म सम्मान के मूलभूत अधिकार पर प्रष्न चिन्ह है।। हालांकि यह भी कटु सत्य है कि सुप्रीम कोर्ट के लगातार निर्देषों के बावजूद भी निचली अदालतें जमानत योग्य अपराधों में भी लेागों को जल भेज देती है और पुलिस भी अपने हथकंडे अपना कर जेलों को नरक बना रही है। यहां जानना जरूरी है कि जेल व्यवस्था में सुधार के लिए समुचित व्यवस्था हेतु बीते 35 सालों से सुप्रीम कोर्ट में कई-कई मामले चल रहे हैं व कई में कोर्ट ने निर्देष भी दिए हैं ,लेकिन लचल न्यायिक व्यवस्था के चलते बेगुनाह सालों-साल जेल में रहते हैं व बाहर आते हैं तो उनका तन व मन श्रम करने लायक नहीं रह जाता है।
raj express 15-3-17 |
पिछले साल बस्तर अंचल की चार जेलों में निरूद्ध बंदियों के बारे में ‘सूचना के अधिकार’ के तरह मांगी गई जानकारी पर जरा नजर डालें - दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों के साथ 377 बंदी है जो सभी आदिवासी हैं। कुल 629 क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं , इनमें से 512 आदिवासी हैं। इनमें महिलाएं 53 हैं, नौ लोग पांच साल से ज्यादा से बंदी हैं और आठ लोगों को बीते एक साल में कोई भी अदालत में पेषी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं इनमें से 134 आदिवासी व छह औरते हैं इसकी कुल बंदी क्षमता 85 है। दुर्ग जेल में 396 बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार औरतों सहित 57 ‘‘नक्सली’’ बंदी हैं, इनमें से 51 आदिवासी हैं। सामने है कि केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो पांच हजार से पार पहुंचेगी। नारायणपुर के एक वकील बताते हैं कि कई बार तो आदिवासियों को सालों पता नहीं होता कि उनके घर के मर्द कहां गायब हो गए है।। बस्तर के आदिवासियों के पास नगदी होता नहीं है। वे पैरवी करने वाले वकील को गाय या वनोपज देते हैं। कई मामले तो ऐसे है कि घर वालों ने जिसे मरा मान लिया, वह बगैर आरोप के कई सालों से जेल में था। ठीक यही हाल झारखंड के भी हैं।
यहां यह भी जानना जरूरी है कि जेल में श्रम कार्य केवल सजायाफ्ता बंदियो के लिए होता है। विचाराधीन बंदी न्यायिक अभिरक्षा में कहलाते हैं। भारतीय जेलों में 65 प्रतिषत से ज्यादा विचारधीन कैछी ही हैं। जेलों में बढ़ती भीड़, अदालतों पर भी बोझ हैं और हमारे देष की असल ताकत‘‘मानव संसाधन’’ का दुरूपयोग भी। एक तो ऐसे कैदियों के कारण सरकार का खर्च बढ़ रहा है दूसरा सुरक्षा एजेंसियों पर भी भार बढ़ता है। जितने अधिक विचाराधीन बंदी हांेगे, उन्हें अदालत ले जाने के लिए उतना ही अधिक सुरक्षा बल चाहिए। तभी देष में हर दिन सैंकड़ो मामलों में बंदी अदालत नहीं नहीं पहुंच पाते हैं और यह भी अदालतों में मामलों के लंबे खींचने की वजह बनता है। क्या यह संभव नहीं है कि जिन मामलों में जांच पूरी हो गई हो या फिर मामले ज्यादा गंभीर ना हों, उनपके बंदियों को किसी रचनात्मक कार्य में उनकी योग्यता के अनुसार लगा दिया जाए। इस तरह षिक्षक, तकनीकी इंस्ट्रक्टर, यातायात संचालन सहयोगी, अस्पताल में सहायक जैसे कई कामों के लिए कर्मियों की कमी से निबटा जा सकता है। साथ ही बंदी के मानव संसाधन के सही इस्तेमाल, उसके सम्मनपूर्वक जीवन के अदालती निर्देषों का भी पालन किया जा सकता है। ऐसे बंदियों को घर मं रहने की छूट कुछ बंदिषों के साथ दी जा सकती है।
हालांकि प्रयास तो यह होना चाहिए कि अपराध कम हों या गैरनियत से किए गए छोटे-मोटे अपराधों के लिए या कम सजा या सामान्य प्रकरणों को अदालत से बाहर निबटाने, पंचायती राज में न्याय को षामिल करने जैसे सुधार कानून में किए जाएं।
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