जिन्होंने दी सूखे को मात
जब बात हाथ से निकल गई, जब सुखाड़ के दुष्प्रभाव अपने चरम पर आ गए, तब दिल्ली के मीडिया को खयाल आया कि उनसे महज पांच सौ किलोमीटर दूर बुंदेलखंड की आधी आबादी पानी की कमी के कारण पलायन कर चुकी है। सूखे कुएं, बंद घरों और तड़क चुकी जमीन के फोटो के साथ आएरोज खबरें तैर रही हैं। यह भी इतना नपातुला गणित हो चुका है, दिल्ली से पत्रकार जाता है, वहां वह कतिपय एनजीओबाज के पास होता है और वह अपने नजरिए से हालात दिखा देता है। आकर रपट फाइल हो जाती है। ऐसे में वे लोग तो गुमनाम ही रहते हैं, जिनके कार्य असल में पूरे समाज व सरकार के लिए अनुकरणीय बन सकते हैं। लगातार तीसरे साल अल्पवर्षा की मार से कराहते, बेहाल बंुदेलखंड से गांव और अपने जीवन तक से पलायन, प्यास से परेशानी और पेट पालने की जटिलताओं की कहानियां बढ़ती गरमी के साथ तेजी से फैल रही हैं। जब हालात पूरी तरह हाथ से निकल गए, तब मीडिया, प्रशासन और समाज की दीर्घ तंद्रा टूटी और सरकारी शेर कागजों पर दहाड़ने लगे। इस दौड़-भाग से उपजी मृग मरीचिका प्यासे बुंदेलखंडियों में भ्रम ही फैला रही है।
ऐसी निराशा के बीच समाज के वे लोग चर्चा में हैं ही नहीं, जिन्होंने इस सूखे व जल-संकट के समक्ष अपने हथियार नहीं डाले। विकट हालातों में भी स्थानीयता के पारंपरिक ज्ञान को याद किया और 45 डिग्री से अधिक गर्मी वाले इलाकों में भी सुखाड़ उन पर बेअसर है। एक दशक के दौरान कम से कम तीन बार उम्मीद से कम मेघ बरसना बुंदेलखंड की सदियों की परंपरा रही है। यहां के पारंपरिक कुएं, तालाब और पहाड़ कभी भी समाज को इंद्र की बेरुखी के सामने झुकने नहीं देते थे। जिन लोगों ने तालाब बचाए, वे प्यास व पलायन से निरापद रहे। ब्रितानी हुकूमत के दौर में ‘पॉलिटिकल एजेंट’ का मुख्यालय रहे नौगांव जनपद के करारा गांव की जल-कुंडली आज शेष बुंदेलखंड से बिल्कुल विपरीत हो गई है। पहले यहां के लोग भी पानी के लिए पैदल चलकर तीन किलोमीटर दूर जाया करते थे। इस साल जनवरी में जब ग्रामीणों को समझ आ गया कि सावन बहुत संकट के साथ आएगा तो उन लोगों ने गांव के ही एक कुएं के भीतर बोरिंग करवा दी, जिसमें खूब पानी मिला। फरवरी आते-आते पूरे गांव ने जुटकर अपने पुराने बड़े तालाब की सफाई, मरम्मत व गहरीकरण कर दिया। लगभग सौ फुट लंबा एक पाइप कुएं से तालाब तक डाला गया। फिर दो महीने में जब बिजली आती, मोटर चलाकर तालाब भरा जाता। आज यहां भरे पानी से घर के काम, मवेशियों के लिए पानी तो र्प्याप्त मिल ही रहा है, पूरे गांव के अन्य कुओं व हैंडपंप का जलस्तर भी शानदार हो गया है। सब एकमत है कि इस बार बारिश से तालाब को भरेंगे। पानी बचाने के लिए पहाड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका को महसूस किया घुवारा ब्लॉक के बमनौराकलां गांव के समजा ने। दस हजार से अधिक आबादी और ढाई हजार मवेशियों वाला यह गांव बुंदेलखंड की अन्य बसावटों की ही तरह चारों तरफ पहाड़ों से घिरा है। पिछली बारिश शुरू होने से पहले समाज ने पहाड़ों पर ऊपर से नीचे की तरफ लगभग डेढ़ किलोमीटर लंबाई की एक फुट तक गहरी नालियां बना दीं। जब पानी बरसा तो इन नालियों के दस सिरों के माध्यम से बरसात की हर बूंद गाव के विशाल ‘चंदिया तालाब’ में जमा हो गई। आज पूरे गांव में कोई बोरवेल सूखा नहीं है, घरों में 210 नलों के जरिए पर्याप्त जल पहुंच रहा है। अब ग्रामीणों ने नालियों को और गहरा करने व पहाड़ पर हरियाली का संकल्प लिया है। सनद रहे बुंदेलखंड के सभी गांव, कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न है, चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती। पहाड़ के पार घने जंगल व उसके बीच से बहती बरसाती या छोटी नदियां। आजादी के बाद यहां के पहाड़ बेहिसाब काटे गए, जंगलों का सफाया हुआ व पारंपरिक तालाबों को पाटने में किसी ने संकोच नहीं किया। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखंड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। जिन्होंने पहाड़ बचाए, वे प्यास से नहीं हारे।दमोह शहर की जनता भले ही एक-एक बूंद पानी के लिए त्राहि-त्राहि कर रही हो, लेकिन जिला मुख्यालय के करीबी गांव इमलाई में पानी का किसी तरह का संकट नहीं है। यहां की तेंदू तलैया का गहरीकरण व सफाई खुद गांव वालों ने कर ली थी। जब थोड़ी सी बारिश की हर बूंद इस कुदरती बचत खाते में जमा हुई तो उसके ब्याज से ही गांव वालों का कंठ तर हो गया। इसी जिले के तेंदूखेड़ा के पाठादो व उससे सटे तीन गांवों को पानीदार बनाने के लिए ग्रामीणों ने एक उपेक्षित पड़ी झिरिया का सहारा लिया। झिरिया यानी छोटा सा झरना, जहां से पानी का स्रोत फूटता है। यह झिरिया बरसात में खूब पानी देती है, गर्मी में इसकी रफ्तार कम हो जाती है। गांव वलों ने इस झिरिया से निकल कर बहने वाले पानी के रास्ते में एक तलैया बना दी, एक कुआं भी खोद दिया। नतीजा, बगैर किसी बड़े व्यय के पूरे इलाके की नमी बरकरार है। गांव के बुजुर्ग पूरे दिन इसी झिरिया के किनारे रहते हैं व लोगों को किफायत से पानी खर्चने की सीख देते हैं। टीकमगढ़ जिले में पारंपरिक ज्ञान पर आधारित बराना गांव के चंदेलकालीन तालाब को जामनी नदी से जोड़ने की योजना बेहद सफल रही है। इससे 18 गांव लाभान्वित हो रहे हैं। ऐसे कई-कई उदाहरण पानी के लिए बेहाल बस्तर से ले कर झारखंड तक में हैं, जहां समाज ने ही अपनी समस्या का निदान पारंपरिक ज्ञान के सहारे खोज लिया। कर्नाटक में तो समाज ने अपने व्यय व श्रम से खूब तालाब बना डाले और सूखे को ठेंगा दिखा दिया। जान लें कि देश की जल समस्या का निदान भारी-भरकम तकनीक के साथ अरबों रुपए व्यय के बाद दशकों तक अधूरी रहने वाली योजनाओं से मिलने से रहा। झारखंड के गुमला जिले के भरनो प्रखंड के खरतंगा पहाड़ टोला के लोगों का संकल्प तारीफ के काबिल है। उन लोगों ने आपस में मिलकर 250 फुट लंबा, 200 फुट चौड़ा और दस फुट गहरा तालाब खोद लिया। यदि यह ताल भर जाता है तो पूरे इलाके में कभी जल-संकट होगा ही नहीं।हालांकि कुछ लोग ऐसे उदाहरणों से सीख लेकर इस भरी गरमी में आने वाले दिनों में पानी को सहेजने के लिए कमर कस चुके हैं। नौगांव शहर के जब सारे नलकूप सूख गए व पानी मिलने की हर राह बंद हो गई तो वहां के समाज ने एक स्थानीय छोटी सी नदी को सहेजने का जिम्मा खुद उठा लिया। बिलहरी से निकल कर भडार तक जाने वाली कुम्हेडी नदी बीते कई दशकों से गंदगी, रेत व गाद के चलते चुक गई थी। अब लोगों ने अपना चंदा जोड़ा व उसकी सफाई व उस पर एक स्टॉप डेम बनाने का काम शुरू कर दिया। पन्ना के मदन सागर को अपने पारंपरिक रूप में लौटाने के लिए वहां का समाज भरी गरमी में सारे दिन कीचड़ में उतर रहा है। सनद रहे कोई 75 एकड़ के इस तालाब का निर्माण सन् 1745 के आसपास हुआ था। इस तालाब में 56 ऐसी सुरंगंे बनाई गई थीं, जो शहर की बस्तियों में स्थित कुओं तक जाती थीं व उन्हें लबालब रखती थीं। आधुनिकता की आंधी में ये सब चौपट हो गया था। आज यहां बच्चे अपनी बचत व जन्मदिन में मिले पैसों को इस कार्य के लिए दान कर रहे हैं। बस्तर के दलपतसागर तालाब को कंक्रीट का जंगल बनने से बचाने को पूरा समाज लामबंद हो गया है। झारखंड से ले कर मालवा तक ऐसे ही उदाहरण सामने आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के सभी जिलों में राज्य सरकार ने छोटे किसानों के खेतों में तालाब बनाने की शुरुआत कर दी है, जिसके तहत महोबा जिले में 500 और शेष जिलों- झांसी, ललितपुर, चित्रकूट, जालौन और बांदा में ढाई-ढाई सौ तालाबों की खुदाई का काम किसानों ने भरी धूप में पूरा कर दिया है। यदि इसमें पानी भर जाता है तो एक एकड़ के खेत में हर तालाब दो बार तराई कर सकेगा।यह जान लें कि यहां पानी तो इतना ही बरसेगा, यह भी जान लें कि आधुनिक इंजीनियरिंग व तकनीक यहां कारगर नहीं है। बंुदेलखंड, झाारखंड, बस्तर या फिर मालवा को बचाने का एकमात्र तरीका है- अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। समाज जानता है कि तालाब महज पानी जमा नहीं करते, वे बेकार हो जाने वाले बारिश के पानी को साधते भी हैं। तालाबों की अधिकता से नदी-दरिया में बह कर जाने वाला बरसात का पानी गंदला नहीं होता, क्योंकि तालाब पानी की मिट्टी को अपने में जज्ब कर लेते हैं। यहां से उछल कर गया पानी ही नदी में जाता है। यानी पहाड़ या जमीन से जो मिट्टी तालाब की तलहटी में आई, उससे खेत को भी संपन्नता मिलती है। ऐसे लोकज्ञान को महज याद करने, उसमें समय के साथ मामूली सुधार करने और उनका क्रियान्वयन स्थानीय स्तर पर ही करने से हर इंसान को जरूरत मुताबिक पानी मिल सकता है। आवश्यकता है, ऐसे ही सफल प्रयोगों को सहेजने, सराहने और संवारने की।
= पंकज चतुर्वेदी
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