अपराधी आगे पुलिस पीछे
लग रहा है कि समूचा देश अपराध की चपेट में है- दुष्कर्म, छेड़छाड़, लूट की
घटनाओं से आम जनता त्रस्त है। यह तो सामने आ गया है कि यदि पुलिस मुस्तैद
होती, फोर्स का सही इस्तेमाल होता तो यह आग इतना विकराल रूप नहीं लेती।
वैसे भी पिछले कुछ सालों से पूरे देश में सरेआम अपराधों की जैसे झड़ी ही लग
गई है। भीड़भरे बाजार में जिस तरह से हथियारबंद अपराधी दिनदहाड़े लूटमार
करते हैं, महिलाओं की चेन व मोबाइल फोन झटक लेते हैं, बैंक में लूट तो ठीक
ही है, अब तो एटीएम मशीन उखाड़ कर ले जाते हैं, उससे साफ है कि अपराधी
पुलिस से दो कदम आगे हैं और उन्हें कानून या खाकी वर्दी की परवाह नहीं है।
पुलिस को मिलने वाला वेतन और कानून व्यवस्था को चलाने के लिए संसाधन जुटाने
पर उसी जनता का पैसा खर्च हो रहा है जिसके जानोमाल की रक्षा का जिम्मा उन
पर है। ऐसा नहीं है कि पुलिस खाली हाथ है, आए रोज कथित बाईकर्स गैंग पकड़े
जाते हैं, बड़े-बड़े दावे भी होते हैं, लेकिन अगले दिन ही उससे भी गंभीर
अपराध सुनाई दे जाते हैं। लगता है कि दिल्ली व पड़ोसी इलाकों में दर्जनों
बाईकर्स-गैंग काम कर रहे हैं और उन्हें पुलिस का कोई खौफ नहीं है। जिस गति
से आबादी बढ़ी उसकी तुलना में पुलिस बल बेहद कम है। मौजूद बल का लगभग 40
प्रतिशत नेताओं व अन्य महत्वपूर्ण लोगों की सुरक्षा में व्यस्त है। खाकी को
सफेद वर्दी पहना कर उन्हीं पर यातायात व्यवस्था का भी भार है। अदालत की
पेशियां, अपराधों की तफ्तीश, आए रोज हो रहे दंगे, प्रदर्शनों को ङोलना
पड़ता है। कई बार तो पुलिस की बेबसी पर दया आने लगती है। मौजूदा पुलिस
व्यवस्था वही है जिसे अंग्रेजों ने 1857 जैसी बगावत की पुनरावृत्ति रोकने
के लिए तैयार किया था। अंग्रेजों को बगैर तार्किक क्षमता वाले आततायियों की
जरूरत थी, इसलिए उन्होंने इसे ऐसे रूप में विकसित किया कि पुलिस का नाम ही
लोगों में भय का संचार करने को पर्याप्त हो। आजादी के बाद लोकतांत्रिक
सरकारों ने पुलिस को कानून के मातहत जन-हितैषी संगठन बनाने की बातें तो
कीं, लेकिन इसमें संकल्पबद्धता कम और दिखावा यादा रहा। वास्तव में राजनीतिक
दलों को यह समझते देर नहीं लगी कि पुलिस उनके निजी हितों के पोषण में
कारगर सहायक हो सकती है और उन्होंने सत्तासीन पार्टी के लिए इसका भरपूर
दुरुपयोग किया। परिणामत: आम जनता व पुलिस में अविश्वास की खाई बढ़ती चली गई
और समाज में असुरक्षा और अराजकता का माहौल बन गया। शुरू-शुरू में राजनीतिक
हस्तक्षेप का प्रतिरोध भी हुआ। थाना प्रभारियों ने विधायकों व मंत्रियों
से सीधे भिड़ने का साहस दिखाया, पर जब ऊपर के लोगों ने स्वार्थवश हथियार
डाल दिए तब उन्होंने भी दो कदम आगे जाकर राजनेताओं को ही अपना असली आका बना
लिया। अंतत: इसकी परिणति पुलिस-नेता-अपराधी गठजोड़ में हुई जिससे आज पूरा
समाज इतना त्रस्त है कि सवरेच न्यायालय तक ने पुलिस में कुछ ढांचागत सुधार
तत्काल करने की सिफारिशें कर दी, लेकिन लोकशाही का शायद यह दुर्भाग्य ही है
कि अधिकांश राय सरकारें सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को नजरअंदाज कर रही हैं।
परिणति सामने है-पुलिस अपराध रोकने में असफल है। कानून व्यवस्था या वे
कार्य जिनका सीधा सरोकार आमजन से होता है, उनमें थाना स्तर की ही मुख्य
भूमिका होती है, लेकिन अब हमारे थाने बेहद कमजोर हो गए हैं। वहां बैठे
पुलिसकर्मी आमतौर पर अन्य किसी सरकारी दफ्तर की तरह क्लर्क का ही काम करते
हैं। थाने आमतौर पर शरीफ लोगों को भयभीत और अपराधियों को निरंकुश बनाने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज जरूरत है कि थाने संचार और परिवहन व
अन्य अत्याधुनिक तकनीकों से लैस हांे। बदलती परिस्थितियों के अनुसार थानों
के सशक्तीकरण जरूरी है। आज अपराधी थानों में घुस कर हत्या तक करने में नहीं
डरते। कभी थाने उचाधिकारियों और शासन की प्रतिष्ठा की रक्षा के सीमावर्ती
किलों की भांति हुआ करते थे। जब ये किले कमजोर हो गए तो अराजक तत्वों का
दुस्साहस इतना बढ़ गया कि वे जिला पुलिस अधीक्षक से मारपीट और पुलिस
महानिदेशक की गाड़ी तक को रोकने से नहीं डरते हैं। रही बची कसर जगह-जगह
स्वीकृत चौकियों, पुलिस सहायता बूथों आदि की स्थापना ने पूरी कर दी है।
इससे पुलिस-शक्ति के भारी बिखराव ने भी थानों को कमजोर किया है। थानों में
स्ट्राइकिंग फोर्स नाममात्र की बचती है। इससे किसी समस्या के उत्पन्न होने
पर वे त्वरित प्रभावी कार्रवाई नहीं कर पाते हैं।
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