जल और जीवन को संवारते लोग
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकारFirst Published:08-05-2016 09:16:23 PMLast Updated:08-05-2016 09:16:23 PM
अब लोगों ने अपना चंदा जोड़ा व उसकी सफाई व उस पर एक स्टॉप डैम बनाने का काम शुरू कर दिया। वहीं दूसरी तरफ, पन्ना के मदन सागर को अपने पारंपरिक रूप में लौटाने के लिए वहां का समाज भरी गरमी में सारे दिन कीचड़ में उतर रहा है। 75 एकड़ के इस तालाब का निर्माण 1745 के आसपास हुआ था। इसमें 56 ऐसी सुरंंगें बनाई गई थीं, जो शहर की बस्तियों में स्थित कुओं तक जाती थीं। इससे काफी दूर बस्तर के दलपतसागर तालाब को कंक्रीट का जंगल बनने से बचाने के लिए पूरा समाज लामबंद हो गया है। परंपरागत जल साधनों को संवारने के ऐसे ढेर सारे उदाहरण सामने आ रहे हैं।
आमतौर पर हमारी सरकारें बजट का रोना रोती हैं कि पारंपरिक जल संसाधनों की सफाई के लिए बजट का टोटा है। हकीकत में तालाब की सफाई और उसके गहरीकरण का काम अधिक खर्चीला नहीं होता, न ही इसके लिए भारी-भरकम मशीनों की जरूरत होती है। तालाबों में भरी गाद, सालों-साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थों के कारण ही उपजी है, जो वास्तव में उम्दा दर्जे की खाद है। किसानों को अगर इस खाद रूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए, तो वे सहर्ष इस काम के लिए राजी हो जाते हैं। राजस्थान के झालावाड़ जिले में 'खेतों में पॉलिश' के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय हो रहा है। कर्नाटक में समाज के सहयोग से कोई 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिनमें गाद की मुफ्त ढुलाई करने वालों ने इस खाद को बेचकर पैसा कमाया।
जल-संकट से जूझ रहे लोग अब जगह-जगह नदी को तालाब से जोड़ने, गहरे कुओं से तालाब भरने, पहाड़ पर नालियां बनाकर उसका पानी तालाब में जमा करने, उपेक्षित पड़ी झिरिया का पानी तालाब में एकत्र करने जैसे अनगिनत प्रयोग कर रहे हैं। इसके विपरीत जहां सरकार इसके लिए सक्रिय है, वहां नतीजे उतने अच्छे नहीं हैं। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के अंधियारा तालाब की कहानी पर गौर करें।
काफी पहले वहां सूखा राहत के तहत तालाब को गहरा करने का काम शुरू किया गया था। खोदने वालों ने तालाब के बीचोबीच खूब गहरी खुदाई कर दी। जब इंद्र देवता मेहरबान हुए, तो तालाब एक रात में लबालब हो गया, पर अगली सुबह ही उसकी तली दिख रही थी। बगैर सोचे-समझे की गई खुदाई में तालाब की वह झिर टूट गई, जिसका संबंध इलाके की ग्रेनाइट भू-संरचना से था। यह काम सरकारी अमले व ठेकेदार की बजाय स्थानीय ज्ञान से ही बेहतर हो सकता है। लोग अब यही कर रहे हैं।
आमतौर पर हमारी सरकारें बजट का रोना रोती हैं कि पारंपरिक जल संसाधनों की सफाई के लिए बजट का टोटा है। हकीकत में तालाब की सफाई और उसके गहरीकरण का काम अधिक खर्चीला नहीं होता, न ही इसके लिए भारी-भरकम मशीनों की जरूरत होती है। तालाबों में भरी गाद, सालों-साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थों के कारण ही उपजी है, जो वास्तव में उम्दा दर्जे की खाद है। किसानों को अगर इस खाद रूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए, तो वे सहर्ष इस काम के लिए राजी हो जाते हैं। राजस्थान के झालावाड़ जिले में 'खेतों में पॉलिश' के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय हो रहा है। कर्नाटक में समाज के सहयोग से कोई 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिनमें गाद की मुफ्त ढुलाई करने वालों ने इस खाद को बेचकर पैसा कमाया।
जल-संकट से जूझ रहे लोग अब जगह-जगह नदी को तालाब से जोड़ने, गहरे कुओं से तालाब भरने, पहाड़ पर नालियां बनाकर उसका पानी तालाब में जमा करने, उपेक्षित पड़ी झिरिया का पानी तालाब में एकत्र करने जैसे अनगिनत प्रयोग कर रहे हैं। इसके विपरीत जहां सरकार इसके लिए सक्रिय है, वहां नतीजे उतने अच्छे नहीं हैं। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के अंधियारा तालाब की कहानी पर गौर करें।
काफी पहले वहां सूखा राहत के तहत तालाब को गहरा करने का काम शुरू किया गया था। खोदने वालों ने तालाब के बीचोबीच खूब गहरी खुदाई कर दी। जब इंद्र देवता मेहरबान हुए, तो तालाब एक रात में लबालब हो गया, पर अगली सुबह ही उसकी तली दिख रही थी। बगैर सोचे-समझे की गई खुदाई में तालाब की वह झिर टूट गई, जिसका संबंध इलाके की ग्रेनाइट भू-संरचना से था। यह काम सरकारी अमले व ठेकेदार की बजाय स्थानीय ज्ञान से ही बेहतर हो सकता है। लोग अब यही कर रहे हैं।
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