उम्मीदों की जल बूँदों से तृप्त बुन्देलखण्ड [1]
एक साल की अतिवर्षा और लगातार तीन साल से सूखे की मार से बेहाल बुन्देलखण्ड में आषाढ़ की पहली फुहारें उम्मीदें लेकर आई हैं। ना तो बुन्देलखण्ड में यह सूखा पहली बार पड़ा है और ना ही यहाँ की यह पहली बारिश है, फिर भी इस बार आसमान से टपकती रजत बूँदें कुछ अलग अनुभूति दे रही हैं।
अलग अनुभूतियों का सिलसिला उस समय शुरू हो गया था जब भयंकर सूखे के सामने सबसे ताकतवर सरकारी तंत्र असहाय सा ठिठक गया था। तभी लोगों ने एक तो यह बात मान ली कि महज बारिश हो जाना सूखे से निजात नहीं है या यों कहें कि बुन्देलखण्ड के सूखे का कारण केवल मानसून ना होना या अनियमित होना ही नहीं है।
असल में इस इलाके के सम्पूर्ण पर्यावरणीय तंत्र, जिसमें- जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर, शामिल हैं वे प्रकृति-चक्र की गति से विमुख हो गए थे, वरना कम-से-कम बारिश में भी इतना भयंकर संकट पहले कभी नहीं आया था। कई तरह की बेपरवाही और उपेक्षाओं के चलते समूचे बुन्देलखण्ड के तेरह जिलों में जमीन की सेहत खराब हो गई है, पानी के ठहरने के ठिकाने ढह गए हैं, पशु धन अभावों के चलते अपनी मौत मरने को छोड़ दिया गया।
ऐसे में जनता को समझ में आ गई कि इन हालातों से उबरनेे के लिये सरकार के भरोसे बैठना बेमानी है और तभी कई-कई दशकों बाद समूचे इलाकों में यह दृश्य देखने को मिले कि हजारों-हजार लोग खुद अपने हाथ में कुदाल-फावड़े लेकर जल-निधियों का रूप सँवारने में लग गए। परिणाम भी इतनी जल्दी सामने आ गए और अब समाज जल संरचनओं से अपना सीधा वास्ता और अधिकार महसूस कर रहा है।
हीरे की धरती और महामना प्राणनाथ की आध्यात्मिक स्थली के तौर पर देश-दुनिया में मशहूर पन्ना शहर का धरमसागर तालाब बना तो सन 1745 में था। प्यास से जूझते शहरवासियों ने इस मरते तालाब को जैसे बिसरा दिया था, लेकिन इस बार जब आषाढ़ में पहली बार दो घंटे पानी बरसा तो लगभ्भग पूरा शहर इस तालाब के चारों ओर एकत्र था।
आखिर क्यों ना हो, पूरे शहर ने एक महीने कड़ी मेहनत कर इसकी गाद हटाई, इसके पाल बाँधे और इसमें पानी की आवक और जावक के रास्तों को दुरुस्त किया था। लग रहा था कि इसकी हर बूँद में शहर के हर रहवासी की आत्मा छलक रही थी। हरपालपुर से महोबा जाते समय कुलपहाड़ से ही सड़कों के दोनों ओर खेतों में काली मिट्टी के ढेर चमक रहे थे।
असल में यह चन्देलकालीन यानि कम-से-कम आठ सौ से हजार साल पुराने तालाबों की सफाई-गहराई से निकला श्रम-रज है जिसे खेतों में सोना बनाने के लिये बिछाया जा रहा था। किसान मान गया है कि अब यूरिया की जरूरत नहीं होगी, कुछ डीएपी डालने से काम चल जाएगा और तालाब की गाद से उगी फसल उसके पिछले कई साल के अभावों को दूर कर देगी।
इस देशी खाद को लाने के लिये किसानों ने अपने ट्रैक्टर इस्तेमाल किये और अपना श्रम भी। बीते तीन महीनों की भीषण गर्मी में पूरे इलाके में कम-से-कम पाँच हजार पुराने तालाबों पर ऐसे ही आम लोग, बगैर किसी मजदूरी की आस में तालाबों पर काम करते मिले और अब वे एक बारिश के बाद ही लहलहा रहे पानी को देख अपनी मेहनत को सफल मान रहे हैं। एक लम्बी निराशा के बाद उम्मीदों का जल। कुछ जगह कारपोरेट सोशल वर्क योजना के तहत भी तालाबों पर काम होते दिखे।
कभी बुन्देलखण्ड की राजधानी रहे नौगाँव की कुम्हेड़ी नदी में कुछ युवाओं के काम ने तो इलाके की तस्वीर ही बदल दी। लगभग लुप्त हो गई कुम्हेड़ी नदी पर नौगाँव कस्बे के युवाओं ने दो महीने काम किया। एक नाले की तरह बहने व गुम होने वाली नदी के साढ़े तीन किलोमीटर बहाव क्षेत्र को 65 फुट चौड़ा पाट और 15 फुट से ज्यादा गहराई मिल गई।
[7]अभी इलाके में महज तीन इंच पानी बरसा है और नदी लबालब तो है ही , आसपास के पाँच किलोमीटर दायरे के हर ट्यूबवेल, हैण्डपम्प और कुओं में मनमर्जी पानी उपलब्ध हो गया है। कुम्हेड़ी नदी की सफल यात्रा एक राजनीतिक मुद्दा बन गई है और यहाँ आपे वाला हर नेता, कार्यकर्ता इसमें अपनी मदद की पेशकश कर रहा है लेकिन समाज जो है वह इसे अपनी जिम्मेदारी मानकर ही जुटा है। अब नदी के किनारों पर पाँच हजार पेड़ लगाने, उन पेड़ों को गोद लेने और उन्हें हर दिन पालने-पोसने वालों की सूची तैयार की जा रही है।
बांदा जिले के गाँवों में अपने खेत में ही तालाब बनाने के प्रयोग की लोकप्रियता चरम पर है। रेवई पंचायत में अभी तक 25 ऐसे तालाब बन चुके हैं और 60 लोग इसके लिये तैयार हैं। धनंजय सिंह के खेत में बने 30 मीटर लम्बा, 25 मीटर चौड़ा और चार मीटर गहरे कुण्ड (खेत तालाब) में तीन दिन एक-एक घंटे पानी बरसने पर चार फुट पानी आ गया।
असल में इस कुण्ड के निचले स्तर पर मौजूद एक खेत में भरे पानी को एक पाइप के जरिए कुण्ड से जोड़ने के प्रयोग के चलते भी पानी आया है। यह पानी जो सामने दिख रहा है, उसका असर उससे कहीं बहुत ज्यादा है। तीन साल से इलाके की मिट्टी की नमी कई-कई फुट गहराई तक गायब है और चार मीटर गहरे कुण्ड के कारण दूर-दूर तक के खेतों की मिट्टी गहरी साँस लेती दिख रही है।
उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड में सिंचाई तालाब योजना के तहत कुल एक लाख पाँच हजार लागत में ऐसे कुण्ड बनवाने की योजना है। लगभग 1500 ऐसे तालाब बन चुके हैं जिसमें लागत का पचास फीसदी यानि बावन हजार पाँच सौ सरकार दे रही है और आधा किसान का हिस्सा है। इस तरह के तालाब थोड़ी सी बारिश में भर जाते हैं और भले ही अपेक्षित पानी ना बरसे, फिर भी चार एकड़ के खेत के लिये एक फसल को पर्याप्त होते हैं।
हाँ, इस बार का सूखा कुछ अलग था, बुन्देलखण्ड के लिये- इतना पलायन, किसानों की आत्महत्या, मवेशियों की मौत पहले कभी नहीं हुई, लेकिन इस बार का सूखा इसलिये जरूर याद रखा जाएगा, क्योंकि इस बार जनता ने स्वयं अपनी ताकत को पहचाना और इस्तेमाल किया है। इस बार के सूखे ने ही आषाढ़ की पहली बारिश से ही पानी सहेजने की सीख दी है।
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