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गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

organic agriculture is only way to save indian farmers

दैनिकजागरण25.2.16
खेतों को जहर बनने से रोकता पारंपरिक खेती का हुनर
पंकज चतुर्वेदी

मध्यप्रदेष का निमाड़ अंचल मिर्ची की खेती के लिए मषहूर है। पिछले साल वहां कई हजार एकड़ की फसल कीड़ा लगने के कारण नश्ट हुई, लेकिन कुछ खेत ऐसे भी थे, जहां बेहतरीन फसल उगी। पता चला कि उन खेतों के किसानों ने किसी तरह का रासायनिक खाद या कीटनाषक का इस्तेमाल नहीं किया था।  वे खेतों मे दूध, हल्दी और गुड़ का छिड़काव करते थे। हर सुबह खेतों के बीच खड़े हो कर घंटी बजाते थे। राज्य के कृशि विभाग के अफसर भी वहां गए और पुश्टि हुई कि किसानों की देषज, पारंपरिक तरकीब काम कर रही है। एक बात और कि फसल की मात्रा भी कम नहीं हुई। भारतीय कृशि के पारंपरिक ज्ञान में कई ऐसे नुस्खे हैं जिन्हे अपनाने से ना केवल खेती की लागत कम होती है, बल्कि फसल मात्रा व ग्रुणवत्ता में भी बेहतर होती है। विडंबना है कि हरित क्रांति के नारे में फंस कर हमारा किसान रासायनिक दवा और खाद के फेर में फंस गया और इसी की परिणति है कि आज किसान कर्ज  में दब कर हताष-परेषान है।
हमारे खेत किस तरह जहरीले बन गए है। उसकी बानगी है दिल्ली से सटे पष्चिम उत्तर प्रदेष के कुछ इलाके। वैसे तो नोएडा की पहचान एक उभरते हुए विकसित इलाके के तौर पर है लेकिन यहां के कई गांव वहां रच-बस चुकी कैंसर की बीमारी के कारण जाने जाते हैं। अच्छेजा गांव में बीते पांच साल में दस लोग इस असाध्य बीमारी से असामयिक काल के गाल में समा चुके हैं। अब अच्छेजा व ऐसे ही कई गांवों में लोग अपना रोटी-बेटी का नाता भी नहीं रखते हैं। दिल्ली से सटे पश्चिम उत्तर प्रदेश का दोआब इलाका, गंगा-यमुना नउी द्वारा सदियों से बहा कर लाई मिट्टी से विकसित हुआ था। यहां की मिट्टी इतनी उपजाऊ थी कि पूरे देश का पेट भरने लायक अन्न उगाने की क्षमता थी इसमें। अब प्रकृति इंसान की जरूरत तो पूरा कर सकती है, लेकिन लालच को नहीं । और  ज्यादा फसल के लालच में यहां अंधाधुंध खाद व कीटनाशकों का जो प्रयोग शुरू हुआ कि अब यहां पाताल से, नदी, से जोहड़ से, खेत से, हवा से  हवा-पानी नहीं मौत बरसती हैं। बागपत से लेकर ग्रेटर नोएडा तक के कोई 160 गंावों में हर साल सैंकड़ों लोग कैंसर से मर रहे हैं। सबसे ज्यादा लेागों को लीवर व आंत का कैंसर हुआ हे। बाल उड़ना, किडनी खराब होना, भूख कम लगना, जैसे रोग तो यहां  हर घर में हैं। सरकार कुछ कर रही है, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण भी कुछ नोटिस दे रहा है, लेकिन इलाके में खेतों में छिड़कने वाले जहर की बिक्री की मात्रा हर दिन बढ़ रही है।  दुखद है कि अब नदियों के किनारे ‘विष-मानव’ पनप रहे हैं जो कथित विकास की कीमत चुकाते हुए असमय काल के गाल में समा रहे हैं। हमारे देश में हर साल कोई दस हजार करोड़ रूपए के कृषि-उत्पाद खेत या भंडार-गृहों में कीट-कीड़ों के कारण नष्ट हो जाते हैं । इस बर्बादी से बचने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा हैं । जहां सन 1950 में इसकी खपत 2000 टन थी, आज कोई 90 हजार टन जहरीली दवाएं देश के पर्यावरण में घुल-मिल रही हैं । इसका कोई एक तिहाई हिस्सा विभिन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अंतर्गन छिड़का जा रहा हैं ।  सन 1960-61 में केवल 6.4 लाख हेक्टर खेत में कीटनाशकों का छिड़काव होता था। 1988-89 में यह रकबा बढ़ कर 80 लाख हो गया और आज इसके कोई डेढ़ करोड़ हेक्टर होने की संभावना है। ये कीटनाशक जाने-अनजाने में पानी, मिट्टी, हवा, जन-स्वास्थ्य और जैव विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। इपले अंधाधुंध इस्तेमाल से पारिस्थितक संतुलन बिगड़ रहा है, सो अनेक कीट व्याधियां फिर से सिर उठा रही हैं। कई कीटनाशियों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ गई है और वे दवाओं को हजम कर रहे हैं। इसका असर खाद्य श्रंखला पर पड़ रहा है और उनमें दवाओं व रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर पर आ गई है। एक बात और, इस्तेमाल की जा रही दवाईयों का महज 10 से 15 फीसदी ही असरकारक होता है, बकाया जहर मिट्टी, भूगर्भ जल, नदी-नालों का हिस्सा बन जाता है। यह दुर्दषा अकेले नोएडा की नहीं, बल्कि देष के अधिकांष खेतों की हो गई है।
 महंगी व नकली के डर से बिकने वाली रासायनिक खादों के विकल्प की ही बात करें तो पुष्तैनी तालाब इस मामले में ‘‘एक पंथ पदो काज’’ हैं। हमारी सरकारें बजट का रोना रोती हैं कि पारंपरिक जल संसाधनों की सफाई के लिए बजट का टोटा है। हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नही है ,ना ही इसके लिए भारीभरकम मषीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ठ पदार्थो के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चैपट किया है? यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देषी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे वे सहर्ष राजी हो जाते हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्थान के झालावाड़ जिले में ‘‘खेतों मे पालिश करने’’ के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय रहा है । कर्नाटक में समाज के सहयोग से ऐसे कोई 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई, यानी ढुलाई करने वाले ने इस बेषकीमती खाद को बेच कर पैसा कमाया। इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक मिलता है, साथ ही साथ तालाबों के रखरखाव से उनकी सिंचाई सुविधा भी बढ़ती है। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और अपनी पंरपरा तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो ना तो तालाबों में गाद बचेगी ना ही सरकारी अमलों में घूसखोरी की कीच होगी।
बस्तर का कोंडागांव केवल नक्सली प्रभाव वाले क्षेत्र के तौर पर ही सुर्खियों में रहता है, लेकिन यहां डा. राजाराम त्रिपाठी के जड़ीबूटियों के जंगल इस बात की बानगी हैं कि सूखी पत्तियां कितने कमाल की हैं। डा. त्रिपाठी काली मिर्च से लेकर  सफेद मूसली तक उत्पादन करते हैं व पूरी प्रक्रिया में में किसी भी किस्म की रासायनिक खाद, दवा या अन्य तत्व इस्तेमाल नहीं करते हैं। गर्मियों के दिनों में उनके कई एकड़ में फैले जंगलों में साल व अन्य पेड़ों की पत्तियों पट जाती हैं। बीस दिन के भीतर ही वहां मिट्टी की परत होती है। असल में उनके ंजगलों में दीमक को भी जीने का अवसर मिला है और ये दीमक इन पत्तियों को उस ‘‘टाप साॅईल’’ में बदल देती हैं जिसका एक सेंटीमीटर उपजाने में प्रकृति को सदियों का समय लग जाती है।
कुछ साल पहले थियोसोफीकल सोसायटी, चैन्नई में कोई पचास से अधिक आम के पेड़ रोगग्रस्त हो गए थे । आधुनिक कृषि-डाक्टरों को कुछ समझ नहीं आ रहा था । तभी समय की आंधी में कहीं गुम हो गया सदियों पुराना ‘‘वृक्षायुर्वेद’’ का ज्ञान काम आया । सेंटर फार इंडियन नालेज सिस्टम (सीआईकेएस) की देखरेख में नीम और कुछ दूसरी जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल किया गया । देखते ही देखते बीमार पेड़ों में एक बार फिर हरियाली छा गई । ठीक इसी तरह चैन्नई के स्टेला मेरी कालेज में बाटनी के छात्रों ने जब गुलमेंहदी के पेड़ में ‘‘वृक्षायुर्वेद’’ में सुझाए गए नुस्खों का प्रयोग किया तो पता चला कि पेड़ में ना सिर्फ फूलों के घने गुच्छे लगे , बल्कि उनका आकार भी पहले से बहुत बड़ा था । वृक्षायुर्वेद के रचयिता सुरपाल कोई एक हजार साल पहले दक्षिण भारत के शासक भीमपाल के राज दरबारी थे । वे वैद्ध के साथ-साथ अच्छे कवि भी थे । तभी चिकित्सा सरीखे गूढ़ विषय पर लिखे गए उनके ग्रंथ वृक्षायुर्वेद को समझने में आम ग्रामीण को भी कोई दिक्कत नहीं आती है ।उनका मानना था कि जवानी,आकर्षक व्यक्तित्व, खूबसूरत स्त्री,बुद्धिमान मित्र, कर्णप्रिय संगीत, सभी कुछ एक राजा के लिए अर्थहीन हैं, यदि उसके यहां चित्ताकर्षक बगीचे नहीं हैं । सुरपाल के कई नुस्खे अजीब हैं -जैसे, अशोक के पेड़ को यदि कोई महिला पैर से ठोकर मारे तो वह अच्छी तरह फलता-फूलता है , या यदि कोई सुंदर महिला मकरंद के पेड़ को नाखुनों से नोच ले तो वह कलियों से लद जाता है । सुरपाल के कई नुस्खेे आसानी से उपलब्ध जड़ी-बूटियों पर आधारित हैं । महाराष्ट्र में धोबी कपड़े पर निशान लगाने के लिए जिस जड़ी का इस्तेमाल करते हैं, उसे वृक्षायुर्वेद में असरदार कीटनाशक निरुपित किया गया है । भल्लाटका यानि सेमीकार्पस एनाकार्डियम का छोटा सा टुकड़ा यदि भंडार गृह में रख दिया जाए तो अनाज में कीड़े नहीं लगते हैं और अब इस साधारण सी जड़ी के उपयोग से केंसर सरीखी बीमारियों के इलाज की संभावनाओं पर शोध चल रहे हैं ।
पंचामृत यानि गाय के पांच उत्पाद- दूध,दही,घी,गोबर और गौमू़़़त्र के उपयोग से पेड़-पौधों के कई रोग जड़ से दूर किए जा सकते हैं ।‘ वृक्षायुर्वेद ’ में दी गई इस सलाह को वैज्ञानिक रामचंद्र रेड्डी और एएल सिद्धारामैय्या ने आजमाया । टमाटर के मुरझाने और केले के पनामा रोग में पंचामृत की सस्ती दवा ने सटीक असर किया । इस परीक्षण के लिए टमाटर की पूसा-रूबी किस्म को लिया गया सुरपाल के सुझाए गए नुस्खे में थोड़ा सा संशोधन कर उसमें यीस्ट और नमक भी मिला दिया गया । दो प्रतिशत घी, पांच प्रतिशत दही और दूध, 48 फीसदी ताजा गोबर, 40 प्रतिशत गौ मूत्र के साथ-साथ 0.25 ग्राम नमक और इतना ही यीस्ट मिलाया गया । ठीक यही फार्मूला केले के पेड़ के साथ भी आजमाया गया, जो कारगर रहा ।
सीआईकेएस में बीते कई सालों से  वृक्षायुर्वेद और ऐसे ही पुराने ग्रंथों पर शोध चल रहे हैं । यहंा बीजों के संकलन, चयन, और उन्हें सहेज कर रखने से ले कर पौधों को रोपने, सिंचाई, बीमारियों से मुक्ति आदि की सरल पारंपरिक प्रक्रियाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए आधुनिक डिगरियों से लैस कई वैज्ञानिक प्रयासरत हैं । पशु आयुर्वेद, सारंगधर कृत उपवन विनोद और वराह मिरीह की वृहत्त्त संहिता में सुझाए गए चमत्कारी नुस्खों पर भी यहां काम चल रहा है ।
खेती-किसानी के ऐसे ही कई हैरत अंगेज नुस्खे भारत के गांव-गांव में पुराने, बेकार या महज भावनात्मक साहित्य के रूप में बेकार पड़े हुए हैं । ये हमारे समृद्ध हरित अतीत का प्रमाण तो हैं ही, प्रासंगिक और कारगर भी हैं । अब यह बात सारी दुनिया मान रही है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान के इस्तेमाल से कृषि की लागत घटाई जा सकती है । यह खेती का सुरक्षित तरीका भी है, साथ ही इससे उत्पादन भी बढ़ेगा ।

पंकज चतुर्वेदी
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