उपज की कीमत बनाम मुआवजा
क्या अजीब विरोधाभास है कि एक तरफ किसान फसल नष्ट होने पर
मर रहा है तो दूसरी ओर अच्छी फसल होने पर भी उसे मौत को गले लगाना पड़ रहा
है।
देश का बड़ा
हिस्सा सूखे की चपेट में है। बुंदेलखंड, मराठवाड़ा जैसे इलाकों में न जाने कितने किसान इस सदमे
से खुदकुशी कर चुके हैं कि उनकी
महीनों की दिन-रात की मेहनत के बाद भी अब वे कर्ज उतार नहीं पाएंगे, उन्हें कहीं से कोई भरोसा नहीं
मिला कि इस विपदा की घड़ी में समाज या सरकार उनके साथ है। अलग-अलग राज्यों व सरकारों ने
कई हजार करोड़ की राहत की घोषणाएं, नेताओं के वायदे, अखबारों में छप रहे बड़े-बड़े
इश्तहार किसान को आश्वस्त नहीं कर पा रहे हैं कि वह
अगली फसल उगाने को अपने पैरों पर खड़ा हो पाएगा।
मध्यप्रदेश
के धार जिले के अमझेरा के किसानों को जब टमाटर के सही दाम नहीं मिले तो उन्होंने इस बार
टमाटर से ही रंगपंचमी मना ली। सनद रहे, मालवा अंचल में होली पर रंग नहीं खेला जाता, रंगपंचमी पर ही अबीर-गुलाल उड़ता
है। मंडी में टमाटर की एक क्रैट यानी
लगभग पच्चीस किलो के महज पचास रुपए मिल रहे थे, जबकि फसल को मंडी तक लाने का किराया प्रति क्रैट
पच्चीस रुपए, तुड़ाई दस रुपए, हम्माली पांच रुपए व दीगर खर्च
मिला कर कुल अड़तालीस रुपए का खर्च आ रहा था। अब दो रुपए के लिए वे क्या दिन भर
मंडी में खपाते। यही हाल गुजरात के
साबरकांठा जिले के टमाटर उत्पादक गांवों ईडर, वडाली, हिम्मतनगर आदि का है। जब किसानों ने टमाटर बोए थे तब उसके दाम
तीन सौ रुपए प्रति बीस किलो थे।
लेकिन पिछले पखवाड़े जब उनकी फसल आई तो मंडी में इसके तीस रुपए देने वाले भी नहीं थे। थक-हार कर
किसानों ने फसल मवेशियों को खिला दी।
गुजरात में
गांवों तक अच्छी सड़क है, मंडी में भी पारदर्शिता है, लेकिन किसान को उसकी लागत का दाम भी
नहीं। जिन इलाकों में टमाटर का यह हाल हुआ, वे भीषण गर्मी की चपेट में आए हैं और वहां कोल्ड
स्टोरेज की सुविधा है नहीं, सो फसल सड़े इससे बेहतर उसको मुफ्त
में ही लोगों के बीच डाल दिया गया। सनद रहे, इस समय दिल्ली एनसीआर में टमाटर के दाम चालीस रुपए
किलो से कम नहीं हैं। यदि ये दाम और बढ़े तो सारा
मीडिया व प्रशासन इसकी चिंता करने लगेगा, लेकिन किसान की चार महीने की मेहनत व लागत मिट्टी में
मिल गई तो कहीं चर्चा तक नहीं हुई।
बुंदेलखंड व
मराठवाड़ा-विदर्भ में किसान इसलिए आत्म हत्या कर रहा है कि पानी की कमी के कारण उसके खेत में
कुछ उगा नहीं, लेकिन इन स्थानों से कुछ सौ किलोमीटर दूर ही मध्यप्रदेश के
मालवा-निमाड़ के किसान की दिक्कत उसकी बंपर फसल है। भोपाल की करोद मंडी में इस समय प्याज का
दाम महज दो सौ से छह सौ रुपए
क्विंटल है। आढ़तिये मात्र दो-तीन रुपए किलो के लाभ पर माल दिल्ली बेच रहे हैं। यहां हर दिन कोई पंद्रह
सौ क्विंटल प्याज आ रहा है। गोदाम वाले प्याज गीला होने के कारण उसे रखने को तैयार नहीं
हैं, जबकि जबर्दस्त फसल होने के कारण मंडी में इतना
माल है कि किसान को उसकी लागत भी नहीं निकल रही है। याद करें यह वही प्याज है जो पिछले साल सौ
रुपए किलो तक बिका था। आज के हालात
ये हैं कि किसान का प्याज उसके घर-खेत पर ही सड़ रहा है।
कैसी
विडंबना है कि किसान अपनी खून-पसीने से कमाई-उगाई फसल लेकर मंडी पहुंचता है तो उसके ढेर सारे सपने
और उम्मीदें अचानक ढह जाते हैं। कहां तो सपने देखे थे समृद्धि के, यहां तो खेत से मंडी तक की ढुलाई
निकालना भी मुश्किल दिख रहा था। असल में यह
किसान के शोषण, सरकारी कुप्रबंधन और दूरस्थ अंचलों में गोदाम की सुविधा या
सूचना न होने का मिला-जुला कुचक्र है, जिसे जान-बूझ कर नजरअंदाज किया जाता है। अभी छह महीने पहले पश्चिम बंगाल में यही हाल आलू के किसानों का हुआ था
व हालात से हार कर बारह आलू किसानों ने आत्महत्या का मार्ग चुना था।
क्या अजीब
विरोधाभास है कि एक तरफ किसान फसल नष्ट होने पर मर रहा है तो दूसरी ओर अच्छी फसल होने पर भी उसे
मौत को गले लगाना पड़ रहा है। दोनों ही मसलों में मांग केवल मुआवजे की, राहत की है। जबकि यह देश के हर
किसान की शिकायत है कि गिरदावरी यानी नुकसान
के जायजे का गणित ही गलत है। और यही कारण है कि किसान जब कहता है कि उसकी पूरी फसल चौपट
हो गई तो सरकारी रिकार्ड में उसकी हानि सोलह से बीस
फीसद दर्ज होती है और कुछ दिनों बाद उसे बीस रुपए से लेकर दौ सौ रुपए तक के चैक बतौर मुआवजे
मिलते हैं। सरकार प्रति हेक्टेयर दस हजार मुआवजा
देने के विज्ञापन छपवा रही है, जबकि यह तभी मिलता है जब नुकसान सौ टका हो और
गांव के पटवारी को ऐसा नुकसान दिखता नहीं है। यही नहीं, मुआवजा मिलने की गति इतनी सुस्त होती है कि राशि
आते-आते वह खुदकुशी के लिए मजबूर हो जाता है।
काश, कोई किसान को फसल की वाजिब कीमत का भरोसा दिला पाता तो उसे जान न देनी
पड़ती।
नुकसान का
आकलन होगा, फिर मुआवजा राशि आएगी, फिर बंटेगी, जूते में दाल की तरह। तब तक अगली फसल बोने का
वक्त निकल जाएगा, किसान या तो खेती बंद कर देगा या फिर साहूकार के जाल में
फंसेगा। हर गांव का पटवारी इस सूचना से लैस होता है कि किस किसान ने इस बार कितने एकड़ में क्या
फसल बोई थी। होना तो यह चाहिए कि
जमीनी सर्वे के बनिस्बत किसान की खड़ी-अधखड़ी-बर्बाद फसल पर सरकार को कब्जा लेना चाहिए तथा
उसके रिकार्ड में दर्ज बुवाई के आंकड़ों के मुताबिक तत्काल न्यूनतम खरीदी मूल्य यानी एमएसपी के
अनुसार पैसा किसान के खाते में
डाल देना चाहिए। इसके बाद गांवों में मनरेगा में दर्ज मजदूरों की मदद से फसल कटाई करवा कर जो भी
मिले उसे सरकारी खजाने में डालना चाहिए। जब तक प्राकृतिक विपदा की हालत में किसान आश्वस्त नहीं
होगा कि उसकी मेहनत, लागत का पूरा दाम उसे मिलेगा ही, खेती को फायदे का व्यवसाय बनाना
संभव नहीं होगा।
एक तरफ जहां
किसान प्राकृतिक आपदा में अपनी मेहनत व पूंजी गंवाता है तो दूसरी तरफ यह भी डरावना सच है कि
हमारे देश में हर साल कोई पचहत्तर हजार करोड़ के फल-सब्जी, माकूल भंडारण के अभाव में नष्ट हो जाते हैं। आज हमारे देश में कोई तिरसठ सौ कोल्ड स्टोरज
हैं जिनकी क्षमता 3011 लाख मीट्रिक टन की है। जबकि हमारी जरूरत 6100 मीट्रिक टन क्षमता के कोल्ड
स्टोरेज की है। मोटा अनुमान है कि इसके लिए लगभग
पचपन हजार करोड़ रुपए की जरूरत है। जबकि इससे एक करोड़ बीस लाख किसानों को अपने उत्पाद के ठीक
दाम मिलने की गारंटी मिलेगी।
वैसे जरूरत के मुताबिक कोल्ड स्टोरेज बनाने का व्यय सालाना हो रहे नुकसान से भी कम है।
चाहे आलू हो
या मिर्च या ऐसी ही फसल, इनकी खासियत है कि इन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। टमाटर, अंगूर आदि का प्रसंस्करण कर वे पर्याप्त लाभ देते हैं। सरकार
मंडियों से कर वूसलने में तो आगे रहती है, लेकिन गोदाम या कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने की उनकी
जिम्मेदारियों पर चुप रहती हे।
यही तो उनके द्वारा किसान के शोषण का हथियार भी बनता है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में लगे कोई
चौंसठ फीसद लोगों के पसीने से पैदा होता है। पर देश
की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को
लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा
है।
पूरी तरह
प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की कीमत पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। फसल
बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा- कभी नकली दवा
या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों। किसान
जब ‘कैश क्रॉप’ यानी फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचौलियों
के हाथों उसे लुटना पड़ता है। पिछले साल उत्तर प्रदेश में 88 लाख मीट्रिक टन आलू हुआ था तो आधे साल में ही मध्य भारत में आलू के दाम बढ़ गए थे। इस
बार किसानों ने उत्पादन बढ़ा दिया। अनुमान है कि इस बार 125 मीट्रिक टन आलू पैदा हो रहा है। कोल्ड स्टोरेज की
क्षमता बमुश्किल 97 लाख मीट्रिक टन की है। जाहिर है कि
आलू या तो सस्ते-मंदे दामों में
बिकेगा या फिर किसान उसे खेत में ही सड़ा देगा। आखिर आलू उखाड़ने, मंडी तक ले जाने के दाम भी तो
निकलने चाहिए।
देश में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद
खरीदी, बिचौलियों
की भूमिका, किसान
को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे गौण दिखते हैं। सब्जी, फल और
दूसरी नकदी फसलों को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम
दलहन, तिलहन
और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की हद तक
सामने आ रहे हैं। आज जरूरत इस बात की है कि कौन-सी फसल और कितनी उगाई जाए, पैदा
फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे, इसकी
नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या
गोदाम पर किसान का कब्जा हो, साथ ही प्रसंस्करण के कारखाने छोटी-छोटी जगहों पर
लगें। किसान को न तो कर्ज चाहिए और न ही बगैर मेहनत के कोई छूट या सबसिडी।
इससे बेहतर है कि उसके उत्पाद को उसके गांव में ही विपणन करने की
व्यवस्था और सुरक्षित भंडारण की स्थानीय व्यवस्था की जाए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें