राजनीतिक महत्वााकांक्षा-कुंठा और साजिशों का ‘किराना ’
पंकज चतुर्वेदी
अभी तक किसी को यह नहीं पता था कि भारतीय संगीत का मशहूर किराना घराना, जिसकी स्थापना महान शास्त्रीय गायक अब्दुल करीम खां ने की थी, उसी कैराना से जन्मा है जहां से कथित पलायन उप्र के गंगा-यमुनी दोआब की हरियाली वाली धरती पर मतों के बीज बन कर उभर रहा है। मान्यता यही भी है कि महाभारत काल में कैराना में ही दानवीर कर्ण का जन्म हुआ था । एक मान्यता यह भी है कि कैराना का नाम ‘कै और राणा’ नाम के राणा चौहान गुर्जरों के नाम पर पड़ा. माना जाता है कि राजस्थान के अजमेर से आए राणा देव राज चौहान और राणा दीप राज चौहान ने कैराना की नींव रखी। कैराना के आस-पास कलश्यान चौहान गोत्र के गुर्जर समुदाय के 84 गांव हैं । सोलहवीं सदी में मुग़ल बादशाह जहांगीर ने अपनी आत्मकथा तुज़ुक-ए-जहांगीरी में कैराना की अपनी यात्रा के बारे में लिखा है और मुक़र्रब ख़ान की बनाई कई इमारतों, एक शानदार बाग़ और बड़े तालाब का ज़िक्र किया है। आज कैराना में किराना घराने के रागों की जगह नफरत के गीत गाने का प्रयास हो रहा है, हालंकि वहां की जनता ने एकजुटता दिखाते हुए ऐसे प्रयासों का पुरजोर विरोध किया है।
दिल्ली से कोई 100 किलोमीटर व मुजफ्फरनगर से 50 किलोमीटर दूर स्थित कैराना, सन 2011 में मायावती द्वारा बनाए गए नए जिले षामली के हिस्से में आया। हरयाणा में पानीपत से सटे ययुमना किनारे बसे इस छोटे से कस्बे में डिग्री कॉलेज के अलावा इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज भी है. दिल्ली के पास होने के बावजूद किराना का उतना विकास नहीं हुआ जितना होना चाहिए. सन 2011 जनगणना के मुताबिक़ कैराना तहसील की की जनसंख्या एक लाख 77 हजार 121 थी जिसमें कैराना नगर पालिका की आबादी करीब 89 हजार है । इसमें 81 प्रतिशत मुस्लिम, 18 फीसदी हिंदू और अन्य धर्मों को मानने वाले लोग एक फीसदी हैं। यह इलाका कितना पछिड़ा है इसकी बानगी इस आंकड़े से होती है कि जहां पूरे उप्र राज्यकी साक्षरता दर 68ः है तो कैराना में महज 47ः ।ं. चूंकि कैराना पिछड़े इलाकों में आता है इसलिए बरसों से यहां के लोग कैराना के पास ही पानीपत, मेरठ, रुड़की दिल्ली और देहरादून काम की तलाश में जाते रहे हैं और अब भी जा रहे हैं लेकिन इस बार काम की तलाश में लोगों के दूसरे शहर जाने को हिंदू पलायन से जोड़ा जा रहा है। कैराना हर समय षांत इलाका रही है, बावरी मस्जिद गिरने ेक बाद हुए दंगों में यहां कोई विरोध भी नहीं हुआ। सन 2013 के पश्चिमी उप्र के दंगों में जहां 25 किलोमीटर दूर तक मारकाट मची थी, कैराना षांत था। दंगाग्रस्त गांवों के कोई दस हजार लेाग यहां आ कर बसे और जब वे एक बार उधम कर रहे थे तो षहर के मुस्लिम बिरादरी ने ही उनके खिलाफ आवाज उठाई।
कैरान से पलायन की सच्चाई अब सबके सामने हैं, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वहां गुंडागिर्दी चरम पर है और राज्य सरकार इस पर काबू करने में नाकाम रही है। हालांकि यह भी सच है कि दो साल पहले फिरौती के लिए मारे गए दो व्यापारियों की हत्या के विरोध में बाजार बंद या जुलूस में नारे लगाने में सबसे आगे स्थानीय मुस्लिम ही थे। यह भीत थ्य है कि इलाके की कुख्यात मुकीम काला गिरोह में हिंदू गंुडे भी उतने ही हैं जितने की मुसलमान नाम वाले।
आतंक, बेराजगारी और बेहतर जिंदगी के लिए पलायन कैराना की त्रासदी है, लेकिन सांसद हुकुम सिंह की सियासत अर्ध सत्य। पिछले दो दशाकं के दौरान कैराना से कुल 1254 परिवार दूसरी जगहों को गए इनमें नौ सौ से ज्यादा मुसलमान परिवार है।। इनमे सबसे बड़ा नाम सुप्रीम कोर्ट के मशहूर अधिवक्ता सय्यद नादिर अली खान का है जिनकी कैराना मे करोड़ो की संपत्ति आज भी वीरान है । गौर करें कि मुज़फ्फरनगर के 14 में से 12 कस्बों मे , शामली के सभी कस्बो में, सहारनपुर के 12 मे से 10 कस्बांे में, मेरठ के आठ और बिजनोर के सभी कस्बों मे मुसलमानो की आबादी सबसे ज्यादा है । बिजनोर में तो 18 मे से 14 नगर पंचायत अध्यक्ष मुसलमान है । इसके उलट सभी शहरों मे मुसलमानो की आबादी हिन्दुओ से कम है और एक भी महापौर मुसलमान नही है । शहरों मे गरीब तबके का मुसलमान है जो रोजगार की तलाश मे शहरी हो गया । गांव से भी मुसलमानो ने बड़ी संख्या मे पलायन किया । जमीन इनके पास थी नहीं । शहर मे जाने की हिम्मत नही थी । सो ये छोटे कस्बों को चुनते है। यह विडंबना ही है कि मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में विकास की गति धीमी रहती है और वहां की पूरी सियासत भावनात्मक , गैर परिणामदेयी और धार्मिक मुद्दों के आसपास भटकती रहती है।
पश्चिमी उत्त प्रदेश की इस खासियत को भी समझना जरूरी है कि यहां त्यागी, मलिक, चौधरी जैसी सभी जातियां हिंदू और मुसलमान दोनों में हैं। इन लोगों की जीवनशैली भी पूजा पद्धति के अलावा एक सामन रही है। सन 2013 के दंगों के बाद मुल जाट यानि मुसलमान जाट व हिंदू जाटों में खाई हो गई। कैराना के आसपास बड़ी आबादी गूजरों की है और गूजरों में भी दोनों संप्रदाय के। अब जरा हुकुम सिंह को भी जान लें तो पलायन की हकीकत खुद ब खुद समझ आ जाएगी। हुकुम सिंह जी सन 1938 में जन्में और उस दौर में इलाहबाद से बीए, एलएलबी उतीर्ण थे। सन 1962 में उनका चयन राज्य की न्यायिक सेवा में हो गया, लेकिन तभी चीन ने भारत पर आक्रमण किया। पंडित नेळयू ने देश के युवाओं से फौज ेमं आने की अपील की और हुकुम सिंह जी न्यायिक सेवा की जगह फौज में चले गए। सन 1965 में पाकिस्तान युद्ध में भी वे पुंछ में कमांडर के तौर पर दुश्मनों से मोर्चा लेते रहे। सन 1969 में वे घर लौट आए व अपनी वकालत प्रारंभ की। थोड़े ही समय में वे हिंदू-मुस्लिम गूजरों में बाबूजी ने नाम से मशहूर हो गए। उनकी कोई राजनीतिक अभिलाशाएं थी नहीं फिर भी सन 1970 में उन्हें बाल एसोशिएसन का निर्विरोध प्रधान चुना गया। सन 1974 में वे कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने। अगला चुनाव यानि 1980 का उन्होंने चौधरी चरण सिंह के लोकदल से लड़ा। सन 1985 में वीरबहादुर सिंह मंत्री मंडल में प्शुपालन विभाग के मंत्री बने और उसके तत्काल बाद मुख्यमंत्री पद नारायण दत्त तिवारी द्वारा संभालने पर उन्हें केबीनेट मंत्री बना दिया गया। इस बीच कैराना से मुस्लिम युवक समाजवादी पार्टी में आ गए और चौधरी साहब को अपने वोट बैंक पर खतरा दिखने लगा, फिर वे 1995 में भाजपा में आ गए। सन 2007 में भी वे भाजपा से विधायक रहे। विधान सभा के उपाध्यक्ष रहे। सन 2013 के पश्चिमी उ.प्र. दंगों में उनका नाम आया। पिछले लोकसभा चुनाव में वे पहली बार सांसद बने, लेकिन जब उनके द्वारा खाली की गई विश्धानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ तो वहां से समाजवादी पार्टी जीत गई। हालांकि हुकुम सिंह जी इस सीट को अपनी बेटी को विरासत में देना चाहते थे। अभी तक हुकुम सिंह को मुसलमानों के वोट मिलते रहे थे, लेकिन दंगों के बाद हुए ध्रुवीकरण में उनकी वह छबि ध्वस्त हो गई। दंगों में चर्चित रहे संजीव बालियान केंद्र में मंत्री बने और दूसरे विधायक संगीत सोम भाजपा में भविश्य के बड़े नेता के तौर पर स्थापित हो गए। लेकिन जिस तरह इन इलाकों के विकास से प्रति सरकारों का नजरिया रहा है, चौधरी चरण सिंह व नारायण दत्त तिवारी के साथ राजनीति करने वाले राज्य के सभी दलों में सबसे वरिश्ठ नेता हुकुम सिंह हाशिये पर ही रह गए। सवाल यह उठना लाजिमी है कि जो व्यक्ति इतने लंबे समय तक इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता रहा हो, वहां विकास का अभाव, रोजगार की संभावना ना होना और उपेक्षा के लिए कुछ तो जिम्मेदारी उनकी भी बनती है। उधर पुलिस का कहना है कि आरोप लगाने वाले सांसद स्वयं अपराधियों का पक्ष लेते रहे हैं।
डीआईजी एके राघव का दावा है कि सांसद महोदय ने एक महिला के अपहरण व हत्या के मामले में कश्यप जाति के दो लोगों का नाम निकालने के लिए दबाव बनाया था। अकबरपुर सुन्हैटी में गुड्डी की अपहरण के बाद हत्या हो गई थी। इस मामले में दो मुस्लिम व दो हिंदू(कश्यप) के नाम आए। जिसमें मुस्लिमों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। सनद रहे कि मायापुर में हुकुम सिंह के एक हजार बीघे के फार्म हाउस में काम करने वाले अधिकतर कश्यप जाति के हैं। इसके अलावा सन 2013 में होली पर हुए विवाद, षामली में आजाद चैाक वाली घटना पर भी उनका पुलिस से टकराव हो चुका है। यही नहीं गुंडागिर्दी के कारण भय से पलायन करने वाले कई व्यापारियों का आरोप है कि जब डनहें धमकी मिली और वे सांसद के पास गए तो उन्होंने कोई मदद नहीं की। पलायन करने वालो की जारी लिस्ट मे सबसे पहला स्थान पाने वाले कोल्ड ड्रिंक व्यापारी ईश्वर चंद उर्फ बिल्लू बताते हैं कि 16 अगस्त 2014 की रात मे पांच छः बदमाश उनके घर आये और उनसे बीस लाख रुपये की रंगदारी नही देने पर परिवार सहित जान से मारने की धमकी देकर चले गये...उसके बाद अगले तीन दिनो तक उन्होंने स्थानीय भाजपा नेताओं सहित मदद के लिए हर मुमकिन दरवाजा खटखटाया, लेकिन कहीं से भी संतुष्टि नही मिलने पर मजबूर होकर 19 अगस्त की रात उन्होंने परिवार सहित कैराना से पलायन कर दिया। वे कैराना छोड़ने के सांप्रदायिक एंगल को नकारते हुए कहते हैं कि उनके यहाँ काम करने वाले छब्बीस कर्मचरियों मे से बाईस कर्मचारी मुसलमान ही थे और आज भी यहां उनके बचे कुचे कारोबार और सम्पत्ति की देखभाल के लिए एकमात्र मुस्लिम नौकर ही है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कैराना में बदमाशी, फिरौती आदि जम कर होती हे। मुकीम काला व फुरकान गैग के लोग जेल से भी लेागों से चौथ वसूलते हैं। लेकिन यह भी सच है कि इन दोनों गिरोहों में हर जाति के बदमाश हैं। यह भी सच है कि बगैर राजनीतिक संरक्षण के इस तरह गुंडागिर्दी चल नहीं सकती। यदि असल में कोई कैराना का भला चाहता है तो वहां शिक्ष, स्वास्थ, बिजली, रोजगार और कानून व्यवस्था पर बात करे, वरना देश का हर षहर, कस्बा, महानगर केवल पलायन कने वालों से ही बना है। आजादी के बाद 65 करोड से जयादा लोग पलायन कर दूसरी जगह बसे हैं। इसे सांप्रदायिक नहीं व्यवस्थागत दोश के तौर पर देखें।
prabhat |
jansandesh times lucknow 20.6.16 |
दिल्ली से कोई 100 किलोमीटर व मुजफ्फरनगर से 50 किलोमीटर दूर स्थित कैराना, सन 2011 में मायावती द्वारा बनाए गए नए जिले षामली के हिस्से में आया। हरयाणा में पानीपत से सटे ययुमना किनारे बसे इस छोटे से कस्बे में डिग्री कॉलेज के अलावा इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज भी है. दिल्ली के पास होने के बावजूद किराना का उतना विकास नहीं हुआ जितना होना चाहिए. सन 2011 जनगणना के मुताबिक़ कैराना तहसील की की जनसंख्या एक लाख 77 हजार 121 थी जिसमें कैराना नगर पालिका की आबादी करीब 89 हजार है । इसमें 81 प्रतिशत मुस्लिम, 18 फीसदी हिंदू और अन्य धर्मों को मानने वाले लोग एक फीसदी हैं। यह इलाका कितना पछिड़ा है इसकी बानगी इस आंकड़े से होती है कि जहां पूरे उप्र राज्यकी साक्षरता दर 68ः है तो कैराना में महज 47ः ।ं. चूंकि कैराना पिछड़े इलाकों में आता है इसलिए बरसों से यहां के लोग कैराना के पास ही पानीपत, मेरठ, रुड़की दिल्ली और देहरादून काम की तलाश में जाते रहे हैं और अब भी जा रहे हैं लेकिन इस बार काम की तलाश में लोगों के दूसरे शहर जाने को हिंदू पलायन से जोड़ा जा रहा है। कैराना हर समय षांत इलाका रही है, बावरी मस्जिद गिरने ेक बाद हुए दंगों में यहां कोई विरोध भी नहीं हुआ। सन 2013 के पश्चिमी उप्र के दंगों में जहां 25 किलोमीटर दूर तक मारकाट मची थी, कैराना षांत था। दंगाग्रस्त गांवों के कोई दस हजार लेाग यहां आ कर बसे और जब वे एक बार उधम कर रहे थे तो षहर के मुस्लिम बिरादरी ने ही उनके खिलाफ आवाज उठाई।
कैरान से पलायन की सच्चाई अब सबके सामने हैं, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वहां गुंडागिर्दी चरम पर है और राज्य सरकार इस पर काबू करने में नाकाम रही है। हालांकि यह भी सच है कि दो साल पहले फिरौती के लिए मारे गए दो व्यापारियों की हत्या के विरोध में बाजार बंद या जुलूस में नारे लगाने में सबसे आगे स्थानीय मुस्लिम ही थे। यह भीत थ्य है कि इलाके की कुख्यात मुकीम काला गिरोह में हिंदू गंुडे भी उतने ही हैं जितने की मुसलमान नाम वाले।
आतंक, बेराजगारी और बेहतर जिंदगी के लिए पलायन कैराना की त्रासदी है, लेकिन सांसद हुकुम सिंह की सियासत अर्ध सत्य। पिछले दो दशाकं के दौरान कैराना से कुल 1254 परिवार दूसरी जगहों को गए इनमें नौ सौ से ज्यादा मुसलमान परिवार है।। इनमे सबसे बड़ा नाम सुप्रीम कोर्ट के मशहूर अधिवक्ता सय्यद नादिर अली खान का है जिनकी कैराना मे करोड़ो की संपत्ति आज भी वीरान है । गौर करें कि मुज़फ्फरनगर के 14 में से 12 कस्बों मे , शामली के सभी कस्बो में, सहारनपुर के 12 मे से 10 कस्बांे में, मेरठ के आठ और बिजनोर के सभी कस्बों मे मुसलमानो की आबादी सबसे ज्यादा है । बिजनोर में तो 18 मे से 14 नगर पंचायत अध्यक्ष मुसलमान है । इसके उलट सभी शहरों मे मुसलमानो की आबादी हिन्दुओ से कम है और एक भी महापौर मुसलमान नही है । शहरों मे गरीब तबके का मुसलमान है जो रोजगार की तलाश मे शहरी हो गया । गांव से भी मुसलमानो ने बड़ी संख्या मे पलायन किया । जमीन इनके पास थी नहीं । शहर मे जाने की हिम्मत नही थी । सो ये छोटे कस्बों को चुनते है। यह विडंबना ही है कि मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में विकास की गति धीमी रहती है और वहां की पूरी सियासत भावनात्मक , गैर परिणामदेयी और धार्मिक मुद्दों के आसपास भटकती रहती है।
पश्चिमी उत्त प्रदेश की इस खासियत को भी समझना जरूरी है कि यहां त्यागी, मलिक, चौधरी जैसी सभी जातियां हिंदू और मुसलमान दोनों में हैं। इन लोगों की जीवनशैली भी पूजा पद्धति के अलावा एक सामन रही है। सन 2013 के दंगों के बाद मुल जाट यानि मुसलमान जाट व हिंदू जाटों में खाई हो गई। कैराना के आसपास बड़ी आबादी गूजरों की है और गूजरों में भी दोनों संप्रदाय के। अब जरा हुकुम सिंह को भी जान लें तो पलायन की हकीकत खुद ब खुद समझ आ जाएगी। हुकुम सिंह जी सन 1938 में जन्में और उस दौर में इलाहबाद से बीए, एलएलबी उतीर्ण थे। सन 1962 में उनका चयन राज्य की न्यायिक सेवा में हो गया, लेकिन तभी चीन ने भारत पर आक्रमण किया। पंडित नेळयू ने देश के युवाओं से फौज ेमं आने की अपील की और हुकुम सिंह जी न्यायिक सेवा की जगह फौज में चले गए। सन 1965 में पाकिस्तान युद्ध में भी वे पुंछ में कमांडर के तौर पर दुश्मनों से मोर्चा लेते रहे। सन 1969 में वे घर लौट आए व अपनी वकालत प्रारंभ की। थोड़े ही समय में वे हिंदू-मुस्लिम गूजरों में बाबूजी ने नाम से मशहूर हो गए। उनकी कोई राजनीतिक अभिलाशाएं थी नहीं फिर भी सन 1970 में उन्हें बाल एसोशिएसन का निर्विरोध प्रधान चुना गया। सन 1974 में वे कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने। अगला चुनाव यानि 1980 का उन्होंने चौधरी चरण सिंह के लोकदल से लड़ा। सन 1985 में वीरबहादुर सिंह मंत्री मंडल में प्शुपालन विभाग के मंत्री बने और उसके तत्काल बाद मुख्यमंत्री पद नारायण दत्त तिवारी द्वारा संभालने पर उन्हें केबीनेट मंत्री बना दिया गया। इस बीच कैराना से मुस्लिम युवक समाजवादी पार्टी में आ गए और चौधरी साहब को अपने वोट बैंक पर खतरा दिखने लगा, फिर वे 1995 में भाजपा में आ गए। सन 2007 में भी वे भाजपा से विधायक रहे। विधान सभा के उपाध्यक्ष रहे। सन 2013 के पश्चिमी उ.प्र. दंगों में उनका नाम आया। पिछले लोकसभा चुनाव में वे पहली बार सांसद बने, लेकिन जब उनके द्वारा खाली की गई विश्धानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ तो वहां से समाजवादी पार्टी जीत गई। हालांकि हुकुम सिंह जी इस सीट को अपनी बेटी को विरासत में देना चाहते थे। अभी तक हुकुम सिंह को मुसलमानों के वोट मिलते रहे थे, लेकिन दंगों के बाद हुए ध्रुवीकरण में उनकी वह छबि ध्वस्त हो गई। दंगों में चर्चित रहे संजीव बालियान केंद्र में मंत्री बने और दूसरे विधायक संगीत सोम भाजपा में भविश्य के बड़े नेता के तौर पर स्थापित हो गए। लेकिन जिस तरह इन इलाकों के विकास से प्रति सरकारों का नजरिया रहा है, चौधरी चरण सिंह व नारायण दत्त तिवारी के साथ राजनीति करने वाले राज्य के सभी दलों में सबसे वरिश्ठ नेता हुकुम सिंह हाशिये पर ही रह गए। सवाल यह उठना लाजिमी है कि जो व्यक्ति इतने लंबे समय तक इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता रहा हो, वहां विकास का अभाव, रोजगार की संभावना ना होना और उपेक्षा के लिए कुछ तो जिम्मेदारी उनकी भी बनती है। उधर पुलिस का कहना है कि आरोप लगाने वाले सांसद स्वयं अपराधियों का पक्ष लेते रहे हैं।
डीआईजी एके राघव का दावा है कि सांसद महोदय ने एक महिला के अपहरण व हत्या के मामले में कश्यप जाति के दो लोगों का नाम निकालने के लिए दबाव बनाया था। अकबरपुर सुन्हैटी में गुड्डी की अपहरण के बाद हत्या हो गई थी। इस मामले में दो मुस्लिम व दो हिंदू(कश्यप) के नाम आए। जिसमें मुस्लिमों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। सनद रहे कि मायापुर में हुकुम सिंह के एक हजार बीघे के फार्म हाउस में काम करने वाले अधिकतर कश्यप जाति के हैं। इसके अलावा सन 2013 में होली पर हुए विवाद, षामली में आजाद चैाक वाली घटना पर भी उनका पुलिस से टकराव हो चुका है। यही नहीं गुंडागिर्दी के कारण भय से पलायन करने वाले कई व्यापारियों का आरोप है कि जब डनहें धमकी मिली और वे सांसद के पास गए तो उन्होंने कोई मदद नहीं की। पलायन करने वालो की जारी लिस्ट मे सबसे पहला स्थान पाने वाले कोल्ड ड्रिंक व्यापारी ईश्वर चंद उर्फ बिल्लू बताते हैं कि 16 अगस्त 2014 की रात मे पांच छः बदमाश उनके घर आये और उनसे बीस लाख रुपये की रंगदारी नही देने पर परिवार सहित जान से मारने की धमकी देकर चले गये...उसके बाद अगले तीन दिनो तक उन्होंने स्थानीय भाजपा नेताओं सहित मदद के लिए हर मुमकिन दरवाजा खटखटाया, लेकिन कहीं से भी संतुष्टि नही मिलने पर मजबूर होकर 19 अगस्त की रात उन्होंने परिवार सहित कैराना से पलायन कर दिया। वे कैराना छोड़ने के सांप्रदायिक एंगल को नकारते हुए कहते हैं कि उनके यहाँ काम करने वाले छब्बीस कर्मचरियों मे से बाईस कर्मचारी मुसलमान ही थे और आज भी यहां उनके बचे कुचे कारोबार और सम्पत्ति की देखभाल के लिए एकमात्र मुस्लिम नौकर ही है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कैराना में बदमाशी, फिरौती आदि जम कर होती हे। मुकीम काला व फुरकान गैग के लोग जेल से भी लेागों से चौथ वसूलते हैं। लेकिन यह भी सच है कि इन दोनों गिरोहों में हर जाति के बदमाश हैं। यह भी सच है कि बगैर राजनीतिक संरक्षण के इस तरह गुंडागिर्दी चल नहीं सकती। यदि असल में कोई कैराना का भला चाहता है तो वहां शिक्ष, स्वास्थ, बिजली, रोजगार और कानून व्यवस्था पर बात करे, वरना देश का हर षहर, कस्बा, महानगर केवल पलायन कने वालों से ही बना है। आजादी के बाद 65 करोड से जयादा लोग पलायन कर दूसरी जगह बसे हैं। इसे सांप्रदायिक नहीं व्यवस्थागत दोश के तौर पर देखें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें