कश्मीर को रहने दो कश्मीर तक
= पंकज चतुर्वेदी
इन
दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मामले ने भी जाने-अनजाने में
अलगाववादियों के इरादों को ही पंख दिए। जेएनयू में बामुश्किल 20 लोगों के
एक संगठन ने देशद्रोही नारे लगाए। इसमें कोई शक नहीं कि उनके खिलाफ वाजिब
कार्यवाही भी होनी थी, लेकिन उत्साही लालों ने इसे पूरी यूनिवर्सिटी को ही
कठघरे में खड़ा करने का अवसर बना लिया, इसे विपरीत राजनीतिक विचारधारा पर
आरोप लगाने का जरिया बनाया और इसी का परिणाम है कि कश्मीर को आत्मनिर्णय का
मसला विदेशी मीडिया में उछलने लगा...
अभी तीन-चार साल पहले तक कश्मीर का मसला केवल अलगाववाद का विषय था। गुजरात या देश के किसी दीगर हिस्से में दंगों में यदि मुसलमान मारा जाता था तो कश्मीरी उसकी परवाह नहीं करते थे। यहां तक कि गुजरात दंगों के बाद श्रीनगर की जामा मस्जिद में जुमे की नमाज के बाद गुजरात में हलाक मुसलमानों की आत्मा की शांति के लिए दुआ करने से भी इसलिए मना कर दिया गया था कि जब कश्मीर में कई हजार मुसलमान मर गए तो शेष हिंदुस्तान की किस मस्जिद में दुआ हुई। सनद रहे कि इस मस्जिद के इमाम पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी गुट के अगुवा नेता हैं। ठीक उसी तरह हिंदुस्तान के किसी भी हिस्से में कश्मीर की समस्या को मुसलमान की समस्या समझ कर कभी प्रतिक्रिया नहीं हुई। अफजल गुरु की फांसी के बाद दिल्ली, अलीगढ़ से लेकर दूर-दूर तक कुछ प्रतिक्रियाएं हुई थीं, लेकिन समय के साथ वे स्वर उभरे नहीं। मगर आज कुछ लोगों की बद्तमीजी को देश के एक श्रेष्ठ यूनिवर्सिटी की हरकत बनाकर प्रचार करने से एक बात तो साफ है कि पाकिस्तान अपनी उस चाल में कामयाब हो गया, जिसके तहत कश्मीर को दो संप्रदाय का विवाद दिखा कर प्रचारित करना चाहता था। साथ ही वहां के अलगाववाद को इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर केंद्र में ला दिया। देश को आजादी के साथ ही विरासत में मिली समस्याओं में कश्मीर सबसे दुखती रग है। समय के साथ मर्ज बढ़ता जा रहा है, कई लोग ‘अतीत-विलाप’ कर समस्या के लिए नेहरू या कांग्रेस को दोषी बताते हैं तो देश में ‘एक ही धर्म, एक ही भाषा या एक ही संस्कृति’ के समर्थक कश्मीर को मुसलमानों द्वारा उपजाई समस्या व इसका मूल कारण धारा-370 को निरूपित करते हैं। ऐसा नहीं है कि 1990 के बाद पाकिस्तान-परस्त संगठनों ने कश्मीर के बाहर निर्दोष लोगों की हत्या नहीं की हो, लेकिन पांच-सात साल पहले तक इस देशद्रोही काम में केवल पाकिस्तानी ही शामिल होते थे। जब दुनिया में अलकायदा नेटवर्क तैयार हो रहा था, तभी कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में इंडियन मुजाहिदीन और उससे पहले सिमी के नाम पर स्थानीय मुसलमानों को गुमराह किया जा रहा था। जब सरकार चेती तब तक कश्मीर के नाम पर बनारस, जयपुर तक में बम फट चुके थे। इन दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मामले ने भी जाने-अनजाने में अलगाववादियों के इरादों को ही पंख दिए। सनद रहे श्रीनगर में लगभग हर जुमे को
पाकिस्तान जिंदाबाद या आजादी के नारे लगते हैं, पाकिस्तान के झंडे भी फहराए जाते हैं, लेकिन यह सब महज पुराने श्रीनगर के एक छोटे से इलाके तक सीमित रहता था। जेएनयू में बामुश्किल 20 लोगों के एक संगठन ने देशद्रोही नारे लगाए। इसमें कोई शक नहीं कि उनके खिलाफ वाजिब कार्यवाही भी होनी थी, लेकिन उत्साही लालों ने इसे पूरी यूनिवर्सिटी को ही कठघरे में खड़ा करने का अवसर बना लिया, इसे विपरीत राजनीतिक विचारधारा पर आरोप लगाने का जरिया बनाया और इसी का परिणाम हैं कि कश्मीर को आत्मनिर्णय का मसला विदेशी मीडिया में उछलने लगा। हालांकि अब साफ हो चुका है कि यह बात तथ्यों से परे है कि मुस्लिम बहुल इस क्षेत्र में धारा-370 के कारण ही अलगवादवाद पनप रहा है और इसे तुष्टिकरण नीति के कारण अनदेखा किया जाता है। इस अवधारणा का आधार ही झूठ पर टिका हुआ है। यहां जान लेना जरूरी है कि कश्मीर समस्या का हिंदू-मुस्लिम समस्या से कोई लेना-देना नहीं रहा है। धारा 370 के तहत, कोई भी गैर कश्मीरी, भले ही वह किसी भी जाति-धर्म का हो, जम्मू-कश्मीर राज्य में जमीन नहीं खरीद सकता है। वैसे इस राज्य में मुसलमानों के लगभग बराबर की हिंदुओं, सिखों और बौद्धों की भी जमीनें हैं, लेकिन वे सभी इसी राज्य के मूल निवासी हैं। और हां, यह विशेष स्थिति अकेले कश्मीर के लिए तो है नहीं! अनुच्छेद 371 के तहत किसी गैर हिमाचली को हिमाचल प्रदेश में जमीन खरीदने पर पाबंदी है। महाराष्ट्र में कृषि भूमि वही खरीद सकता है, जो किसान हो। गुजरात, मेघालय, नागालैंड, आसाम, मणिपुर, सिक्किम, आंध्र प्रदेश, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के साथ-साथ देश के कई आदिवासी बाहुल्य इलाकों में बाहरी लोगों द्वारा जमीन खरीदने पर पाबंदी है। याद करें, पंजाब में तो कोई धारा 370 नहीं है, इसके बावजूद वहां कोई डेढ़ दशक तक आतंकवाद रहा। हिमालय के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में कोई दो लाख बाइस हजार किलोमीटर में फैले जम्मू-कश्मीर राज्य की कश्मीर घाटी में चिनार जंगलों से अलगाववाद के सुर्ख फूल पनपते रहे हैं। 14वीं शताब्दी तक यहां बौद्ध और हिंदू शासक रहे। सन 632 में पैगंबर मुहम्मद के देहावसान के बाद मध्य एशिया में इस्लाम फैला, तभी से मुस्लिम व्यापारी कश्मीर में आने लगे थे। 13वीं सदी में लोहार वंश के अंतिम शासक सुहदेव ने मुस्लिम सूफी-संतों को अपने राज्य कश्मीर में प्रश्रय दिया। बुलबुलशाह ने पहली मस्जिद बनवाई। फकीरों, सूफीवाद से प्रभावित होकर कश्मीर में बड़ी आबादी ने इस्लाम अपनाया, लेकिन वह कट्टरपंथी कतई नहीं थे। इलाके के सभी प्रमुख मंदिरों में पुजारी व संरक्षक मुसलमान ही रहे हैं। 19वीं सदी के प्रारंभ में यहां सिखों का शासन रहा और फिर आजादी तक डोगरा शासक मुस्लिम बहुल वाले कश्मीर में लोकप्रिय शासक रहे। कश्मीर में कट्टरपंथी तत्व सन् 1942 में उभरे, जब पीर सईउद्दीन ने जम्मू-कश्मीर में जमात-ए-इस्लाम का गठन किया। इस पार्टी की धारा-3 में स्पष्ट था कि वह पारंपरिक मिश्रित संस्कृति को नष्ट कर इस्लामी संस्कृति की नींव डालना चाहता था। सन् 1947 में अनमने मन से द्विराष्ट्र के सिद्धांत को स्वीकारते हुए भारत आजाद हुआ। उस समय देश की 562 देसी रियासतें थीं। हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर अधिकांश रियासतों का भारत में विलय सहजता से हो गया। यह प्रामाणिक तथ्य है कि लार्ड माउंटबैटन ने कश्मीर के राजा हरीसिंह को पाकिस्तान में मिलने के लिए दबाव डाला था। राजा हरीसिंह इसके लिए तैयार नहीं थे। 22 अक्टूबर, 1949 को अफगान और बलूच कबाइलियों ने पाकिस्तान के सहयोग से कश्मीर पर हमला कर दिया। भारत ने विलय की शर्त पर कश्मीर के राजा को सहयोग दिया। भारतीय फौजों ने कबाइलियों को बाहर खदेड़ दिया। इस प्रकार 1948 में कश्मीर का भारत में विलय हुआ। भारत और पाकिस्तान का निर्माण ही एक दूसरे के प्रति नफरत से हुआ है। अत: तभी से दोनों देशों की अंतरराष्ट्रीय सीमा के निर्धारण के नाम पर कश्मीर को सुलगाया जाता रहा है। उसी समय कश्मीर को बाहरी पूंजीपतियों से बचाने के लिए कश्मीर को विशेष दर्जा धारा 370 के अंतर्गत दिया गया। तब से धारा 370 (केवल कश्मीर में) का विरोध एक सियासती पार्टी के लिए ईंधन का काम करता रहा है। आतंकवाद एक अंतरराष्ट्रीय त्रासदी है। कश्मीर में सक्रिय कतिपय अलगाववादी ऐसी ही अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सदस्य हैं। उनका कश्मीर में इस्लाम से उतना ही सरोकार है, जितना धारा 370 की सियासत करने वालों का हिंदुत्व से। समाज का एक वर्ग समझता है कि कश्मीर में गोली और लाठी के भय से राष्ट्रद्रोही तत्वों को कुचलना ही मौजूदा समस्या का निदान है। वह यह कुप्रचार करता है कि केवल धार्मिक कट्टरता ही वहां भारत विरोधी जन-उन्मेष का मुख्य कारण है। हालात चाहे जितने भी बद्तर रहे हों, लेकिन समस्या को भारत के लोग एक राजनीतिक या पाकिस्तान-प्रोत्साहित समस्या ही समझते रहे हैं। संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी पर जब सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मुहर लगाई थी, तभी से एक बड़ा वर्ग, जिसमें कुछ कानून के जानकार भी शामिल थे, दो बातों के लिए माहौल बनाते रहे थे- एक अफजल को फांसी जरूर हो, हां वे कभी भी उसे बचाना नहीं चाहते थे। दूसरा उसके बाद, फांसी की प्रक्रिया में कभी कानून का पालन न करने तो कभी कश्मीर की अशांति की दुहाई दे कर मामले को देशव्यापी बनाया जाए। याद करें अभी दो साल पहले ही अमेरिका की अदालत ने एक ऐसे पाकिस्तान मूल के अमेरिकी नागरिक को सजा सुनाई थी, जो अमेरिका में कश्मीर के नाम पर लॉबिग करने के लिए फंडिंग करता था और उसके नेटवर्क में कई भारतीय भी शामिल थे। जान कर आश्चर्य होगा कि उनमें कई एक हिंदू हैं। प्रशांत भूषण का बयान लोग भूले नहीं हैं, जिसमें उन्हें कश्मीर में रायशुमारी के आधार पर भारत से अलग होने का समर्थन किया था। जब अफजल गुरु को कानूनी मदद की जरूरत थी, तब उसके लिए सहानुभूति दिखाने वाले किताब लिख रहे थे, अखबारों में प्रचार कर रहे थे और जिन एनजीओ से संबद्ध हैं, उसके लिए फंड जमा कर रहे थे। जबकि उन्हें मालूम था कि अफजल की कानूनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी जा सकती थी, न कि अखबारी लेख से। पाकिस्तान परस्त कतिपय संगठनों ने इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों में लड़कों को जुटाकर जो अभियान शुरू किया था, उसका अगला पड़ाव था अफजल की फंासी के बाद दिल्ली, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, लखनऊ व कई अन्य जगहों पर केपीटल पनिशमेंट की खिलाफत के नाम पर इसे मानवाधिकार का मसला बनाए रखना। विडंबना है कि ऐसे शिगूफे वे छोड़ रहे हैं, जो लाल झंडे लेकर सर्वहारा वर्ग की बात करते हैं। यदि सत्र न्यायालय से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक सात न्यायाधीशों ने पूरे मामले को देखा, सुना है फिर गृह मंत्रालय और उसके बाद राष्ट्रपति ने उसका आकलन किया और उसमें पाया कि अफजल गुरु अपराधी है और वह सजा का हकदार है, ऐसे में केवल सड़क पर नारे उछालने का औचित्य समझ नहीं आता है। लेकिन जेएनयू या जाधवपुर में हुई हरकतों की प्रतिक्रिया में अलगाववादियों को अलग-थलग कर कार्यवाही करना कारगर होगा। यदि किसी बड़े समूह, राजनीतिक दल या संस्थान के सभी लोगों के साथ उन्हें जोड़ कर महज राजनीतिक माइलेज लेने का प्रयास होगा तो यह अलगाववादियों के हाथ मजबूत करने का ही कदम होगा।
पाकिस्तान जिंदाबाद या आजादी के नारे लगते हैं, पाकिस्तान के झंडे भी फहराए जाते हैं, लेकिन यह सब महज पुराने श्रीनगर के एक छोटे से इलाके तक सीमित रहता था। जेएनयू में बामुश्किल 20 लोगों के एक संगठन ने देशद्रोही नारे लगाए। इसमें कोई शक नहीं कि उनके खिलाफ वाजिब कार्यवाही भी होनी थी, लेकिन उत्साही लालों ने इसे पूरी यूनिवर्सिटी को ही कठघरे में खड़ा करने का अवसर बना लिया, इसे विपरीत राजनीतिक विचारधारा पर आरोप लगाने का जरिया बनाया और इसी का परिणाम हैं कि कश्मीर को आत्मनिर्णय का मसला विदेशी मीडिया में उछलने लगा। हालांकि अब साफ हो चुका है कि यह बात तथ्यों से परे है कि मुस्लिम बहुल इस क्षेत्र में धारा-370 के कारण ही अलगवादवाद पनप रहा है और इसे तुष्टिकरण नीति के कारण अनदेखा किया जाता है। इस अवधारणा का आधार ही झूठ पर टिका हुआ है। यहां जान लेना जरूरी है कि कश्मीर समस्या का हिंदू-मुस्लिम समस्या से कोई लेना-देना नहीं रहा है। धारा 370 के तहत, कोई भी गैर कश्मीरी, भले ही वह किसी भी जाति-धर्म का हो, जम्मू-कश्मीर राज्य में जमीन नहीं खरीद सकता है। वैसे इस राज्य में मुसलमानों के लगभग बराबर की हिंदुओं, सिखों और बौद्धों की भी जमीनें हैं, लेकिन वे सभी इसी राज्य के मूल निवासी हैं। और हां, यह विशेष स्थिति अकेले कश्मीर के लिए तो है नहीं! अनुच्छेद 371 के तहत किसी गैर हिमाचली को हिमाचल प्रदेश में जमीन खरीदने पर पाबंदी है। महाराष्ट्र में कृषि भूमि वही खरीद सकता है, जो किसान हो। गुजरात, मेघालय, नागालैंड, आसाम, मणिपुर, सिक्किम, आंध्र प्रदेश, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के साथ-साथ देश के कई आदिवासी बाहुल्य इलाकों में बाहरी लोगों द्वारा जमीन खरीदने पर पाबंदी है। याद करें, पंजाब में तो कोई धारा 370 नहीं है, इसके बावजूद वहां कोई डेढ़ दशक तक आतंकवाद रहा। हिमालय के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में कोई दो लाख बाइस हजार किलोमीटर में फैले जम्मू-कश्मीर राज्य की कश्मीर घाटी में चिनार जंगलों से अलगाववाद के सुर्ख फूल पनपते रहे हैं। 14वीं शताब्दी तक यहां बौद्ध और हिंदू शासक रहे। सन 632 में पैगंबर मुहम्मद के देहावसान के बाद मध्य एशिया में इस्लाम फैला, तभी से मुस्लिम व्यापारी कश्मीर में आने लगे थे। 13वीं सदी में लोहार वंश के अंतिम शासक सुहदेव ने मुस्लिम सूफी-संतों को अपने राज्य कश्मीर में प्रश्रय दिया। बुलबुलशाह ने पहली मस्जिद बनवाई। फकीरों, सूफीवाद से प्रभावित होकर कश्मीर में बड़ी आबादी ने इस्लाम अपनाया, लेकिन वह कट्टरपंथी कतई नहीं थे। इलाके के सभी प्रमुख मंदिरों में पुजारी व संरक्षक मुसलमान ही रहे हैं। 19वीं सदी के प्रारंभ में यहां सिखों का शासन रहा और फिर आजादी तक डोगरा शासक मुस्लिम बहुल वाले कश्मीर में लोकप्रिय शासक रहे। कश्मीर में कट्टरपंथी तत्व सन् 1942 में उभरे, जब पीर सईउद्दीन ने जम्मू-कश्मीर में जमात-ए-इस्लाम का गठन किया। इस पार्टी की धारा-3 में स्पष्ट था कि वह पारंपरिक मिश्रित संस्कृति को नष्ट कर इस्लामी संस्कृति की नींव डालना चाहता था। सन् 1947 में अनमने मन से द्विराष्ट्र के सिद्धांत को स्वीकारते हुए भारत आजाद हुआ। उस समय देश की 562 देसी रियासतें थीं। हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर अधिकांश रियासतों का भारत में विलय सहजता से हो गया। यह प्रामाणिक तथ्य है कि लार्ड माउंटबैटन ने कश्मीर के राजा हरीसिंह को पाकिस्तान में मिलने के लिए दबाव डाला था। राजा हरीसिंह इसके लिए तैयार नहीं थे। 22 अक्टूबर, 1949 को अफगान और बलूच कबाइलियों ने पाकिस्तान के सहयोग से कश्मीर पर हमला कर दिया। भारत ने विलय की शर्त पर कश्मीर के राजा को सहयोग दिया। भारतीय फौजों ने कबाइलियों को बाहर खदेड़ दिया। इस प्रकार 1948 में कश्मीर का भारत में विलय हुआ। भारत और पाकिस्तान का निर्माण ही एक दूसरे के प्रति नफरत से हुआ है। अत: तभी से दोनों देशों की अंतरराष्ट्रीय सीमा के निर्धारण के नाम पर कश्मीर को सुलगाया जाता रहा है। उसी समय कश्मीर को बाहरी पूंजीपतियों से बचाने के लिए कश्मीर को विशेष दर्जा धारा 370 के अंतर्गत दिया गया। तब से धारा 370 (केवल कश्मीर में) का विरोध एक सियासती पार्टी के लिए ईंधन का काम करता रहा है। आतंकवाद एक अंतरराष्ट्रीय त्रासदी है। कश्मीर में सक्रिय कतिपय अलगाववादी ऐसी ही अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सदस्य हैं। उनका कश्मीर में इस्लाम से उतना ही सरोकार है, जितना धारा 370 की सियासत करने वालों का हिंदुत्व से। समाज का एक वर्ग समझता है कि कश्मीर में गोली और लाठी के भय से राष्ट्रद्रोही तत्वों को कुचलना ही मौजूदा समस्या का निदान है। वह यह कुप्रचार करता है कि केवल धार्मिक कट्टरता ही वहां भारत विरोधी जन-उन्मेष का मुख्य कारण है। हालात चाहे जितने भी बद्तर रहे हों, लेकिन समस्या को भारत के लोग एक राजनीतिक या पाकिस्तान-प्रोत्साहित समस्या ही समझते रहे हैं। संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी पर जब सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मुहर लगाई थी, तभी से एक बड़ा वर्ग, जिसमें कुछ कानून के जानकार भी शामिल थे, दो बातों के लिए माहौल बनाते रहे थे- एक अफजल को फांसी जरूर हो, हां वे कभी भी उसे बचाना नहीं चाहते थे। दूसरा उसके बाद, फांसी की प्रक्रिया में कभी कानून का पालन न करने तो कभी कश्मीर की अशांति की दुहाई दे कर मामले को देशव्यापी बनाया जाए। याद करें अभी दो साल पहले ही अमेरिका की अदालत ने एक ऐसे पाकिस्तान मूल के अमेरिकी नागरिक को सजा सुनाई थी, जो अमेरिका में कश्मीर के नाम पर लॉबिग करने के लिए फंडिंग करता था और उसके नेटवर्क में कई भारतीय भी शामिल थे। जान कर आश्चर्य होगा कि उनमें कई एक हिंदू हैं। प्रशांत भूषण का बयान लोग भूले नहीं हैं, जिसमें उन्हें कश्मीर में रायशुमारी के आधार पर भारत से अलग होने का समर्थन किया था। जब अफजल गुरु को कानूनी मदद की जरूरत थी, तब उसके लिए सहानुभूति दिखाने वाले किताब लिख रहे थे, अखबारों में प्रचार कर रहे थे और जिन एनजीओ से संबद्ध हैं, उसके लिए फंड जमा कर रहे थे। जबकि उन्हें मालूम था कि अफजल की कानूनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी जा सकती थी, न कि अखबारी लेख से। पाकिस्तान परस्त कतिपय संगठनों ने इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों में लड़कों को जुटाकर जो अभियान शुरू किया था, उसका अगला पड़ाव था अफजल की फंासी के बाद दिल्ली, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, लखनऊ व कई अन्य जगहों पर केपीटल पनिशमेंट की खिलाफत के नाम पर इसे मानवाधिकार का मसला बनाए रखना। विडंबना है कि ऐसे शिगूफे वे छोड़ रहे हैं, जो लाल झंडे लेकर सर्वहारा वर्ग की बात करते हैं। यदि सत्र न्यायालय से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक सात न्यायाधीशों ने पूरे मामले को देखा, सुना है फिर गृह मंत्रालय और उसके बाद राष्ट्रपति ने उसका आकलन किया और उसमें पाया कि अफजल गुरु अपराधी है और वह सजा का हकदार है, ऐसे में केवल सड़क पर नारे उछालने का औचित्य समझ नहीं आता है। लेकिन जेएनयू या जाधवपुर में हुई हरकतों की प्रतिक्रिया में अलगाववादियों को अलग-थलग कर कार्यवाही करना कारगर होगा। यदि किसी बड़े समूह, राजनीतिक दल या संस्थान के सभी लोगों के साथ उन्हें जोड़ कर महज राजनीतिक माइलेज लेने का प्रयास होगा तो यह अलगाववादियों के हाथ मजबूत करने का ही कदम होगा।
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