बीमार बस्तर से बेपरवाही
पंकज चतुर्वेदी
इस बार बारिश बस्तर पर खूब मेहरबान है। आशाढ के पहले दिन से ही जो झड़ी लगी है कि थमने का नाम नहीं ले रही। भले ही कुछ लेाग बस्तर में केवल बारूद की गंध सूंघते हों लेकिन बरसात में यहां का नैसर्गिक सौंदर्य देश में अप्रतिम होता है। विडंबना यही है कि घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देश की तरह मौसम बदलते हैं, उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाशिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चीन्हते हैं। बीते एक महीने में बस्तर इलाके में कहीं तेज गर्मी हुई तो अचानक मूसलाधार बारिश होने लगी। इस उमस के मौसम में हर साल आने वाली बीमारियां तेजी से व एकसाथ आ रही हैं। प्रकृति , मौसम और बीमारियों पर किसी का इतना बस नहीं होता लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि उस इलाके में स्वास्थ्य सुविधाओं का ताना-बाना बुरी तरह तार-तार है। जितनी कमी जागरूकता की है उससे कहीं ज्यादा चिकित्सा स्टाफ व दवाओं की
बीजापुर जिला बेहद दुर्गम इलाकों में गिना जता है। वहां अस्पताल तक पहुंचने वाले सीमित होते हैं, इसके बावजूद वहां बीते एक महीने में चार हजार से ज्यादा लेाग केवल मलेरिया के दर्ज हुए हैं। गत 11 से 23 जुलाई तक यहां डायरिया पखवाड़ा मनाया गया, लेकिन प्रशासन के पास इस बात के कोई आंकड़े नहीं है ंकि उल्टी-दस्त के कितने मरीज आए। बस्तर में अभी मलेरिया को जोर कुछ कम हुआ है और उलटी-दस्त का मौसम चल रहा है। इसके साथ यहां के संभागीय मुख्यालय के करीबी मुख्य मार्ग के लोहडीगुंडा ब्लाक में ही डेंगू के 22 मरीज मिले। जान लें कि यहां का 60 फीसदी इलाका सड़कों से नहीं जुड़ा है। कई सौं गांव प्राथमिक स्वासथ्य केंद्र से 25-30 किलोमीटर दूर हैं। कई बार मरीज को उल्टी खटिया पर डाल कर पैदल ही लाया जाता है। यहां प्रसव के दौरान मौत बेहद आम बात है। सरकारी खजाने का मुंह बस्तर के जंगलों की तरफ इस तरह खुला हुआ है कि लगता है अब वहां की गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा बस बीते दिनों की बात बनने ही वाले हैं। जबकि हकीकत यह है कि कभी प्रकृति के सहारे जीने-मरने वाले यहां के आदिवासी साफ पानी के अभाव में सारे साल बीमारियों से त्रस्त रहते हैं। सरकारी दस्तावेज खुद गवाह है कि जिन इलाकों में लोग जहरीले पानी से मर रहे हैं, वहां सरकारी मशीनरी पहंुच ही नहीं पा रही है और अपनी नाकामी को नक्सलवाद का मुलम्मा चढा कर लाचार दिख रही है। बहुत से बस्तर-विशेशज्ञ इसे हर साल की स्थाई त्रासदी करार दे कर मामले को हल्का बना रहे हैं तो कुछ सारा ठीकरा नक्सलियों के सर फोड कर सत्ताधारी दल के गुण गा रहे हैं। जंगल में नक्सली हिंसा में कितने मरे, उसके आंकड़े तो राजधानी व दिल्ली का मीडिया पहले पन्ने पर छापता है लेकिन मार्च से अभी तक वहां पीलिया से पचास मौतें हो चुकी हैं, यह कहीं छपा नहीं दिखेगा।
असल में बस्तर कभी इतना बड़ा जिला हुआ करता था कि केरल राज्य उसके क्षेत्रफल के सामने छोटा था। आज उस बस्तर को सात जिलों में बांट दिया गया है - कांकेर, कोंडागांव, जगदलपुर, नारायाणपुर ,दंतेवाड़ा, सुकमा और कोंटा। इस संभाग का मुख्यालय जगदलपुर है। कह सकते हैं कि बस्तर की राजधानी अब जगदलपुर बन गया है। भले ही प्रशासनीक स्तर पर यह बंट गया हो, लेकिन यहां के दुख-दर्द कतई नहीं बंट पाए हैं।
यहां ग्रामीणें के पास पेयजल का एक ही माध्यम होता है - हैंड पंप, जबकि यहां के अधिकंाश हैंडपंप पानी के नाम पर लोहा व फ्लोराईड के आधिक्य वाला जहर फैंकते हैं। यह बात सामने आ रही है कि नदी के किनारे बसे गांवों में बीमारियों का ज्यादा प्रकोप है। असल में यहां धान के खेतों में अंधाधुंध रसायन का प्रचलन बढने के बाद यहां के सभी प्राकृतिक जल-धाराएं जहरीली हो गई हैं। इलाके भर के हैंड पंपों पर फ्लोराईड या आयरन के आधिक्य के बोर्ड लगे हैं, लेकिन वे आदिवासी तो पढना ही नहीं जानते हैं और जो पानी मिलता है, पी लेते हैं। माढ़ के आदिवासी षौच के बाद भी जल का इस्तेमाल नहीं करते हैं। ऐसे में उनके षरीर पर बाहरी रसायन तत्काल तेजी से असर करते हैं। सरकारी अमले हेपेटाईटस-ए और बी के टीके लगाने के आंकड़े तो पेश करते हैं , लेकिन यह नहीं बताते कि इन टीकों को पांच डिगरी सेंटीग्रेट तापमान पर रखना होता है, वरना यह खराब हो जाते हैं। हकीकत यह है कि प्रशासन के पास अभी तक ऐसी कोई व्यवसथा नहीं है कि आंचलिक क्षेत्रों तक इतने कम तापमान में टीके पहुंचाए जाएं।
यह पहली बार नहीं हुआ था कि, बीते दस सालों के दौरान यहां गरमी षुरू होते ही जल-जनित रोगों से लोग मरने लगते हैं। और जैसे ही बारिश हुई ,उससे सटे-सटे ही मलेरिया आ जाता है। बस्तर में गत तीन सालों के दौरान मलेरिया से 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। कह सकते हैं कि बीमार होना, मर जाना यहां की नियति हो गई है और तभी हल्बी में इस पर कई लोक गीत भी हैं। आदिवासी अपने किसी के जाने की पीड़ा गीत गा कर कम करते हैं तो सरकार सभी के लिए स्वास्थ्य के गीत कागजों पर लिख कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाती है। बस्तर संभाग में 12 सौ प्राथमिक अस्पताल हैं, लेकिन इनमें से आधे से ज्यादा के पास अपने भवन नहीं हैं। बस्तर यानी जगदलपुर के छह विकास खंडों के सरकारी अस्पतालों में ना तो कोई स्त्री रोग विशेशज्ञ है और ना ही बाल रोग विशेशज्ञ। सर्जरी या बेहोश करने वाले या फिर एमडी डाक्टरों की संख्या भी षून्य है। जिले के बस्तर, बकावंड, लोहडीगुडा, दरभा, किलेपाल, तोकापाल व नानगुर विकासखंड में डाक्टरों के कुल 106 पदों में से 73 खाली हैं। तभी सन 2012-13 के दौरान जिले में दर्ज औरतों व लड़कियों की मौत में 60 फीसदी कम खून यानी एनीमिया से हुई हैं। बडे किलेपाल इलाके में 25 प्रतिशत से ज्यादा किशोरियां व औरतें कम खून से ग्रस्त हैं। वैसे यहां गर्भवती महिलओं को अस्पताल तक पहुंचाने के लिए महतारी योजना, मोटरसाईकिल पर एंबुलेंस जैसे ्रपयोग भी किए गए हैं, लेकिन आंचलिक इलाकों में संचार व जागरूकता का अभाव और सरकारी मशीनरी में नक्सलियों का डर कोई भी योजना को सफल नहीं होने देता हैं।
टीकाकरण, गोलियों का वितरण, मलेरिया या हीमोग्लोबीन की जांच जैसी बाते यहां सपने की तरह हैं। जब अस्पताल में ही स्टाफ नहीं है तो किसी माहामरी के समय गांवों में जा कर कैंप लगाना संभव ही हनीं होता। अभी बीजापुर जिले के भैैरमपुर ब्लाक में इंद्रावती नदी के उस पार बेथधरमा,ताकीलांड, उतला, गोरमेटा जैसे कई गांवों में हर रोज तीन से पांच लोगों की चिताएं जलने की खबर आ रही है। स्वास्थ्य विभाग नक्सलियों के डर से वहां जाता ही नहीं है। ऐसे कोई 450 गांव पूरे संभाग में हैं जहां आज तक कोई स्वास्थ्य कर्मी गया ही नहीं, क्योंकि या तो वहां तक रास्ता नहीं है या फिर वहां जाना मौत को बुलाना कहा जाता है और वहां उल्टी-दस्त व अब मलेरिया मौत का तांडव कर रहा है।
बस्तर बीमार है, इसका असर वहां जंगलों में रह कर संघर्श कर रहे पुलिस व अर्ध सैन्य बलों के जवानों पर भी पड़ता हे। यहां तक कि जवानों को ना तो षुद्ध पेय जल मिल रहा है और ना ही मच्छर से निबटने के साधन। इस तरह वे नक्सली व बीमारियों से दोहरा संघर्श कर रहे हैं।
बस्तर के आदिवासियों का निश्चल जीवन और लेाकरंग, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में बेरंग हो रहा हैं। इलाके में जल-जंगल-जमीन को बाहरी दखल ने जहरीला बना दिया है, वरना वहां हर मरज की जड़ी-बूटी थी। सरकार असहाय है और इसका फायदा कतिपय झाड़-फूंक, गुलिया-ओझा उठा रहे हैं। लोगों को बस्तर की याद तभी आती है जब वहां नक्सल या पुलिस के बैरल से निकली गोली के साथ किसी निर्दोश का खून बहता है या फिर कहीं मुल्क की समृद्ध संस्कृति के नाम पर वहां के लोक-नृत्य का प्रदर्शन करना होता है। काश सरकार में बैठे लोगों पर भी कोई टोना-टोटका कर दे ताकि वे पीलिया, डायरिया जैसे सामान्य रोग से मरते अपने ही बस्तर के प्रति गंभीर हो सकें।
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