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शनिवार, 21 मई 2016

Conservation of traditional water resources are only solution to water equation

जल संकट से मुक्ति का यज्ञ

परंपरागत जल स्रोतों को सहेजने-संवारने को अनिवार्य आवश्यकता बता रहे हैं 

पंकज चतुर्वेदी

बढती आबादी, जल की जरुरत में इजाफा और जलवायु परिवर्तन के अबूझ खेल के सामने लोक विज्ञान की जल संरक्षण नीतियों की शरण में जाना ही एकमात्र निदान है 13


देश में इस समय गरमी तो चरम पर है ही, सूखे की त्रसदी भी विकट रूप से सामने आ रही है। ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी कुछ गांव-मजरे ऐसे भी हैं जो रेगिस्तान में ‘नखलिस्तान’ की तरह जल संकट से निरापद हैं। असल में यहां के लोग पानी जैसी बुनियादी जरुरत के लिए सरकार पर निर्भरता और प्रकृति को कोसने की आदत से मुक्त हैं। इन लोगों ने आज की इंजीनियरिंग और डिग्रीधारी ज्ञान के बजाय पूर्वजों के देशज ज्ञान पर ज्यादा भरोसा किया। हमें यह जानना चाहिए कि वैदिक काल से लेकर वर्तमान तक विभिन्न कालखंडों में समाज के द्वारा अपनी जरूरत के मुताबिक बनाई गई जल संरचनाओं और जल प्रणालियों के अस्तित्व के अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनमें तालाब सभी जगह मौजूद रहे हैं। रेगिस्तान में तो तालाबों को सागर की उपमा दे दी गई। ऋग्वेद में सिंचित खेती, कुओं और गहराई से पानी खींचने वाली प्रणालियों का उल्लेख मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी जल संरचनाओं के बारे में अनेक विवरण उपलब्ध हैं। इन विवरणों से पता चलता है कि तालाबों का निर्माण राज्य की जमीन पर होता था। स्थानीय लोग तालाब निर्माण की सामग्री जुटाते थे। असहयोग और तालाब को नुकसान पहुंचाने वालों पर राजा द्वारा जुर्माना लगाया जाता था। 1जो लेाग इस समय ताल-तलैयों, नदी-नालों को संवारने में लग गए हैं वे पानी की कमी से उत्पन्न होने वाली समस्याओं से मुक्ति का यज्ञ कर रहे हैं। आमतौर पर हमारी सरकारें बजट का रोना रोती हैं कि पारंपरिक जल संसाधनों की सफाई के लिए बजट का टोटा है। हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नही है। इसके लिए भारी-भरकम मशीनों की जरुरत भी नहीं होती। तालाबों की गादे सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थो की देन होती है। यह उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट किया है, यह किसान जान चुके हैं और अब उनका रुख कंपोस्ट एवं अन्य देशी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे सहर्ष राजी हो जाते हैं। राजस्थान के झालावाड़ जिले में ‘खेतों मे पालिश करने’ के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल और लोकप्रिय है। कर्नाटक में समाज के सहयोग से करीब 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई यानी ढुलाई करने वाले ने इस कीमती खाद को बेचकर पैसा कमाया। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो न तो तालाबों में गाद बचेगी और न ही सरकारी अमलों में घूसखोरी की कीच होगी। जल संकट से जूझ रहे समाज ने नदी को तालाब से जोड़ने, गहरे कुओं से तालाब भरने, पहाड़ पर नालियां बना कर उसका पानी तालाब में जुटाने जैसे अनगिनत प्रयाग किए हैं और प्रकृति के कोप पर विजय पाई है। यह जरूरी है कि लोग पारंपरिक जल संसाधनों-तालाब, बावड़ी, कुओं की सुधि लें। उनकी सफाई, मरम्मत का काम करें। ऐसा करते समय बस एक बात ख्याल करना होगा कि पारंपरिक जलस्रोतों को गहरा करने में भारी मशीनों के इस्तेमाल से परहेज ही करें। मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के अंधियारा तालाब की कहानी गौर करें। एक अर्सा पहले यहां सूखा राहत के तहत तालाब गहराई का काम हुआ। इंजीनियर साहब ने तालाब के बीचों-बीच खूब गहरी खुदाई करवा दी। जब पानी बरसा तो तालाब एक रात में ही लबालब हो गया, लेकिन अगली सुबह ही उसकी तली दिखने लगी। असल में बगैर सोचे-समङो की गई खुदाई में तालाब की वह ङिार टूट गई, जिसका संबंध सीधे इलाके की ग्रेनाईट भू संरचना से था। पानी आया और ङिार से बह गया। 1तालाब महज एक गड्ढा नहीं है, जिसमें बारिश का पानी जमा हो जाए और लोग इस्तेमाल करने लगें। तालाब कहां खुदेगा, इसको परखने के लिए वहां की मिट्टी, जमीन पर जल आगमन एवं निगमन की व्यवस्था, स्थानीय पर्यावरण का खयाल रखना भी जरूरी होता है। वरना यह भी देखा गया है ग्रेनाईट संरचना वाले इलाकों में कुएं या तालाब खुदे, रात में पानी भी आया और कुछ ही घंटों में कहीं बह गया। इसी तरह यदि बगैर सोचे-समङो पीली या दुरमट मिट्टी में तालाब खोदा तो धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा, फिर दल-दल बनाएगा। क्या हम जानते हैं कि बुंदेलखंड में तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। बदले में तालाब की मछली, सिंघाड़े आदि पर उनका हक होता। इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेज ने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था। उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही करते थे जो तालाब के जल का इस्तेमाल करते थे। तालाब लोक की संस्कृति-सभ्यता का अभिन्न अंग हैं। इन्हें सरकारी बाबुओं पर नहीं छोड़ा जा सकता।1यह जान लें कि रेल से पानी पहुंचाने जैसे प्रयोग तात्कालिक उपाय भर हैं। बढती आबादी, जल की जरुरत में इजाफा और जलवायु परिवर्तन के अबूझ खेल के सामने लोक विज्ञान की जल संरक्षण नीतियों की शरण में जाना ही एकमात्र निदान है। अगर किसी बड़े बांध पर हो रहे समूचे व्यय के बराबर राशि एक बार एक साल विशेष अभियान चला कर पूरे देश के तालाबों की संवारने, उन्हें अतिक्रमण से मुक्त करने, उनकी गाद हटाने, पानी की आवक-जावक के रास्ते को निरापद बनाने में खर्च कर दिया जाए तो भले ही कितनी भी कम बारिश हो, न तो देश का कोई कंठ सूखा रहेगा और न ही जमीन की नमी खत्म होगी।1(पर्यावरण मामलों के जानकार लेखक ने बुंदेलखंड के तालाबों पर गहन शोध किया है)

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