शुरुआत से पहले कई बार सोचिए
नदी जोड़ योजना
पंकज चतुर्वेदी
भारत ने पेरिस जलवायु परिवर्तन प्रस्ताव पर अमल करने व अपने यहां कार्बन उत्सर्जन घटाने की घोषणा की है। ठीक उसी समय हुक्मरान तय कर चुके हैं कि देश में नदियों को जोड़ने की परियोजना लागू करनी ही है और उसकी शुरुआत बुंदेलखंड से होगी जहां केन व बेतवा को जोड़ा जाएगा।
यह जानना जरूरी है कि नदी जोड़ने का मतलब है एक विशाल बांध और जलाशय बनाना और उसमें जमा दोनों नदियों के पानी को नहरों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना। केन-बेतवा जोड़ योजना कोई 12 साल पहले जब तैयार की गई थी तो उसकी लागत 500 करोड़ के करीब थी। सन् 2015 में इसकी अनुमानित लागत 1800 करोड़ पहुंच गई। जब नदियों को जोड़ने की योजना बनाई गई थी तब ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण, ग्रीन हाऊस इफेक्ट, जैसी चुनौतियां नहीं थीं।
जलवायु परिवर्तन के कारण चेन्नई में पिछले साल और उससे पहले कश्मीर में आई तबाही की बानगी शायद बुंदेलखंडवासी भूल गए हों, लेकिन उन्होंने इस बार उसी प्राकृतिक आपदा का सामना किया है। तीन साल के भयंकर सूखे के बाद इस बार जो बरख बरसे हैं, उससे कई जगह हफ्तों तक जनजीवन ठप रहा। सैकड़ों जगह ऐसी थीं जहां तालाबों की जल-निकासी के पारंपरिक ‘‘ओने’’ को खोलना पड़ा। बरसात की त्रासदी इतनी गहरी कि भले ही जल स्रोत लबालब हो गए लेकिन खेतों में बुवाई नहीं हो पाई।
नदियों का पानी समुद्र में ना जाए, बारिश में लबालब होती नदियां गांवों-खेतों में घुसने के बनिस्पत ऐसे स्थानों की ओर मोड़ दी जाएं जहां इन्हें बहाव मिले तथा जरूरत पड़ने पर इसके पानी को इस्तेमाल किया जा सके, इस मूल भावना को लेकर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं। लेकिन विडंबना है कि केन-बेतवा के मामले में तो ‘क्या नंगा नहाए, क्या निचोड़े’ की लोकोक्ति सटीक बैठती है। केन और बेतवा दोनों का उद्गम स्थल मध्य प्रदेश में है। दोनों नदियां उत्तर प्रदेश में जाकर यमुना में मिल जाती हैं। जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्षा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी। तिस पर 1800 करोड़ (भरोसा है कि जब इस पर काम शुरू होगा तो यह लागत 2200 करोड़ पहुंच जाएगी) की योजना संरक्षित वन का नाश, हजारों लोगों के पलायन का कारक बनेगी।
नेशनल इंस्टीट्यूट फार स्पेस रिसर्च (आईएनपीसी) ब्राजील का एक गहन शोध है कि दुनिया के बड़े बांध हर साल 104 मिलियन मीट्रिक टन मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं और यह वैश्विक तापमान में वृद्धि की कुल मानवीय योगदान का चार फीसदी है। सनद रहे कि बड़े जलाशय, दलदल बड़ी मात्रा में मीथेन का उत्सर्जन करती है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज़िम्मेवार माने जाने वाली गैसों को ग्रीन हाऊस या हरित गृह गैस कहते हैं। इनमें मुख्य रूप से चार गैसें-कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फ़र हेक्साफ्लोराइड तथा दो गैस समूह-हाइड्रोफ्लोरोकार्बन और परफ्लोरोकार्बन शामिल हैं। ग्रीन हाऊस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से वायुमंडल में उनकी मात्रा निरंतर बढ़ती ही जा रही है। पिछले 20 से 50 वर्षों में वैश्विक तापमान में करीब एक डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हो चुकी है। केन-बेतवा को जोड़ने के लिए छतरपुर जिले के ढोढन में 77 मीटर ऊंचा और 2031 मीटर लंबा बंध बनाया जाएगा। इसके अलावा 221 किलोमीटर लंबी नहरें भी बनेंगी। इससे होने वाले वनों के नाश और पलायन को अलग भी रख दें तो भी निर्माण, पुनर्वास आदि के लिए जमीन तैयार करने व इतने बड़े बांध व नहरों से इतनी दलदल बनेगी कि यह मीथेन गैस उत्सर्जन का बड़ा कारक बनेगी।
इस परियोजना का सबसे बड़ा असर विकसित बाघ क्षेत्र के नुकसान के रूप में भी होगा। पन्ना नेशनल पार्क का 41.41 वर्ग किलोमीटर वह क्षेत्र पूरी तरह जलमग्न हो जाएगा, जहां आज 30 बाघ हैं। जंगल के 33 हजार पेड़ भी काटे जाएंगे। यदि इस योजना पर काम शुरू भी हुआ तो कम से कम एक दशक इसे पूरा होने में लगेगा। इस दौरान अनियमित जलवायु, नदियों के अपने रास्ता बदलने की त्रासदियां और गहरी होंगी। ऐसे में जरूरी है कि सरकार नई वैश्विक परिस्थितियों में नदियों को जोड़ने की योजना का मूल्यांकन करे। सबसे बड़ी बात इतने बड़े पर्यावरणीय नुकसान, विस्थापन, पलायन और धन व्यय करने के बाद भी बुंदेलखंड के महज तीन से चार जिलों को मिलेगा क्या? इससे एक-चौथाई से भी कम धन खर्च कर समूचे बुंदेलखंड के पारंपरिक तालाब, बावड़ी, कुओं और जोहड़ों की मरम्मत की जा सकती है।
गौर करें कि अंग्रेजों के बनाए पांच बांध 100 साल में दम तोड़ गए। आजादी के बाद बने तटबंध व स्टाप डैम पांच साल भी नहीं चले, लेकिन समूचे बुंदेलखंड में एक हजार साल पुराने चंदेलकालीन तालाब रखरखाव के अभाव के बावजूद आज भी लोगों के गले व खेत तर कर रहे हैं।
भारत ने पेरिस जलवायु परिवर्तन प्रस्ताव पर अमल करने व अपने यहां कार्बन उत्सर्जन घटाने की घोषणा की है। ठीक उसी समय हुक्मरान तय कर चुके हैं कि देश में नदियों को जोड़ने की परियोजना लागू करनी ही है और उसकी शुरुआत बुंदेलखंड से होगी जहां केन व बेतवा को जोड़ा जाएगा।
यह जानना जरूरी है कि नदी जोड़ने का मतलब है एक विशाल बांध और जलाशय बनाना और उसमें जमा दोनों नदियों के पानी को नहरों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना। केन-बेतवा जोड़ योजना कोई 12 साल पहले जब तैयार की गई थी तो उसकी लागत 500 करोड़ के करीब थी। सन् 2015 में इसकी अनुमानित लागत 1800 करोड़ पहुंच गई। जब नदियों को जोड़ने की योजना बनाई गई थी तब ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण, ग्रीन हाऊस इफेक्ट, जैसी चुनौतियां नहीं थीं।
जलवायु परिवर्तन के कारण चेन्नई में पिछले साल और उससे पहले कश्मीर में आई तबाही की बानगी शायद बुंदेलखंडवासी भूल गए हों, लेकिन उन्होंने इस बार उसी प्राकृतिक आपदा का सामना किया है। तीन साल के भयंकर सूखे के बाद इस बार जो बरख बरसे हैं, उससे कई जगह हफ्तों तक जनजीवन ठप रहा। सैकड़ों जगह ऐसी थीं जहां तालाबों की जल-निकासी के पारंपरिक ‘‘ओने’’ को खोलना पड़ा। बरसात की त्रासदी इतनी गहरी कि भले ही जल स्रोत लबालब हो गए लेकिन खेतों में बुवाई नहीं हो पाई।
नदियों का पानी समुद्र में ना जाए, बारिश में लबालब होती नदियां गांवों-खेतों में घुसने के बनिस्पत ऐसे स्थानों की ओर मोड़ दी जाएं जहां इन्हें बहाव मिले तथा जरूरत पड़ने पर इसके पानी को इस्तेमाल किया जा सके, इस मूल भावना को लेकर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं। लेकिन विडंबना है कि केन-बेतवा के मामले में तो ‘क्या नंगा नहाए, क्या निचोड़े’ की लोकोक्ति सटीक बैठती है। केन और बेतवा दोनों का उद्गम स्थल मध्य प्रदेश में है। दोनों नदियां उत्तर प्रदेश में जाकर यमुना में मिल जाती हैं। जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्षा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी। तिस पर 1800 करोड़ (भरोसा है कि जब इस पर काम शुरू होगा तो यह लागत 2200 करोड़ पहुंच जाएगी) की योजना संरक्षित वन का नाश, हजारों लोगों के पलायन का कारक बनेगी।
नेशनल इंस्टीट्यूट फार स्पेस रिसर्च (आईएनपीसी) ब्राजील का एक गहन शोध है कि दुनिया के बड़े बांध हर साल 104 मिलियन मीट्रिक टन मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं और यह वैश्विक तापमान में वृद्धि की कुल मानवीय योगदान का चार फीसदी है। सनद रहे कि बड़े जलाशय, दलदल बड़ी मात्रा में मीथेन का उत्सर्जन करती है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज़िम्मेवार माने जाने वाली गैसों को ग्रीन हाऊस या हरित गृह गैस कहते हैं। इनमें मुख्य रूप से चार गैसें-कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फ़र हेक्साफ्लोराइड तथा दो गैस समूह-हाइड्रोफ्लोरोकार्बन और परफ्लोरोकार्बन शामिल हैं। ग्रीन हाऊस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से वायुमंडल में उनकी मात्रा निरंतर बढ़ती ही जा रही है। पिछले 20 से 50 वर्षों में वैश्विक तापमान में करीब एक डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हो चुकी है। केन-बेतवा को जोड़ने के लिए छतरपुर जिले के ढोढन में 77 मीटर ऊंचा और 2031 मीटर लंबा बंध बनाया जाएगा। इसके अलावा 221 किलोमीटर लंबी नहरें भी बनेंगी। इससे होने वाले वनों के नाश और पलायन को अलग भी रख दें तो भी निर्माण, पुनर्वास आदि के लिए जमीन तैयार करने व इतने बड़े बांध व नहरों से इतनी दलदल बनेगी कि यह मीथेन गैस उत्सर्जन का बड़ा कारक बनेगी।
इस परियोजना का सबसे बड़ा असर विकसित बाघ क्षेत्र के नुकसान के रूप में भी होगा। पन्ना नेशनल पार्क का 41.41 वर्ग किलोमीटर वह क्षेत्र पूरी तरह जलमग्न हो जाएगा, जहां आज 30 बाघ हैं। जंगल के 33 हजार पेड़ भी काटे जाएंगे। यदि इस योजना पर काम शुरू भी हुआ तो कम से कम एक दशक इसे पूरा होने में लगेगा। इस दौरान अनियमित जलवायु, नदियों के अपने रास्ता बदलने की त्रासदियां और गहरी होंगी। ऐसे में जरूरी है कि सरकार नई वैश्विक परिस्थितियों में नदियों को जोड़ने की योजना का मूल्यांकन करे। सबसे बड़ी बात इतने बड़े पर्यावरणीय नुकसान, विस्थापन, पलायन और धन व्यय करने के बाद भी बुंदेलखंड के महज तीन से चार जिलों को मिलेगा क्या? इससे एक-चौथाई से भी कम धन खर्च कर समूचे बुंदेलखंड के पारंपरिक तालाब, बावड़ी, कुओं और जोहड़ों की मरम्मत की जा सकती है।
गौर करें कि अंग्रेजों के बनाए पांच बांध 100 साल में दम तोड़ गए। आजादी के बाद बने तटबंध व स्टाप डैम पांच साल भी नहीं चले, लेकिन समूचे बुंदेलखंड में एक हजार साल पुराने चंदेलकालीन तालाब रखरखाव के अभाव के बावजूद आज भी लोगों के गले व खेत तर कर रहे हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें