विषम हालात में सामना करने काबिल नहीं है यह पढाई
पंकज चतुर्वेदी
मध्यप्रदेश में कक्षा दस के बोर्ड के इम्तेहान के नतीजे आ गए हैं। इसके बाद के 12 घंटों में आठ बच्चों ने आत्महत्या कर ली और उनमें से भी आधी बच्चियां थीं। जरा गौर करं कक्षा 10 की बच्च्ी यानि बामुष्किल 15 या सोलह साल की। बीते दस सल से स्कूल ेमं जा रही थी, लेकिन वहां बिताया समय और बांची गई पुस्तकें उसकों इतनी सी असफलता को स्वीकार करने और उसका सामना करने का साहस नहीं सिखा पाईं। उसमें अपने परिवार , षिक्षक व समाज के प्रति भरोसा नहीं पैदा कर पाइंर् कि महज एक इम्तेहान के नतीजे के अच्छे नहीं होने से वे लेग उसे स्वीकार करेंगे, अपनों की तरह। उसे ढांढस बंधाएंगे व आगे की तैयारी के लिए साथ देंगे। साफ जाहिर है कि बच्चे ना तो कुछ सीख रहे हैं और ना ही जो पढ रहे हैं उसका आनंद ले पा रहे हैं, बस एक ही धुन है या दवाब है कि परीक्षा में जैसे-तैसे अव्वल या बढ़िया नंबर आ जाएं।
यह विचारणीय है कि जो षिक्षा बारह साल में बच्चों को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना ना सिखा सके, जो विशम परिस्थिति में अपना संतुलन बनाना ना सिखा सके, वह कितनी प्रासंगिक व व्यावहारिक है ? कक्षा दस के बच्चें का अव्वल आना इस लिए जरूरी है कि वह अपने मां-बाप की पसंद के विशय से अगली कक्षा में दाखिला ले पाए। ज्यादा नंबर तो साईंस , उससे कम तो कामर्स और सबसे कम तो आर्टस या ह्यूमेनेटेरियन। बचपन, षिक्षा, सीखना सब कुछ इम्तेहान के सामने कहीं गौण हो गया है । रह गई हैं तो केवल नंबरों की दौड़, जिसमें धन, धर्म , षरीर, समाज सब कुछ दांव पर लग गया है । बारहवी के बच्चे कालेज में प्रवेष के लिए आयोजित हुई अनगिनत इम्तेहानों के लिए भी चिंतित रहत हैं। एक तरफ बोर्ड का दवाब तो दूसरे तरफ दीगर प्रवेष परीक्षाओं का ।
क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमता का तकाजा महज अंकों का प्रतिषत ही है ? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में , जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है । सीबीएसई की कक्षा 10 में पिछले साल दिल्ली में हिंदी में बहुत से बच्चों के कम अंक रहे । जबकि हिंदी के मूल्यांकन की प्रणाली को गंभीरता से देखें तो वह बच्चों के साथ अन्याय ही है । कोई बच्चा ‘‘हैं’’ जैसे षब्दो ंमें बिंदी लगाने की गलती करता है, किसी के छोटी व बड़ी मात्रा की दिक्कत है । कोई बच्चा ‘स’ , ‘ष’ और ‘श’ में भेद नहीं कर पाता है । स्पश्ट है कि यह बच्चे की महज एक गलती है, लेकिन मूल्यांकन के समय बच्चे ने जितनी बार एक ही गलती को किया है, उतनी ही बार उसके नंबर काट लिए गए । यानी मूल्यांकन का आधार बच्चों की योग्यता ना हो कर उसकी कमजोरी है । यह सरासर नकारात्मक सोच है, जिसके चलते बच्चों में आत्महत्या, पर्चे बेचने-खरीदने की प्रवृति, नकल व झूठ का सहारा लेना जैसी बुरी आदतें विकसित हो रही हैं । षिक्षा का मुख्य उद्देष्य इस नंबर- दौड़ में गुम हो कर रह गया है ।
वास्तव में परीक्षाओं का मौजूदा स्वरूप आनंददायक षिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है । इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए । ण्मण् पास बच्चे जब बैक में पैसा जमा करने की स्लीप नहीं भर पाते या बारहवीं पास बच्च होल्डर में बल्ब लगानाया साईकिल की चैन चढ़ाने में असमर्थ रहतास है तो पता चलता है कि हम जो कुछ पढ़ा रहे हैं वह कितना चलताउ है। यह बात सभी षिक्षाषास्त्री स्वीकारते हैं ,इसके बावजूद बीते एक दषक में कक्षा में अव्वल आने की गला काट में ना जाने कितने बच्चे कुंठा का षिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं । हायर सैकेंडरी के रिजल्ट के बाद ऐसे हादसे सारे देष में होते रहते हैं । अपने बच्चे को पहले नंबर पर लाने के लिए कक्षा एक-दो में ही पालक युद्ध सा लड़ने लगते हैं ।
कुल मिला कर परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिष्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है । कहने को तो अंक सूची पर प्रथम श्रेणी दर्ज है, लेकिन उनकी आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों ने भी दरवाजों पर षर्तों की बाधाएं खड़ी कर दी हैं । सवाल यह है कि षिक्षा का उद्देष्य क्या है - परीक्षा में स्वयं को श्रेश्ठ सिद्ध करना, विशयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायाद ? निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्व षिक्षा अभियान और ऐसी ही कई योजनाएं संचालित हैं । सरकार हर साल अपनी रिपोर्ट में ‘‘ड्राप आउट’’ की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती है । लेकिन कभी किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अपने पसंद के विशय या संस्था में प्रवेष ना मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गई हैं । एम.ए और बीए की डिगरी पाने वालों में कितने ऐसे छात्र हैं जिन्होंने अपनी पसंद के विशय पढ़े हैं । विशय चुनने का हक बच्चों को नहीं बल्कि उस परीक्षक को है जो कि बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन उनकी गलतियों की गणना के अनुसार कर रहा है ।
आजादी के बाद हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग को कभी गंभीरता से नहीं लिया । इसमें इतने प्रयोग हुए कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया । हम गुणात्मक दृष्टि से पीछे जाते गए, मात्रात्मक वृद्वि भी नहीं हुई । कुल मिला कर देखें तो षिक्षा प्रणाली का उद्देष्य और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक दूसरे में उलझ गए व एक गफलत की स्थिति बन गई । क्या कोई अपने पुराने अनुभवों से कुछ सीखते हुए बच्चों की बौद्धिक समृद्धता व अपने प्रौढ़ जीवन की चुनौतियों से निबटने की क्षमता के विकास के लिए कारगर कदम उठाते हुए नंबरों की अंधी दौड़ पर विराम लगाने की सुध लेंगे ?
पंकज चतुर्वेदी
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