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sahara 9-5-16 |
खात्मे के फर्जी दावे
नक्सलवादपंकज चतुर्वेदी
एक खबर को छत्तीसगढ़ की राज्य शासन ने जम कर प्रसारित किया कि अब आम ग्रामीणों का नक्सलियों से भरोसा उठ रहा है और सुकमा जिले के एक गांव कुमाकालेंग के लोगों ने अपने इलाके में नक्सलियों को घुसने से रोकने के लिए खुद मोर्चाबंदी कर ली है। बताया गया कि पंचायत के दो गांव-कुमाकालेंग और नामा के कोई युवा अपने पारंपरिक हथियारों के साथ अपने गांव में पहरा दे रहे हैं व नक्सलियों को अपने यहां घुसने नहीं दे रहे हैं। सनद रहे यह गांव तोंगापाल थाने से 22 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग-30 पर स्थित है।याद करें, इसी तोंगपाल थाने के पांच किलोमीटर के दायरे में नक्सली पिछले दो सालों में कई बड़ी वारदातें कर चुके हैं। ठीक उसी समय बस्तर में नक्सलियों की दंडकारण्य विंग ने दो दिन के बंद का आयोजन किया। चार-पांच मई के बंद के दौरान इलाके में 95 प्रतिशत बसें चलीं, बीजापुर मुख्यालय सहित अधिकांश बाजार बंद रहे। कई जगह हाट-बाजार भी। नहंटा 78 किलोमीटर और सुकमा-दंतेवाड़ा 80 किलोमीटर मागरे पर हर बीस किलोमीटर दूरी पर सुरक्षा बलों के कैप हैं और ये ग्रामीणों, व्यापारियों व बस चालाकों को यह भरोसा नहीं दिला पाए कि उनके रहते नक्सली कुछ नहीं कर पाएंगे। इतनी फोर्स होने के बावजूद इलाके में नक्सलियों के पच्रे बंटे, कई जगह पेड़ काट कर सड़क जाम की गई। यह दो दिन बंद की बानगी है कि जिस कुमाकालेंग को बदलाव का प्रतीक बता कर प्रचारित किया जा रहा है, उसकी असलियत क्या है।लोग अब भी नहीं भूले हैं सलवा जुड़ुम को जिसमें स्थानीय युवाओं को प्रशासन ने नक्सलियों के विरुद्ध हथियार थमा दिए थे और उसके बाद ऐसा खून-खराबा हुआ कि हजारों लोग गांव-घर छोड़ कर भागे, गांव के गांव जलाए गए। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा व सलवा जुडुम को अवैध बता कर उसको समाप्त करने के आदेश दिए गए। बाद में सलवा जुड़ुम के प्रणोता व बस्तर के सबसे कद्दावर नेता महेन्द्र कर्मा की नृशंस हत्या कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के साथ कर दी गई। इतनी बड़ी घटना के बाद भी बस्तर के किसी गांव से यह आवाज नहीं आई थी कि वे नक्सलियों का बहिष्कार करेंगे। आदिवासी इलाकों की कई करोंड़ो-अरबों की प्राकृतिक संपदा पर अपना कब्जा जताने के लिए पूंजीवादी घरानों को समर्थन करने वाली सरकार सन 1996 में संसद द्वारा पारित आदिवासी इलाकों के लिए विशेष पंचायत कानून (पेसा अधिनियम) को लागू करना तो दूर उसे भूल ही चुकी है। इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की जमीन के प्रबंधन और रक्षा करने का पूरा अधिकार था। इसी तरह परंपरागत आदिवासी अधिनियम 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया लेकिन उसका लाभ दंडकारण्य तक नहीं गया, कारण वह बड़े घरानों के हितों के विपरीत है। असल में यह समय है, उन कानूनों-अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का, लेकिन हम बात कर रहे हैं कि जनजीय इलाकों में सरकारी बजट कम किया जाए, क्योंकि उसका बड़ा हिस्सा नक्सली लेवी के रूप में वसूल रहे हैं। नक्सली इलाकों में सुरक्षा बलों को ‘‘खुले हाथ’ दिए गए हैं। बंदूकों के सामने बंदूकें गरज रही हैं, लेकिन कोई मांग नहीं कर रहा है कि स्थाई शांति के लिए कहीं से पहल हो। इसके बीच पिस रहे हैं आदिवासी, उनकी संस्कृति, सभ्यता, बोली और मानवता।इतिहास गवाह है कि चाहे राजतंत्र हो या लोकतंत्र बड़े से बड़े ताज जमीन पर गिरे हैं, लेकिन मानवता हर समय जीवंत रही है। नक्सलियों के कुछ सवाल भी जायज हैं। हां उनका तरीका गलत है, लेकिन इस आधार पर उनकी बात अनसुनी नहीं की जा सकती। सुरक्षा बलों को अपनी ड्यूटी निभाने के लिए हथियार ले कर जंगल में जाना ही होगा, लेकिन यह जरूरी नहीं कि उनकी हर गोली केवल अपराधी या नक्सली को ही लगे। पिछले छह महीने के दौरान सुरक्षा बलों ने कई सौ नक्सलियों को मार गिराने का दावा किया है। आत्मसमर्पण तो लगभग हर रोज हो रहे हैं। यदि इन सब की संख्या जोड़ लें तो लगेगा कि जंगल में जितने असली नक्सली नहीं हैं, उनसे ज्यादा या तो मार दिए गए या उनका हृदय परिवर्तन हो गया। जाहिर है कि प्रशासन की फर्जी कार्यवाहियां व दावे उसका केवल एक ही पहलू है-नक्सलवादियों की मजबूती और जनता में अपनी विश्वसनीयता को सवालों में खड़ा करना। लेकिन ताश के घर हवा के एक झोके से ढह जाया करते हैं और ऐसे में हवा खुद को मजबूत साबित करती है।
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