जरा सोचें हम कितना पानी बर्बाद कर रहे है
गरमी
कुछ समय से पहले आ गई और बीती बरसात में अल्प वर्षा से आहत देश के कोई 360
जिलों में अभी से पानी की मारामारी शुरू हो गई है। यह देष के लिए अब तीन
साल में एक बार के नियमित हालात हो गए है। तपती गर्मी के बाद जब आसमान पर
बादल छाते हैं तो क्या इंसान और क्या पशु-पक्षी, सभी सुकुन की सांस लेते
हैं। पेड़- पौधों को भी उम्मीद बंधती है। हालांकि बरसते बादल कहीं रौद्र रूप
दिखाते हैं तो कहीं रूठ जाते हैं। बाढ़ और सूखा प्रकृति के दो पहलू हैं,
बिल्कुल धूप और छांव की तरह,। लेकिन बारिष बीतते ही देशभर में पानी की
त्राहि-त्राहि की खबरें आने लगती हैं। कहीं पीने को पानी नहीं है तो कहीं
खेत को। लेकिन क्या हमने कभी यह जानने की कोशिश की है कि बारिश का इतना
सारा पानी आखिर जाता कहां है? इसका कुछ हिस्सा तो भाप बनकर उड़ जाता है और
कुछ समुद्र में चला जाता है। कभी सोचा आपने कि यदि इस पानी को अभी सहेजकर न
रखा गया तो भविष्य में क्या होगा और कैसे पूरी होगी हमारी पानी की
आवश्यकता। दुनिया के 1.4 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल पा रहा
है। हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र
के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है।
इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना।
प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते
हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है। पानी के बारे में एक नहीं, कई
चौंकाने वाले तथ्य हैं जिसे जानकर लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा सा भी पानी
नहीं बचा है। कुछ तथ्य इस प्रकार हैं-मुंबई में रोज गाड़ियां धोने में ही
50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों
में पाइपलाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन
बेकार बह जाता है। पानी का स्रोत कही जाने वाली नदियों में बढ़ते प्रदूषण को
रोकने के लिए विशेषज्ञ उपाय खोजने में लगे हुए हैं, किंतु जब तक कानून में
सख्ती नहीं बरती जाएगाी तब तक अधिक से अधिक लोगों को दूषित पानी पीने को
विवश होना पड़ सकता है। पृथ्वी का विस्तार 51 करोड़ वर्ग किलोमीटर है। उसमें
से 36 करोड़ वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र पानी से घिरा हुआ है। दुर्भाग्य यह है
कि इसमें से पीने लायक पानी का क्षेत्र बहुत कम है। 97 प्रतिशत भाग तो
समुद्र है। बाकी के तीन प्रतिशत हिस्से में मौजूद पानी में से 2 प्रतिशत
पर्वत और ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा हुआ है, जिसका कोई उपयोग नहीं
होता है। यदि इसमें से करीब 6 करोड़ घन किलोमीटर बर्फ पिघल जाए तो हमारे
महासागारों का तल 80 मीटर बढ़ जाएगाा, किंतु फिलहाल यह संभव नहीं। पृथ्वी से
अलग यदि चंद्रमा की बात करें तो वहां के ध्रुवीय प्रदेशों में 30 करोड़ टन
पानी का अनुमान है। सबसे बड़ा झटका जल क्षेत्र के निजीकरण का है। जब भारत
में बिजली के क्षेत्र को निजीकरण के लिए खोला गया तब कोई बहस नहीं हुई। बड़े
पैमाने पर बिजली गुल होने का डर दिखाकर निजीकरण को आगे बढ़ाया गया जिसका
नतीजा आज सबके सामने है। सरकारी तौर पर भी यह स्वीकार किया जा चुका है कि
सुधार औंधे मुंह गिरे हैं और राष्ट्र को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अब
पानी के क्षेत्र में ऐसी ही निजीकरण की बात हो रही है। इस मुद्दे पर चुप
बैठना अब ठीक नहीं। किसी भी बड़े निर्णय के पहले इस मुद्दे पर व्यापक बहस
होनी चाहिए। समय आ गया है जब हम वर्षा का पानी अधिक से अधिक बचाने की कोशिश
करें, क्योंकि बारिश की एक-एक बूंद कीमती है। इन्हें सहेजना बहुत ही जरूरी
है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया तो संभव है पानी केवल हमारी आंखों में ही
बच पाए। हमारा देश वह है जिसकी गोदी में हजारों नदियां खेलती थीं, आज वे
नदियां हजारों में से केवल सैकड़ों में रह गई हैं। आखिर कहां गई ये नदियां
कोई नहीं बता सकता। नदियों की बात छोड़ें, हमारे गांव- मोहल्लों तक से तालाब
गायब हो रहे हैं। ऐसे में यह कैसे सोचा जाए कि हममें पानी बचाने की
प्रवृत्ति जागेगी। यदि स्थिति में सुधार नहीं आता है तो भले ही हमने बहुतों
को पानी पिलाया होगा पर भविष्य में पानी हमें रुला सकता है। वह दिन दूर
नहीं जब यह सब हमारी आंखों के सामने ही होगाा और हम कुछ नहीं कर पाएंगे। यह
हमारी विवशता का सबसे क्रूर दिन होगा। कामना तो यही है कि इंसान को ऐसा
दिन कभी नहीं देखना पड़ा, लेकिन सवाल है कि इस हम मनुष्य कब सोचेंगे कि
मौजदू पानी को हम व्यर्थ नष्ट न करें और जल संचयन पर विशेष ध्यान दें। आज
पानी की बरबादी को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि धीमे कदमों से एक भयानक
विपदा हमारे पास आ रही है।
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