परलोक वाहन बनता सार्वजनिक परिवहन
पंकज चतुर्वेदीAdd caption |
मध्यप्रदेष में यह सिलसिला अकेले एक जिले तक ही सीमित नहीं है, आंकड़े देखें तो पूरे प्रदेष का यही हाल है। यह भी सच है कि राज्य में ऐसे सड़क हादसे आज से नहीं, गत एक दषक से आए रोज घटित हो रहे हैं और उन्हें महज एक घटना मान कर बिसरा दिया जाता है। असलियत तो यह है कि प्रदेष की परिवहन नीति की असफलता के कारण क्षेत्रफल के मामले में देष का दूसरे और आबादी के लिहाज से छठवें सबसे बड़े राज्य मध्यप्रदेष की सड़कें हर दिन सड़क दुर्घटनाओं की घटनाओं से लाल होती हैं। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब प्रदेष में बसों की टक्कर के कम से कम तीन मामले नहीं आते हों। देष के मध्य में स्थित एक ऐसा राज्य जिसके आर्थिक , सामाजिक विकास पर सभी की निगाहें टिकी हों, वहां की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पूरी तरह अनियोजित और अनियंत्रित होना विकास के मूल मानकों के विपरीत है। बीते एक दषक के दौरान पूरे देष की ही तरह मध्यप्रदेष में भी ऐसी सड़कों का जाल फैला जो द्रुतगामी परिवहन के लिए मददगार होती हैं, लेकिन इसके ठीक विपरीत राज्य की सरकारी बस संचालन करने वाली संस्था म.प्र. राज्य परिवहन निगम को ही बंद कर दिया गया। इस विभाग के पास केवल बसें ही नहीं, पूरे प्रदेष में कोई 100 जगहों पर अपनी जमीनें भी थीं और था लोगों का भरोसा। परिवहन निगम को बंद होने के बाद राज्य में प्रतिदिन 500 दुर्घटनांए हो रही हैं और केवल बसों की चपेट में मरने वालों की संख्या हर साल सात सौ के करीब पहुंच चुकी है।
किसी भी शासन के विकास को उसके सुरक्षित परिवहन और सुदृढ संचार से आंका जाता है। कोई 308,252 वर्ग किलोमीटर में फैले म.्रप. की आबादी सवा सात करोड़ से अधिक है। यहां की 72.37 फीसदी जनसंख्या ग्रामीण अंचलों में रहती है। कभी म.प्र. राज्य परिवहन निगम यहां के बाषिंदों की जीवन-रेखा हुआ करती थी। सन् 2003-04 के आसपास जब राज्य में सड़क निर्माण का काम तेजी पकड़ रहा था, तभी यह सुगबुगाहट होने लगी थी कि राज्य परिवहन निगम के दिन गिने-चुने हैं। उस साल परिवहन निगम ने 23 सामान्य और 06 डीलक्स नई बसों को अपने बेड़े में शामिल किया। उस साल प्रदेष के निजी बस आपरेटरों ने नौ साधारण और 11 डीलक्स बसें खरीदीं। अगले साल परिवहन निगम ने बसें खरीदना बंद कर दिया निजी बस संचालकेां द्वारा नई बस खरीदने के आंकडा़ उछल कर 255(साधारण बसें) और 26 डीलक्स बसों पर पहुंच गया। सन 2005 में राज्य में 803 साधारण बसें, 31 डीलक्स और 4738 मिनी बसें प्राईवेट आपरेटरों ने खरीद लीं। यह वह दौर था, जब राज्य में परिवहन निगम को बीमार दिखाने के लिए अधिकांष रूटों पर बसों का संचालन रोक कर उसके परमिट निजी आपरेटरों को बेचने का खेल शुरू हो चुका था।
सन 2008 में म.प्र.राज्य परिवहन निगम को पूरी तरह बंद कर दिया गया। उस समय निगम कोई 1700 रूटों पर अपने परमिटों को किराए पर उठा कर कोई 12 करोड़ रूपए महीने की आमदनी कर रहा था। निगम के बंद होते ही बसों पर पूरी तरह निजी कंपनियों का कब्जा हो गया। प्रदेषभर के कई कर्मचारी अभी भी अपने बकाये के लिए अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं, जबकि निगम की बेषकीमती जमीनों पर असरदार लोग कब्जा पा चुके हैं। निगम का समाप्त होना जैसे राज्य के लोगों के लिए ‘ जान हथेली पर रख कर’ सफर करने का फरमान ले कर आया है। अब हर कस्बे-गांव-जिलों की समूची परिवहन व्यवस्था डगगामार जीपों, व अन्य ऐसे परिवहन वाहनों पर टिकी है, जो सड़कों पर मौत बन कर घनघनाते घूमते हैं। अकेले छतरपुर जिला मुख्यालय पर ऐसे वाहनों की संख्या पांच सौ के आसपास है, जिनके पास ना तो प्रषिक्षित चालक हैं और ना ही सवारी ढोने के वैध परमिट , ना ही सवारियों की कोई निर्धारित संख्या, ना ही वसूले जाना वाला पैसा, ना ही टाईम टेबल या आने-जाने का समय। सब कुछ अनियोजित, अनियंत्रित, असामयिक। चूंकि इस तरह की बेतरतीब (अ)व्यवस्था सभी महकमों के लिए कुछ ना कुछ सौगात का जरिया होती है, सो आए रोज होने वाले एक्सीडेंटों, वाहन चालकों के झगड़ों और आम लोगेां की चीख-पुकार को सुनना किसी को भी गवारा नहीं है। अवैध वाहनों का संचालन अब हर जिले में पुलिस, नेता व गुंडों की स्थाई कमाई का जरिया बन गया है, सो कोई इसेबंद नहीं करवाना चाहता। इंदौर, भोपाल, जबलपुर, सतना जैसे बड़े षहरों में तो अब बाकायदा परिवहन-माफिया सक्रिय है जिनके आए रोज खूनी टकराव होते रहते हैं।
इन दिनों पूरे प्रदेष में दो मंजिला बसों का प्रचलन हो गया है। बुंदेलखंड के जिले, जहां से सालभर मजदूरों का पलायन होता है, ये बसें सोने का अंडा देने वाली मुर्गी साबित हुई हैं। ऊपरी बर्थ, जहां पर दो लोग बैठ सकते हैं, पांच से छह मजदूरों को उकडूं बैठा दिए जाते हैं। बस का अस्थाई टूरिस्ट परमिट कुछ मजूदरों को नाम लिख कर बनवाया जाता है, फिर पुलिस-प्रषासन की मिलीभगत से ऐसी बसों को दिल्ली, गुड़गांव, इंदौर जैसे बोर्ड लगा कर बस स्टैंड से बेतरतीब भरा जाता है। कई बार बीच सड़क पर एक बस से दूसरे में सवारी भरी जाती हैं, फिर ये गाडिय़ंा सड़कों पर कई-कई फेरे लगाती हैं। चूंकि बसों के संचालक रूतबेदार होते हैं सो, सरकार को लगने वाले टैक्स की चोट, सवारियों के जीवन से खिलवाड़ और बहुत कुछ कहीं दब-कुचल जाता है। आए रोज सड़को ंपर लोग मारे जाते हैं, चूंकि मरने वाले मजदूर या गरीब तबके के होते हैं, सो अधिकांष मामलों में बीमा के दावे तक नहीं होते। किरायों की वूसली बेतरतीब मनमानी हे। इंदौर से उज्जैन की दूरी 52 किलोमीटर है और किराया 53 रूपए, लेकिन 55 ना वसूले तो नेताजी की बस का रूतबा ही क्या रहा ? अक्सर बसों व अवैध छोटे वाहनों में सवारी लूटने की होड़, झगड़े होते ही रहते हैं।
असल में यह उत्तर प्रदेष, राजस्थान, हरियाणा जैेसे राज्यों के लिए बानगी और चेतावनी भी है, जहां प्रदेष की सरकारें भीतर ही भीतर परिवहन निगम का निजीकरण करने की जुगत लगा रही हैं। निजीकरण ना तो सवारियों के लिए फायद का सौदा है ना ही सरकार व कर्मचारियों के लिए। देष में कई सड़कों को राष्ट्रीय राजमार्ग घोषित कर दिया गया है- जगह-जगह बेहतरीन सड़कें बन रही हैं और उतनी ही गति से लोगों का आवागमन बढ़ रहा है, ऐसे में उन्मुक्त परिवहन व्यवस्था किसी बड़ी त्रासदी की ओर इषारा कर रही है। बड़ी आबादी को सुरक्षित, भरोसेमंद और वाजिब दाम में परिवहन उपलब्ध करवाना सरकार की प्राथमिकता होना चाहिए। यदि यह काम ठेके पर ही करना है तो किसी बड़ी कंपनी को पूरे राज्य का ठेका देकर उस पर सतत निगरानी का काम राज्य सरकार को करना चाहिए, वरना हर रोज इसी तरह सड़क पर खून और घर से बाहर निकले लोगों के परिजनों के मन में अनहोनी का अंदेसा ऐसे ही पसरा रहेगा।
पंकज चतुर्वेदी
संपर्क- 9891928376
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