बीमारी से बदहाल आदिवासी
पंकज चतुर्वेदी
Jagran 12-10-16 |
छत्तीसगढ़ का बीजापुर जिला बेहद दुर्गम इलाकों में गिना जाता है। यहां बीते एक महीने में मलेरिया के चार हजार से यादा केस दर्ज किए गए हैं। गत 11 से 23 जुलाई तक यहां डायरिया पखवाड़ा मनाया गया, लेकिन प्रशासन के पास इसका कोई आंकड़ा उपल}ध नहीं है कि उल्टी-दस्त के कितने मरीज आए। बस्तर में अभी मलेरिया का जोर कुछ कम हुआ है और उल्टी-दस्त का दौर चल रहा है। यहां के संभागीय मुख्यालय के करीबी मुख्य मार्ग के लोहडीगुंडा ब्लॉक में ही डेंगू के 22 मरीज मिले। यहां 60 फीसदी इलाका सड़कों से कटा हुआ है। सैकड़ों गांव प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से 25-30 किलोमीटर दूर हैं। कई बार मरीज को चारपाई पर डाल कर पैदल ही लाया जाता है। छत्तीसगढ़ में प्रसव के दौरान मौत आम बात है। सरकारी खजाने का मुंह बस्तर के जंगलों की तरफ इस तरह खुला हुआ है कि लगता है अब वहां की गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा बस बीते दिनों की बात बनने ही वाली है, जबकि हकीकत यह है कि कभी प्रकृति के सहारे जीने-मरने वाले आदिवासी साफ पानी के अभाव में बीमारियों से त्रस्त रहते हैं। सरकारी दस्तावेज गवाह हैं कि जिन इलाकों में लोग जहरीले पानी से मर रहे हैं, वहां सरकारी मशीनरी पहुंच ही नहीं पा रही है। सरकार अपनी नाकामी पर नक्सलवाद का मुलम्मा चढ़ाकर समस्याओं से किनारा कर रही है। बहुत से बस्तर-विषेशज्ञ इसे हर साल की स्थाई त्रसदी करार दे कर मामले को हल्का बना रहे हैं तो कुछ ठीकरा नक्सलियों के सर फोड़ कर सत्ताधारी दल के गुण गा रहे हैं। जंगल में नक्सली हिंसा में कितने मरे, उसके आंकड़े तो मीडिया पहले पन्ने पर छापता है, लेकिन इस साल मार्च से लेकर अभी तक वहां पीलिया से पचास मौतें हो चुकी हैं, यह कहीं छपा नहीं दिखेगा।
असल में, बस्तर कभी इतना बड़ा जिला हुआ करता था कि केरल राय उसके क्षेत्रफल के सामने छोटा था। आज उस बस्तर को सात जिलों में बांट दिया गया है जिनमें कांकेर, कोंडागांव, जगदलपुर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, सुकमा और कोंटा जिले शामिल हैं। इन जिलों में ग्रामीणों के पास हैंडपंप ही पेयजल का एक मात्र माध्यम है। अधिकतर हैंडपंप के पानी में लोहा व फ्लोराइड निकलता है, जो जहर के माफिक है। इलाके में हैंडपंपों पर फ्लोराइड या आयरन के आधिक्य के बोर्ड लगे हैं, लेकिन यादातर आदिवासी तो पढ़ना ही नहीं जानते हैं और जो पानी मिलता है, पी लेते हैं। माढ़ के आदिवासी शौच के बाद जल का इस्तेमाल नहीं करते हैं। ऐसे में उनके शरीर पर बाहरी रसायन तत्काल असर करते हैं। सरकारी अमले हेपेटाइटिस-ए और बी के टीके लगाने के आंकड़े तो पेश करते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि इन टीकों को पांच डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पर रखना होता है, वरना यह खराब हो जाते हैं। हकीकत यह है कि प्रशासन के पास अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि आंचलिक क्षेत्रों तक इतने कम तापमान में टीके पहुंचाएं जाएं।
यह पहली बार नहीं हुआ कि यहां गर्मी शुरू होते ही जल-जनित रोगों से लोग मरने लगे हैं और जैसे ही बारिश हुई, उससे सटे-सटे ही मलेरिया आ जाता है। ऐसा पिछले दस वर्षो से चल रहा है। बस्तर में पिछले तीन सालों के दौरान मलेरिया से 200 से यादा लोग मारे गए हैं। बीमार होना, मर जाना यहां की नियति हो गई है और हल्बी भाषा में इस पर कई लोक गीत भी हैं। हल्बी गोंड आदिवासियों की भाषा है। आदिवासी अपने किसी के जाने की पीड़ा गीत गा कर कम करते हैं तो सरकार सभी के लिए स्वास्थ्य के गीत कागजों पर लिख कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाती है। बस्तर संभाग में बारह सौ प्राथमिक अस्पताल हैं, लेकिन इनमें से आधे से यादा के पास अपने भवन नहीं हैं। बस्तर यानी जगदलपुर के छह विकास खंडों के सरकारी अस्पतालों में ना तो कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ है और ना ही बाल रोग विशेषज्ञ। सर्जरी या बेहोश करने वाले या फिर एम.डी. डॉक्टरों की संख्या भी शून्य है। जिले के बस्तर, बकावंड, लोहडीगुडा, दरभा, किलेपाल, तोकापाल व नानगुर विकासखंड में डॉक्टरों के कुल 106 पदों में से 73 खाली हैं। 2012-13 के दौरान जिले में दर्ज औरतों व लड़कियों की मौत में 60 फीसदी कम खून यानी एनीमिया से हुई है। बड़े किलेपाल इलाके में 25 प्रतिशत से यादा किशोरियां और महिलाएं कम खून की बीमारी से ग्रस्त हैं। टीकाकरण, गोलियों का वितरण, मलेरिया या हीमोग्लोबीन की जांच जैसी बाते यहां सपने की तरह हैं। जब अस्पताल में ही स्टाफ नहीं है तो किसी माहामरी के समय गांवों में जा कर कैंप लगाना संभव ही नहीं होता। अभी बीजापुर जिले के भैरमपुर ब्लॉक में इंद्रावती नदी के उस पार बेथधरमा, ताकीलांड, उतला, गोरमेटा जैसे कई गांवों में हर रोज तीन से पांच लोगों की चिताएं जलने की खबर आ रही हैं। स्वास्थ्य विभाग नक्सलियों के डर से वहां जाता ही नहीं है। ऐसे कोई 450 गांव पूरे संभाग में हैं, जहां आज तक कोई स्वास्थ्य कर्मी गया ही नहीं, क्योंकि वहां तक रास्ता नहीं है और वहां उल्टी-दस्त व अब मलेरिया मौत का तांडव कर रहा है।
बस्तर बीमार है। इसका असर वहां जंगलों में संघर्ष कर रहे पुलिस और अर्ध सैन्य बलों के जवानों पर भी पड़ता है। यहां तक कि जवानों को ना तो शुद्ध पेय जल मिल रहा है और ना ही मछर से निबटने के साधन। उन्हें दोहरी मार ङोलनी पड़ रही है। बस्तर के आदिवासियों का निश्चल जीवन और लोकरंग, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में बेरंग हो रहा है। जल-जंगल-जमीन को बाहरी दखल ने जहरीला बना दिया है, वरना वहां हर मर्ज की दवा जड़ी-बूटी थी। लोगों को बस्तर की याद तभी आती है जब वहां नक्सल या पुलिस के बैरल से निकली गोली के साथ किसी निदरेष का खून बहता है या फिर कहीं मुल्क की समृद्ध संस्कृति के नाम पर वहां के लोकनृत्य का प्रदर्शन करना होता है। काश सरकार में बैठे लोगों पर भी कोई टोना-टोटका कर दे ताकि वे पीलिया, डायरिया जैसे सामान्य रोग से मरते अपने ही बस्तर के प्रति गंभीर हो सकें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें