मुंशी प्रेमचंद - आज है 135वीं जयंती
कृतियां सफल मगर फिल्में नहीं
साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुंदरता की जो साधना होती है, वह हमें सिनेमा में नहीं मिलती। -प्रेमचंद
बीते तीन दशकों के टेलीविजन युग ने एक बात सिद्ध कर दी है कि यदि साहित्यिक कृतियों को थोड़ी मेहनत व गंभीरता से कैमरे में उतारा जाए तो न वे केवल लोकप्रिय होती हैं, बल्कि दर्शकों की पठन जिज्ञासा को भी बढ़ाती हैं। कुछ महान साहित्यकार ऐसे होते हैं, जिनकी रचनाएं अपने समय के साहित्य को तो प्रभावित करती ही हैं, अपितु वे आनेवाले समय के लिए भी पदचिन्ह छोड़ जाती हैं। भारतीय कथा लेखन जगत में जब प्रेमचंद का प्रवेश हुआ था, तब जीवन के यथार्थ से परे कल्पना लोक में विचर रही तिलिस्मी और जासूसी कहानियों/उपन्यासों का चरचराटा था। धनपत राय उर्फ नवाबराय इलाहाबादी उर्फ मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य में दुख-दर्द, खुशी-गमी जैसी अनुभूतियों के रंग पहले उर्दू और फिर हिंदी में भरे। वे अपनी रचनाओं को किसान-मजदूर, ग्रामीण-शहरी, अमीर-गरीब के निजी अनुभवों से खींच कर लाए। तत्कालीन राजनीतिक विचारधाराओं, सामाजिक पाखंडों, स्वतंत्रता आंदोलन की जीवंत तस्वीर उनके कथा साहित्य में थी। अपने 56 साल के जीवन काल में उन्होंने कई विश्वस्तरीय उपन्यास, कथा संग्रह, नाटक, निबंध रचे।
उन्होंने तीन चर्चित पत्रों का संपादन भी किया। जिन दिनों प्रेमचंद की साहित्य साधना चरम पर थी, तब भारत में चित्रपट यानी सिनेमा की लोकप्रियता का भी शुरुआती दौर था। तब की फिल्में स्टंट या कैमरा ट्रिक के कारण नहीं चलती थीं, बल्कि सशक्त पटकथा उनकी सफलता की वजह हुआ करती थी। इसके बावजूद 1934 में उनकी कहानी पर बनी पहली फिल्म से लेकर 1978 में बनी शतरंज के खिलाड़ी तक गिनी-चुनी फिल्में ही दर्शकों को भा सकीं। वैसे प्रेमचंद ने स्वयं इस असफलता का दोष फिल्म निर्माताओं को दिया था, जिन्होंने फिल्मांकन के दौरान उनकी कहानी का कचूमर निकाल दिया था।सन् 1931 में बोलता सिनेमा शुरू हुआ और 1933 में प्रेमचंद ने बंबई का रुख किया। प्रेमचंद ने मिल मजदूरों पर केंद्रित एक कहानी लिखी, फिर उसके संवाद भी लिखे, यहां तक कि एक छोटा-सा रोल भी किया। मोहन भावनानी के अजंता सिनेटोन के बैनर तले बनी इस फिल्म में पहले तो निर्माता ने खूब बदलाव किए, फिर ब्रितानी सेंसर ने बहुत कुछ उड़ा दिया। उसके बाद भी फिल्म को बंबई में प्रदर्शन की इजाजत नहीं मिली। लेकिन पंजाब के लाहौर में इसकोे देखने को भीड़ उमड़ी तो कई जगह इससे प्रेरित होकर मजदूरों के विद्रोह हो गए। उसके बाद सरकार ने फिल्म को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया। बाद में प्रेमचंद ने यह फिल्म बनारस में देखी तो वे बड़े दुखी हुए। उनकी कहानी का हुलिया ही बदल दिया गया था। तभी प्रेमचंद को फिल्मों की दुनिया जमी नहीं और वे मई, 1934 में अजंता सिनेटोन में फिल्मी लेखक के रूप में अनुबंधित होने के बावजूद 1935 में ही मुंबई छोड़कर बनारस वापस आ गए। इसके अगले ही साल सन् 1936 में उनका निधन हो गया। हालांकि इसके ठोस आंकड़े तो मौजूद नहीं हैं, लेकिन यह दावा है कि प्रेमचंद हिंदी में सबसे ज्यादा बिकने वाले लेखक हैं। लेकिन उनके देहावसान के बाद भी उनकी सफल कहानियों पर फिल्में बनती रहीं और लगभग सभी को असफलता का मुंह देखना पड़ा। प्रेमचंद के मुंबई प्रवास में एक फिल्म ‘नवजीवन’ बनी, जिसमें प्रेमचंद का मात्र नाम भर था और कहानी में भरसक परिवर्तन कर दिया गया था। 1934 में ही उनकी कृति ‘सेवा सदन’ पर इसी नाम से एक फिल्म महालक्ष्मी सिनेटोन के झंडे तले बनी, पर इस फिल्म को देखकर खुद प्रेमचंद हक्के-बक्के रह गए कि यह उनकी ही लिखी कहानी है या किसी और की। वेश्याओं के जीवन सुधार की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म विशुद्ध फिल्मी फार्मूले में पेश की गई थी, जिसमें वेश्या-जीवन की कथा तो थी, पर वह नाच-गाने तक ही सीमित रह गई थी। कृति के मुख्य संदेश-वेश्या भी संवेदनशील प्राणी है। उसकी भी मानवीय भावनाएं हैं’ से यह फिल्म कोसों दूर थी। प्रेमचंद ने पाया कि वे यहां मिसफिट हैं, इसलिए वे एक वर्ष में ही मुंबई छोड़ आए।बंबई से प्रेमचंद द्वारा जैनेंद्र कुमार को लिखा गए एक पत्र के कुछ हिस्से गौरतलब हैं- ‘कर्जदार हो गया था, कर्ज पटा दूंगा, मगर और कोई लाभ नहीं। उपन्यास (गोदान) के अंतिम पृष्ठ लिखने बाकी हैं। उधर मन नहीं जाता। जी चाहता है, यहां से छुट्टी पाकर अपने पुराने अड्डे पर जा बैठूं। वहां धन नहीं है, मगर संतोष अवश्य है। यहां तो जान पड़ता है कि जीवन नष्ट कर रहा हूं।’ सनद रहे कि ‘गोदान’ की कहानी कर्ज पर ही केंद्रित है और जब प्रेमचंद इसे लिख रहे थे, तब खुद कर्ज से दबे हुए थे।मुंबई से लौटने के कोई डेढ़ वर्ष बाद 8 अक्टूबर, 1936 को इस महान कहानीकार का देहांत हो गया। प्रेमचंद के निधन के बाद भी उनकी चर्चित कहानियों पर फिल्में बनती रहीं। सन् 1941 में प्रेमचंद की उर्दू कहानी औरत की फितरत (हिंदी में त्रिया चरित्र) पर सिरको प्रोडक्शन ने फिल्म स्वामी बनाई, पर यह भी फिल्मी फार्मूलों से भरपूर थी। 1946 में भवनानी ने रंगभूमि बनाई, जो किसी सीमा तक कहानी के साथ न्याय करती थी, पर बॉक्स ऑफिस पर यह असफल रही और कुछ समय के लिए प्रेमचंद की कहानियों पर फिल्म निर्माण की बात ठंडी पड़ गई। इस संदर्भ में बिमल राय का उल्लेख जरूरी है। उन्होंने 1953 में प्रेमचंद की कथा, जिसका रूपांतरण सलिल चौधरी ने किया था, पर एक यथार्थपरक चित्र दो बीघा जमीन बनाया। इसे कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले और आर्थिक दृष्टि से भी यह फिल्म सफल रही।
एक लंबे अंतराल के बाद फिर सन् 1959 में कृश्न चोपड़ा ने उनकी चर्चित कहानी दो बैलों की कथा पर आधारित फिल्म हीरा मोती बनाई। कृश्न चोपड़ा प्रेमचंद का मर्म समझते थे, इसलिए उन्होंने प्रभावी ढंग से इस फिल्म में स्वाधीनता और मानवप्रेम की कथा कही। यह फिल्म काफी सराही गई। कृश्न चोपड़ा ने ही प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास गबन पर इसी नाम से 1966 में फिल्म शुरू की, पर वह उसे पूरी नहीं कर पाए। इसे बाद में ऋषिकेश मुखर्जी ने पूरा किया। इसमें कथा-वस्तु का निरूपण तो विशद था, पर फिल्म नहीं चली । इसी बीच त्रिलोक जेटली ने 1963 में गोदान बनाई, पर यह फिल्म प्रभावी नहीं बन पाई, लेखक-निर्देशक त्रिलोक जेटली उपन्यास और फिल्मी पटकथा में सामंजस्य नहीं कर पाए और इस फिल्म की असफलता के बाद प्रेमचंद फिर कुछ समय के लिए फिल्मों से गायब हो गए। सन् 1978 फिर प्रेमचंद चर्चा का विषय बने। उनकी दो कहानियों शतरंज के खिलाड़ी और कफन पर दो प्रख्यात फिल्मकारों ने फिल्म बनाई। जाने-माने फिल्मकार सत्यजित राय द्वारा हिंदी में निर्मित शतरंज के खिलाड़ी वस्तुत: राय की भी पहली हिंदी फिल्म थी। लंबे-लंबे अंग्रेजी संवादों और उबाऊ ट्रीटमेंट के कारण यह बहुत दुरूह हो गई। राय ने इसमें तथ्यों की ऐतिहासिकता और प्रामाणिकता पर अत्यधिक जोर दिया, पर राजनीतिक परिवेश से जुड़ी मानवीय संवेदनाओं से भरपूर कहानी के साथ वे अधिक न्याय नहीं कर पाए। दरअसल, यह डॉक्यूमेंट्री अधिक लगती है और फीचर फिल्म कम, इसलिए इसके सफल होने का सवाल ही नहीं उठता।प्रेमचंद की यथार्थपरक कहानी कफन पर मृणाल सेन ने सन् 1977 में तेलुगु में ओका ओरी कथा (एक गांव की कहानी) बनाई, पर भाषा के कारण इसका प्रदर्शन क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रह गया। इसलिए इसे आंशिक सफलता मिली। मृणाल सेन की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने कथा के साथ न्याय किया और उसका कैनवस भी बढ़ा दिया। वास्तविक लोकेशन्स पर शूटिंग के कारण यह गरीबी की समस्या का प्रामाणिक दस्तावेज बन गई है, जिसके प्रेमचंद भी हिमायती रहे और जिसके लिए लड़ते रहे। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। प्रेमचंद की कहानियों पर कुछ बाल फिल्में भी बनीं, जिसमें सबसे ज्यादा चर्चित ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित ‘ईद मुबारक’ थी। सन् 1960 में बनी यह 21 मिनट की फिल्म कई भाषाओं में उपलब्ध है। ‘सद्गति’ (1981) सत्यजीत राय निर्देशित और प्रेमचंद की अमर कहानी ‘सद्गति’ पर आधारित एकमात्र ऐसी फिल्म है, जो अप्रतिम कथाशिल्पी के साथ न्याय करती है। जिस तरह प्रेमचंद ने ‘सद्गति’ में ब्राह्मणवाद पर गहरी चोट की थी, उसी प्रकार सत्यजित राय ने भी तुर्श अभिव्यंजना की है। ओमपुरी, मोहन अगाशे, स्मिता पाटिल और गीता सिद्धार्थ इसके मुख्य कलाकार थे।फिर भी सवाल ज्यों का त्यों है। हिंदी के सबसे चहेते और लोकप्रिय कथाकार की सफल और लोकप्रिय कृतियों पर बनी फिल्में असफल क्यों हुईं? पर अब समय बदल रहा है। दर्शक बदल रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में सफल साहित्यिक कृतियों पर कुछ अच्छी फिल्में और टीवी धारावाहिक बने हैं, जो आर्थिक दृष्टि से भी सफल रहे हैं। सन् 1981 में प्रेमचंद की कृति सद्गति व उसके बाद निर्मला पर बने टीवी सीरियल ने इन पुस्तकों की बिक्री बढ़ा दी थी। जाहिर है कि प्रेमचंद की कृतियों के विस्तार को तीन घंटे में समेटने की कोशिशें असफल रहीं, लेकिन सोप ऑपेरा के तौर पर यह सफल रही हैं। इस संबंध में प्रेमचंद के कथा साहित्य की सामयिकता और उपयोगिता असंदिग्ध है। अब समय आ गया है कि उनकी कृतियों पर अच्छी फिल्में और धारावाहिक बनाए जाएं। अब इसका बाजार भी है। यदि ऐसा होता है तो इससे प्रेमचंद के साहित्य के मूल में जो सर्वग्राह्यता और मानवीय संप्रेषणीयता है, उससे आम आदमी भी खुद को जोड़ पाएगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें