पहाड़-पेड़-पानी सहेजे बगैर नहीं बचेगा बंुदेलखंड
पंकज चतुर्वेदी
बुंदेलखंड का कोई भी गांव-कस्बा ले लें, हर जगह पहाड़ों पर जमकर अतिक्रमण
हुआ। पहाड़ उजड़े तो उसकी हरियाली भी गई और इसके साथ ही पहाड़ पर गिरने वाली
पानी की बूंदों को संरक्षित करने का गणित भी गड़बड़ा गया। आधुनिकता की अंधी
आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी
राहत जैसे शब्दों ने ले ली। यदि बुंदेलखंड के विकास का मॉडल नए सिरे से
नहीं बनाया गया तो न तो सूरत बदलेगी और न ही सीरत...
लगातार तीसरे साल बेहद कम पानी बरसने से बंुदेलखंड बेहाल है। इस बार गरमी शुरू होने से बहुत पहले ही बुंदेलखंड में जल संकट, पलायन और बेबसी की खबरें हवा में तैरने लगी थीं। अब यहां के बाशिंदों को ही तय करना होगा कि वे कैसा बुंदेलखंड चाहते हैं। यह जान लें कि यहां पानी तो इतना ही बरसेगा, यह भी जान लें कि आधुनिक इंजीनियरिंग व तकनीक यहां कारगर नहीं है। बंुदेलखंड को बचाने का एकमात्र तरीका अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। बुंदेलखंड के सभी गांव, कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है- चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती। पहाड़ के पार घने जंगल व उसके बीच से बहती बरसाती या छोटी नदियां। आजादी के बाद यहां के पहाड़ बेहिसाब काटे गए, जंगलों का सफाया हुआ व पारंपरिक तालाबों को पाटने में किसी ने संकोच नहीं किया। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखंड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपनेआप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे-बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोनेे वाले नाबदान बन गए। बुंदेलखंड का कोई गांव-कस्बा ले लें, हर जगह पहाड़ों पर जमकर अतिक्रमण हुआ। छतरपुर में तो पहाड़ों पर दो लाख से ज्यादा आबादी बस गई। पहाड़ उजड़े तो उसकी हरियाली भी गई। और इसके साथ ही पहाड़ पर गिरने वाली पानी की बूंदों को संरक्षित करने का गणित भी गड़बड़ा गया। जो बड़े पहाड़ जंगलों में थे, उनको खनन माफिया चाट गया।
आज जहां पहाड़ होना था, वहां गहरी खाइयां हैं। पहाड़ की भूमि पर पेड़ खत्म हुए व ऊपरी परत नष्ट हुई तो बारिश के साथ वहां की मिट्टी का तालाबों में गिरना तेज हो गया। ऐसे में उसकी तली में सजे तालाबों में पानी कहां से आता? उनको रीत रहना ही था। इस तरह गांवों की अर्थव्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे बंुदेलखंड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां न तो कल-कारखाने हैं और न ही उद्योग-व्यापार। महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है। कभी बुंदेलखंड के 45 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज यह हरियाली सिमट कर 10 से 13 प्रतिशत रह गई है। छतरपुर सहित कई जिलों में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी भी दो सौ किलोमीटर दूर से मंगवानी पड़ रही है। यहां के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों सौर, कौंदर, कौल और गोंड़ो की यह जिम्मेदारी होती थी कि वे जंगल की हरियाली बरकरार रखें। ये आदिवासी वनोपज से जीवीकोपार्जन चलाते थे, सूखे गिरे पेड़ों को ईंधन के लिए बेचते थे। लेकिन आजादी के बाद जंगलों के स्वामी आदिवासी वनपुत्रों की हालत बंधुआ मजदूर से बद्तर हो गई। ठेकेदारों ने जमकर जंगल उजाड़े और सरकारी महकमों ने कागजों पर पेड़ लगाए। बुंदेलखंड में हर पांच साल में दो बार अल्पवर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। फिर भी जल, जंगल, जमीन पर समाज की साझी भागीदारी के चलते बुंदेलखंडी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे।इलाके के गांव-गांव में तालाब हैं, जहां की मछलियां कोलकाता के बाजार में आवाज लगा कर बिकती हैं। इस क्षेत्र के जंगलों में मिलने वाले अफरात तेंदू पत्ता को ग्रीन-गोल्ड कहा जाता है। आंवला, हर्र जैसे उत्पादों से जंगल लदे हुए हैं। लेकिन जब जंगल व तालाब नहीं तो यह समृद्धि भी नदारद हो गई। बुंदेलखंड की असली समस्या अल्पवर्षा नहीं है, वहां तो यहां सदियों, पीढि़यों से यही होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है- अफसरों, नेताओं... सभी को।
यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजरअंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं, बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पहाड़ कटने से रोकना, पारंपरिक बिरादरी के पेड़ों वाले जंगलों को सहेजना, पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना, महज ये पांच उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।पलायन, यहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है। मनरेगा भी यहां कारगर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का शोषण रोककर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यह क्षेत्र जल संकट से निबटने के लिए तो स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं। विशेषकर यहां के पारंपरिक जल स्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए। यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाए तो बुंदेलखंड का गला कभी रीता नहीं रहेगा।यदि बंुदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्पत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हट कर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थाई संगठन बनाने होंगे। इलाके के पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बहकर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहंुचाने के लिए उसके रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं, जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध बनाकर या नदियों को पारंपरिक तालाबों से जोड़कर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रुपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बंुदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी। अब चाहे राज्य अलग बने या नहीं, यदि बुंदेलखंड के विकास का मॉडल नए सिरे से नहीं बनाया गया तो न तो सूरत बदलेगी और न ही सीरत।
श्चष्७००१०१०ञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व
= पंकज चतुर्वेदी
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