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शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

Independence movement, values and Irom

इरोम का उपवास और आजादी के मूल्य


                                                                                                                                        पंकज चतुर्वेदी
बीते 16 सालों से सुरक्षा बलों के अन्याय के खिलाफ भूख हड़ताल कर रही इरोम शर्मिला चानू को लगा कि उसका यह शस्त्र काम का नहीं है और उसकी भूख न तो किसी की आत्मा को उकसा रही है और न ही सरकार को उसकी परवाह है। हताश इरोम ने अपना अन्न-जल त्यागने वाला अनशन तोड़ दिया और वह उस ओर मुड़ने को मजबूर हो गई, जो रास्ता गांधी की तरह सत्ता से दूर रहकर जनता की सेवा करने की नीति से परे का है। यह घटना तात्कालिक तौर पर मीडिया में सुर्खियां तो बनी, लेकिन इसका निहित संदेश बेहद तकलीफदेह हैं, अब आजादी के मूल्य यानी शांतिपूर्ण आंदोलन क्या अप्रासंगिक हो गए हैं?


देश आजादी की 70वीं वर्षगांठ मना रहा है, इस उदघोोष के साथ कि हमें यह आजादी अहिंसा, सत्यााग्रह के बल पर मिली। उससे ठीक पहले ‘‘भारत छोड़ो आंदोलन’’ की बरसी यानि नौ अगस्त को दिल्ली से दूर पूर्वोत्‍तर राज्‍य मणिपुर में एक ऐसी घटना हुई जिसने सवाल खड़ाा किया कि क्या वास्तव में अभी भी अहिंसा, सत्याग्रह हमारी नीति के हिस्से हैं। बीते 16 सालों से सुरक्षा बलों के अन्याय के खिलाफ भूख हड़ताल कर रही इरोम षर्मिला चानू को लगा कि उसका यह षस्त्र काम का नहीं है और उसकी भूख ना तो किसी की आत्मा को उकसा रही है और ना ही सरकार को उसकी परवाह है। हताश इरोम ने अपना अन्न-जल त्यागने वाला अनशन तोड़ दिया और वह उस ओर मुड़ने को मजबूर हो गई जो रास्ते गांधी की तरह सत्ता से दूर रह कर जनता की सेवा करने की नीति से परे का है। यह घटना तात्कालिक तौर पर मीडिया में सुर्खियां तो बनी लेकिन इसका निहित संदेश बेहद तकलीफदेह हैं, अब आजादी के मूल्य यानि षंातिपूर्ण आंदोलन क्या अप्रांगिक हो गए हैं ? 

उस समय इंफाल में बादलों के कारण अंधेरा सा हो गया था, कोई चार बज कर बीस मिनट पर जब घडी के कांटे थे और इरोम ने अपनी जुबान पर उंगली से शहद चखा और उनकी आंखें से आंसुू की धारा निकल पडी। लगभग 16 साल तक लगातार पुलिस सुरक्षा या हिरासत में, नाक में नली से ग्लुकोज दिया जाता रहा, वह इतने सालों अपनी मां से भी नहीं मिली, बस एक जुनून कि मणिपुर में आतंकवाद के खात्मे के नाम पर निर्दाेष लेागों को मारने का लाईसेंस देने वाला ‘अफसपा’ यानि सशस्त्र बल विशेशाधिकार अधिनियम हटाया जाए। विडंबना देखोे कि जो देश यह दावा करता रहा कि उसे आजादी अहिंसा व शांति से किए गए सत्याग्रह से मिली, वहां इरेाम शर्मिला चानू के सत्याग्रह का संदेश सत्ता शिखर तक सोलह साल मंे भी नहीं पहुंचा।  बहरहाल डाक्टरों का कहना है कि आने वाले दिन इरोम के लिए बेहद कठिन हैं, उन्हें सामान्य आहार लेने में सालों लगेंगे, हो सकता है कि  उनकी आंतें व लीवर इस लायक भी ना बचे हों कि चावल जैेसेे भोजन को पचा सकें।  इरोम की जुबान स्वाद भूल चुकी है और उन्हें जिस तरह कोई 5800 दिनों बाद शहद की मिठास का अहसास भी नहीं हुआ, शायद उसी तरह उन्हें अपने नए राजनीतिक संकल्प की जटिलता का अंदाजा नहंी है।

‘आयरन लेडी’ के नाम से मशहूर सन 2000 से जिनके लिए अस्पताल जेल बन चुका था, इरोम षर्मिला चानू के षरीर की आंतरिक संरचना भोजन को ग्रहण करने के लिए जिस तरह जर्जर हो चकी है, उसी तरह पूर्वाेत्तर की सियासत एक सामान्य लोकतांत्रिक स्वाद चखने की अनुभूति से परे हैं। मणिपुर के पडोसी राज्य अरूणाचल प्रदेश में सत्ता की उठा पटक की सियासत में एक कर्मठ, जमीन से उठे और युवा पूर्व मुख्यमंत्री को अवसाद  का शिकार बना दिया व उसकी दुखद परणिति उनकी आत्म हत्या से हुई, ,वह भी ठीक उसी दिन जब इरोम ने मणिपुर का मुख्यमंत्री बनने की अभिलाशा के साथ अपना अनशन तोड़ा। 
 अपने षादी करने और लोकतांत्रिक व्यवसथा में षामिल हो कर अपनी मांग को नए सिरे से उठाने का संकलप दर्शाते हुए अपने इस फैसले पर शर्मिला ने कहा कि वे सरकार, मीडिया और आम लोगों से काफी निराश हैं जो उनके आंदोलन को समुचित महत्व नहीं दे रहे थे । लेकिन मरते दम तक अफस्पा को हटाने की मांग पर वे संकल्पबद्ध हैं । वे कहती हैं ,‘‘ हां, मैंने तरीका जरूर बदल दिया है। अब मैं संसदीय लोकतंत्र का हिस्सा बनकर चुनाव लड़ूंगी और अपनी मांग को सदन से सड़क तक उठाऊंगी।’’ 
इसमें कोई षक नहीं कि इरोम षर्मिला की भूख हड़ताल एक ठहरी हुई सी खबर बन गया था, इतने साल में एक और ‘इरोम’ नहीं उभरी कि वह 16 साल नहीं तो 16 दिन भी उनका साथ देती। लोग अपने जीवन के आवश्यक काम कर रहे थे और जब समय बचता तो उनकी चर्चा भी करते। कहा जाता है कि कोई 15 दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने भी इरोम को अपना अनशन समाप्त करने की ताकत दी थी। इसमें सर्वाेच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि देश के जिन इलाकों में अफस्पा लागू है वहां से किसी नागरिक के मौलिक अधिकार के हनन की शिकायत अगर कोर्ट के सामने आती है तो वह उस पर सुनवाई करेगा। इसका अर्थ यह माना जा रहा है कि अशांत घोषित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों को मिला असीमित संरक्षण अब समाप्त हो गया है। गौरतलब है कि यह फैसला मणिपुर से संबंधित मामलों में ही आया है। इस अदालती जीत के बाद अब जनता में वे एक सफलता कीक हानी ले कर जा सकती हैं और जनमत का समर्थन जुटा सकती हैं। वैसे उनके अनशन समाप्ति में उनके ब्रिटिश मूल के प्रेमी की भी बड़ी भूमिका है जिसने इस ठहरे अंादंोलन को नए सिरे से खड़ा करने की योजना बनाई व इरोम को इसके लिए राजी किया। 
जिस तरह इरोम को यह समझने में सोलह साल लग गए कि भारत में अपनी मांग मनवाने के लिए अनशन कारगर नहीं हाते , इसके लिए या तो अदालत की षरण में जाओ, या फिर सत्ता की ताकत अपने हाथ रखो, षायद उनके सियासती पदार्पण के फैसले को भी समझने-आंकने में उन्हें समय लगे। जब इरोम 20 निर्दलीय विधायकों के साथ राज्य की ताकत अपने हाथ करने की बता कर रही है तो जरा मणपुर राज्य के सत्ता संघर्श पर भी गौर करें । मणिपुर की स्वतंत्रता और संप्रभुता 19वीं सदी के आरंभ तक बनी रही। उसके बाद सात वर्ष (1819 से 1825 तक) बर्मी शासकों ने यहां शासन किया। 1891 में मणिपुर ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया और 1947 में देश के साथ स्वतंत्र हुआ। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू होने पर यह एक मुख्य आयुक्त के अधीन भारतीय संघ के भाग ‘सी’ के राज्य के रूप में सम्मिलित हुआ। कालांतर में एक प्रादेशिक परिषद का गठन किया गया जिसमें 30 सदस्य चयन के द्वारा और दो सदस्य मनोनीत थे। इसके पश्चात 1962 में केंद्रशासित प्रदेश अधिनियम के अधीन 30 सदस्य चयन द्वारा और तीन मनोनीत सदस्यों की विधानसभा स्थापित की गई। 19 दिसंबर, 1969 से प्रशासक का पद मुख्य आयुक्त के स्थान पर उपराज्यपाल कर दिया गया। 21 जनवरी, 1972 को मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और 60 निर्वाचित सदस्यों की विधानसभा का गठन किया गया। इस विधानसभा में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लिए 19 सीट आरक्षित हैं। मणिपुर से लोकसभा के दो और राज्य सभा का एक प्रतिनिधि है। मणिपुर में कई जनजातिय कबीले हैं और वहां अलग राज्य, अलग देश जैसी मांग को ले कर कई आतंकवादी गुट सक्रिय हैं। अस्सी के दशक में सक्रिय पीएलए  ने खूब खूनखराबा किया था। कहा जाता है कि चीन बर्मा के रास्ते यहां आतंकवाद को पोशित करता है। वहां के खूनखराबे के मद्देनजर ही वहां अफस्पा लागू किया गया। और उसके चलते सैंकड़ों आम नागरिक मारे गए। राज्य की राजनीति आयाराम-गयाराम से बुरी तरह प्रभावित है। पूरी सियासत पर अंदरखाने में हथियारबंद आतंकवादियों का रूतबा चलता हे। राज्य ाके मिलने वाले बजट की तुलना में विकास नगण्य है और तभी यहां हर ताकतवर एक बार विधानसभा तक जाना चाहता है। हालांकि यहां कि विधानसभाएं दिल्ली जैसे इलाकों की नगर निगम सीट से भी छोटी है।ं पैसे, ताकत और कई बार खुद को जिंदा रखने के लिए लेाग राजनीति में खूब दल-बदल करते है।। वैचारिक प्रतिबद्धता जैसा आदर्श यहां की राजनीति में गौण ही है। 
मणिपुर के जमीनी हालात तो यही कहते हैं कि वहां चुनाव लड़ना दो एम यानि मनी व मॅसल का खेल है। अनशन समाप्त करने से कई उग्रवादी संगठन उनसे नाराज है, एक संगठन ने तो बाकायदा उनके गैरमणिपुरी से षादी करने पर परिणाम भुगतने की चुनौती भी दे दी है। वैसे भी भारत का इतिहास गवाह है क िजन आंदोलन की पीठ पर सवार हो कर सत्ता-शिखर तक पहुंचने के सभी प्रयोग असफल रहे हैं। सन 1977 की जनता पार्टी सरकार हो या असम में छात्र आंदोलन से उभरी प्रफुल्ल मांहंता का षासन या फिर फिलहाल दिल्ली का केजरीवाल तंत्र, ये अपने उद्देश्य में सफल नहीं रहे है।। वैसे भी अफसपा हटाना यदि राज्य के बस की बात होती तो कश्मीर में उसका असर दिखता। इरोम का सियासती दांव हो सकता है कि कुछ दिन हलचल मचाए, लेकिन जमीनी हालात बताते हैं कि उनका यह निर्णय फिलहाल उनके पाचन तंत्र की ही तरह अनिश्चित व अपरिपक्व है। आजादी की यह सालगिरह इरोम के जरिये यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या अभी भी स्वतंत्रता और स्वराज के लिए महात्मा गांधी द्वारा स्थापित किए गए मूल्य प्रासंगिक है? क्या हर सामाजिक समस्या के निदान के लिए सत्ता के शिखर पर पहुंचना अनिवार्य है ? क्या समाज उन लोगों को भूल रहा है जो सत्य, अहिंसा, जैसे मूल्यों पर आश्रित हैं ?

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