My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 6 अगस्त 2016

why we not take lesson from disasters ?

आपदाओं से निबटने में हम असहाय क्यों रहते हैं 

                                                                                                                                          पंकज चतुर्वेदी



बीते दिनों अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर साईबर व रियल एस्टेट के लिए मशहूर गुड़गांव को दिल्ली से जोड़ने वाला राष्‍ट्रीय  राजमार्ग लगभग 16 घंटे जाम रहा, बरसात, जलभराव के चलते। यह रास्ता जयपुर , धारूहेड़ा व कई अन्य औद्योगिक क्षेत्रों की जीवन रेखा है। असहाय सा प्रशासन पूरी रात हाथ पर हाथ रख कर बैठा रहा। अगली सुबह स्कूल बंद कर दिए व शहर में धारा 144 लगा दी। बरसात के कारण जल जमाव को निकालने, वाहनों को वैकल्पिक रास्ता देने, जाम में फंसे लेागों में बीमार , बुजुर्ग या बच्चों को निकालने जैसे कोई भी उपाय पर किसी ने विचार ही नहीं किया। कोई प्यासा था तो कोई भूखा, वे पचास सौ रूपए में पानी की बोतल खरीदने को मजबूर थे, लेकिन प्रशासन का प्रबंधन सुप्त था। यही नहंी उस रात के जिन कारणों पर अफसरान बड़े-बड़े प्रवचन दे रहे थे, देा दिन बाद फिर वैसा ही जाम वहां हो गया, यानि तय है कि उन्होंने अपने पूर्व के कटु अनुभवों से कुछ सीखा नहीं था। इन दिनों देश के अलग-अलग हिस्सों में जल प्लावन की खबरें आ रही हैं। बहुत से इलाके तो षहरी हैं, लेकिन अधिकांश बाढ़ग्रस्त क्षेत्र आंचलिक  हैं। आंकड़ों में बताया जाता है कि अमुक स्थान पर केंद्र व राज्य के आपदा प्रबंधन दल के इतने जवान तैनात कर दिए गए लेकिन विडंबना है कि आपदा प्रबंधन व स्थानीय प्रशासन महकमें असहाय से हो जाते है और जब तक फौज व केंद्रीय अर्धसैनिक बल राहत कार्य का जिम्मा नहीं लेते तब तक अफरा तफरी ही मची रहती है।
कहने को देश में एक आपदा प्रबंधन महकमा है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन आपदा प्रबंधन पर एक पोर्टल बनाया गया है-www.idrn.gov.in। लेकिन इस पर बिहार या असम के ताजा संकट के बारे में कोई सूचना नहीं है। कहने को तो सैकंडरी स्तर के स्कूल और आगे कालेज में आपदा प्रबंधन बाकायदा एक विशय बना दिया गया है और इसकी पाठ्य पुस्तकें बाजार में हैं। गुजरात में आए भूकंप के बाद सरकार की नींद खुली थी कि आम लोगों को ऐसी प्राकृतिक विपदाओं से जूझने के लिए प्रशिक्षण देना चाहिए। बिहार या गुड़गांव में उन पुस्तकों का ज्ञान कहीं भी व्यावहारिक होता नहीं दिखा- ना ही सरकारी स्तर पर और ना ही समाज में। बिहार , पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों सा असम में बाढ़ आना कोई अप्रत्याशित नहीं होता, यह पहले से तय होता है, इसके बावजूद  यहां तक कि नदी तटों के किनारे की बस्तियों व उनमें बाढ़ की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए , जरूरी नावों की व्यवस्था तक नहीं थी। बाढ़ या अन्य किसी प्राकृतिक विपदा के समय लोगों की जानमाल की रक्षा के मूलभूत सिद्धांत पर भीड सरकार निकम्मी ही साबित हुई। बिहार गवाह है कि पानी से बच कर भाग रहे लोगों को बीच मझधार में मुसटंडों ने लूट लिया था। बाढ़ से घिरे गांवों के खाली पड़े मकानों को नेपाल से आए बदमाशों ने लूट लिया। जब फौज की टुकड़ियां बुला ली गईं, तो उन्हें नाव या रस्से जैसे आधारभूत साधन नहीं दिए गए।
एनडीआरएफ कारगर संस्था है, लेकिन उनके संसाधन बेहद कम हैं। देश में कही भी बाढ़, भूकंप, बोरवेल में बच्चा गिरने या आगजनी जैसी बड़ी घटना हो जाएं, आखिर इलाज फौज को बुलाना ही रह जाता है। ऐसी घटनाएं देश में आए रोज होती हैं और नेता-प्रशासन नुकसान होने के बाद बयान-बहादुर बन कर राहत बांटने में जुट जाता है। लेकिन यह सवाल कहीं से नहीं उठा कि इन हालातों में प्रशासन का आपदा प्रबंधन महकमा क्या कर रहा था। बिहार, असम व कुछ अन्य राज्यों के दो दर्जन जिलों में हर साल पहले बाढ़ और फिर सूखे की त्रासदी होती है। पानी में फंसे लोगों को निकालना षुरू किया जाता है तो लोगों की भूख-प्यास सामने खड़ी दिखती है, पानी उतरता है तो बीमारियां सामने होती है। ंबीमारियों से जैसे-तैसे जूझते हैं तो पुनर्वास का संकट सामने दिखेगा। सवा अरब की आबादी वाला देश, जिसकी विज्ञान-तकनीक, स्वास्थ्य, शिक्षा और सेना के मामले में दुनिया में तूती बोलती है; एक क्षेत्रीय विपदा के सामने असहाय सा है। राहत के कार्य ठीक उसी तरह चलते  हैं, जैसे कि आज से 60 साल पहले होते थे। पूरे देश से चंदा और सामान जुडा, मदद के लिए लोगों के हाथ आगे आए, लेकिन जरूरतमंदों तक उन्हें तत्काल पहुंचाने की कोई सुनियोजित नीति सामने नहीं थीै। यह हर हादसे के बाद होता है। कहने को देश में एक आपदा प्रबंधन महकमा है।
प्राकृतिक आपदा से संभावित इलाकों में एहतिहात ही सबसे बड़ा बचाव का जरिया होता है। कहने को तो सैकंडरी स्तर के स्कूल और आगे कालेज में आपदा प्रबंधन बाकायदा एक विशय बना दिया गया है और इसकी पाठ्य पुस्तकें बाजार में हैं। गुजरात में आए भूकंप के बाद सरकार की नींद खुली थी कि आम लोगों को ऐसी प्राकृतिक विपदाओं से जूझने के लिए प्रशिक्षण देना चाहिए। बिहार तो दूर दिल्ली में भी उन पुस्तकों का ज्ञान कहीं भी व्यावहारिक होता नहीं दिखा- ना ही सरकारी स्तर पर और ना ही समाज में। असल में हमें आपदा प्रबंधन और नए जामने की आपदाओं पर व्यावहारिक जानकारी स्कूल स्तर से देना चाहिए। साथ ही केवल सुरक्षा बलों को ही नहीं, सभी सरकारी निकायों के कर्मचारियों को इसका प्रशिक्षण अनिवार्य तथा विशम हालात में सभी कर्मचारियों को इसमंे लगाने पर नीति बनाना चाहिए। आपदा प्रबंधन की प्रायोगिक परीक्षा हो, स्नातक स्तर पर यह विशय हो और सबसे बड़ी बात हर संकट के बाद उससे मिले अनुभवों के आधार पर नीति बनाने का पूरा मेकेनिज्म हो।
बाढ़ या तूफान तो अचानक आ गए, लेकिन बुंदेलखंड सहित देश के कई हिस्सों में सूखे की विपदा से हर साल करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं। सूखा एक प्राकृतिक आपदा है और इसका अंदेशा तो पहले से हो जाता है, इसके बावजूद आपदा प्रबंधन का महकमा कहीं भी तैयार करता नहीं दिखता। भूख और प्यास से बेहाल लाखों लोग अपने घर-गांव छोड़ कर भाग जाते हैं। जंगलों में दुर्लभ जानवर और गांवों में दुधारू मवेशी लावारिसों की तरह मरते हैंे और स्कूल-कालेजों में आपदा प्रबंधन की ढोल पीटा जाता है, लेकिन धरातल पर इसका नामो-निशान नहीं होता।
यह बात पाठ्यक्रम और अन्य सभी पुस्तकों में दर्ज है कि बाढ़ प्रभावित इलाकों में पानी, मोमबत्ती, दियासलाई, पालीथीन षीट, टार्च, सूखा व जल्दी ना खराब होने वाला खाना आदि का पर्याप्त स्टाक होना चाहिए, इसके बावजूद बिहार , बंगाल या बंुदेलखंड में इन सब चीजों की जरूरत पर आपदा आने के महीनों बाद विचार किया जाता  है। विडंबना है कि पूरे देश का सरकारी  अमला आपदा आने के बाद हालात बिगड़ने के बाद ही चेतता है और फिर राहत बांटने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता है। राहत के कार्य सदैव से विवादो और भ्रश्टाचार की कहानी कहते रहे हैं। कई बार तो लगता है कि इन आपदाओं में राहत के नाम पर इतने पैसे की घोशणा सरकार करती है, इससे पूरे इलाके को लखपति बनाया जा सकता है, बशर्ते पैसा सीधे ही पीड़ित को बांट दिया जाए। हमारे देश में राहत कार्य के ‘‘भलीभांति’’(?) क्रि़यान्वयन के मद में कुल राशि का 40 फीसदी तक व्यय हो जाता है, जिसमें महकमों के वेतन-भत्ते, आवागमन, मानीटिरिंग आदि मद षामिल होते हैं। वास्त वे सरकार में बैठे लेगो आपदा से जूझने की पूर्व तैयारी से कहीं ज्यादा मुफीद मानते हैं संकट आ जाने के बाद उन्हें कुछ राहत बांटना, दौरे करना, क्योंकि इसमें वोट बैंक व अपनी बैकं देानेो के फल निहितार्थ होते हैं।

पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया
 नेहरू भवन, वसंत कुंज इंस्टीट्यूशनल एरिया फेज-2
 वसंत कुंज, नई दिल्ली-110070
 संपर्क- 9891928376

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