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शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

Only slogans can not change face of SAWCHCHHTA

नारों से आगे नहीं बढ़ा ‘स्वच्छता अभियान’


                                                                                                                        पंकज चतुर्वेदी

अगस्त महीना समाप्त हुआ था और सितंबर लगा ही था कि दिल्ली व उससे सटे जिलों में डेंगू की खबरें आने लगीं, फिर डेंगू का डंक पूरे देश में फैलने लगा। हालात जब बिगड़ने लगे तो कई राज्यों के मुख्यमंत्री, नेता, नगर निगम प्रधान रेडियो व अन्य संचार माध्यमों से ज्ञान बांटने लगे कि किस तरह यदि डेंगू हो जाए तो सरकार उनके साथ है। गौरतलब है कि इस साल देश के बड़े हिस्से में बारिश जम कर हुई है, और पानी तेजी से बहा भी, इसके बावजूद डेंगू फैला। यह भी सब जानते हैं कि डेंगू मच्छरों के कारण फैलता है और मच्छरों की उत्पादन स्थली गंदगी व रूका हुआ पानी है। दो साल पहले महात्मा गांधी के जन्म दिवस दो अक्तूबर पर प्रधानमंत्री ने एक पहल की थी, उन्होंने आम लोगों से अपील की थी- निहायत एक सामाजिक पहल, अनिवार्य पहल और देश की छवि दुनिया में सुधारने की ऐसी पहल जिसमें एक आम आदमी भी भारत-निर्माण में अपनी सहभागिता बगैर किसी जमा-पूंजी खर्च किए दे सकता था- स्वच्छ भारत अभियान। पूरे देश में झाड़ू लेकर सड़कों पर आने की मुहीम सी छिड़ गई – नेता, अफसर, गैरसरकारी संगठन, स्कूल, हर जगह सफाई अभियान की ऐसी धूम रही कि बाजार में झाड़ूओं के दाम आसमान पर पहुंच गए। यह बात प्रधानमंत्री जानते हैं कि हमारा देश केवल साफ सफाई ना होने के कारण उत्पन्न संकटों के कारण हर साल 54 अरब डालर का नुकसान सहता है। इसमें बीमारियां, व्यापारिक व अन्य किस्म के घाटे शमिल है। यदि भारत में लेाग कूड़े का प्रबंधन व सफाई सीख लें तो औसतन हर साल रू.1321 का लाभ होना तय है। लेकिन जैसे-जैसे दिन आगे बढ़े, आम लोगों से ले कर शीर्ष नेता तक वे वादे, शपथ और उत्साह हवा हो गए।
इतने विज्ञापन, अपील के बाद भी तब से अकेले दिल्ली में तीन बार सफाई कर्मचारी बड़ी हड़ताल कर चुके हैं और महीनों महानगर के मुख्य मार्ग कूड़े से बजबजाते रहे। वैसे भी दिल्ली में आज भी हर दिन नौ टन कूड़ा बगैर उठान के सड़क पर ही पड़ा रहता है। यहां से थोड़ा दूर निकलें- मथुरा, या मेरठ, पटना या सतना, लखनऊ या रायपुर, गंदगी के हालात यथावत या पहले से भी बदतर हैं। आंकड़ें जरूर शौचालय की संख्या की चीख मचाते हैं, लेकिन जिन गांवों में पानी का भीषण संकट है, जहां नालियों का गंदा पानी निस्तार व निबटान की कोई व्यवस्था ही नहीं है, वहां सरकारी फाईलों के शौचालय उपले या कबाड़ा रखने के ही काम आ रहे है।
दिल्ली सहित पूरे देश में जल भराव, गंदगी के कारण मचे मच्छरों के आतंक ने हर स्थानीय निकाय के ‘स्वच्छता अभियान’ को ले कर उकेरे गए कागजी शेरों की हकीकत बयान कर दी है। विडंबना है कि इतनी लापरवाही के लिए आज तक कोई भी जिम्मेदार अधिकारी दंडित नहीं किया गया। कहीं सवाल नहीं उठे कि नालों की सफाई, गाद उठाई, यदि कायदे से हुई थी तो पानी क्यों भरा व मच्छर क्यों पनपे।
‘‘मैं गंदगी को दूर करके भारत माता की सेवा करूंगा। मैं शपथ लेता हूं कि मैं स्वयं स्वच्छता के प्रति सजग रहूंगा और उसके लिए समय दूंगा। हर वर्ष सौ घंटे यानी हर सप्ताह दो घंटे श्रम दान करके स्वच्छता के इस संकल्प को चरितार्थ करूंगा। मैं न गंदगी करूंगा, न किसी और को करने दूंगा। सबसे पहले मैं स्वयं से, मेरे परिवार से, मेरे मोहल्ले से, मेरे गांव से और मेरे कार्यस्थल से शुरुआत करूंगा। मैं यह मानता हूं कि दुनिया के जो भी देश स्वच्छ दिखते हैं उसका कारण यह है कि वहां के नागरिक गंदगी नहीं करते और न ही होने देते हैं। इस विचार के साथ मैं गांव-गांव और गली-गली स्वच्छ भारत मिशन का प्रचार करूंगा। मैं आज जो शपथ ले रहा हूं वह अन्य सौ व्यक्तियों से भी करवाऊंगा, ताकि वे भी मेरी तरह सफाई के लिए सौ घंटे प्रयास करें। मुझे मालूम है कि सफाई की तरफ बढ़ाया गया एक कदम पूरे भारत को स्वच्छ बनाने में मदद करेगा। जय हिंद।’’ यह शपथ दो अक्तूबर को पूरे देश में सभी कार्यालयों, स्कूलों, जलसों में गूंजी थी। उस समय लगा था कि आने वाले एक-दो साल में देश इतना स्वच्छ होगा कि हमारे स्वास्थ्य जैसे बजट का इस्तेमाल अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं के निदान पर होगा। दुर्भाग्य से इस नारे को उछालने में जितना धन व्ययव हुआ, उसका पासंग भी सफाई की दिशा में सकारात्मक काम नहीं दिखा। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि हम भारतीय केवल उत्साह, उन्माद और अतिरेक में नारे तो लगाते है। लेकिन जब व्याहवारिकता की बात आती है तो हमारे सामने दिल्ली के कूड़े के ढेर जैसे हालात होते हैं जहां गंदगी से ज्यादा सियासत प्रबल होती है।
भारत में स्वच्छता का नारा काफी पुराना है। सन 1999 में भी संपूर्ण स्वच्छता अभियान चलाया गया था लेकिन अभी भी देश की एक बड़ी आबादी का जीवन गंदगी के बीच ही गुजर रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार राष्ट्रीय स्वच्छता कवरेज 46.9 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह औसत केवल 30.7 प्रतिशत है। अभी भी देश की 62 करोड़ 20 लाख की आबादी (राष्ट्रीय औसत 53.1 प्रतिशत) खुले में शौच करने को मजबूर हैं। राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय के उपयोग की दर 13.6 प्रतिशत, राजस्थान में 20 प्रतिशत, बिहार में 18.6 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत है। भारत के केवल ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्र में शौचालयों का अभाव है। यहां सार्वजनिक शौचालय भी पर्याप्त संख्या में नही हैं, जिसकी वजह से हमारे शहरों में भी एक बड़ी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है। इसी तरह से देश में करीब 40 प्रतिशत लोगों को स्वच्छ पीने योग्य पानी उपलब्ध नहीं है। यही नहीं दिल्ली सहित लगभग सभी नगरों से साल दर साल कूड़े का ढ़ेर बढ़ता जा रहा है जबकि उसके निष्पादन के प्रयास बेहद कम हैं। हर नगर कूड़े के ढलाव से पट रहा है और उससे बदूबू, भेजल प्रदूशण, जमीन का नुकसान जैसे कभी ठीक ना होने वाले विकार भी उत्पन्न हो रहे हैं।
पिछले एक साल के दौरान दिल्ली हो या कहीं दूरस्थ नगर पालिका, कई जगह सफाईकर्मी हड़ताल पर गए और उन्होंने विरोध स्वरूप कूड़ा, सड़कों पर उड़ेला। जिन जगहों पर राजनेताओं ने अपने फोटों खिंचवाए थे, उनमें से अधिकांश पूर्ववत गंदगी से बजबजा रहे हैं। लगता है कि कूड़ा हमारी राजनीति व सोच का स्थाई हिस्सा हो गया है। दिल्ली से चिपके गाजियााबद में एक निगम पार्षद व एक महिला दरोगा का आपसी झगड़ा हुआ व पार्षद  के समर्थन में सफाई कर्मचारियों ने दरोगा के घर के बारह रेहड़ी भर कर बदबूदार कूड़ा डाल दिया। प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र बनारस, जहां मिनी सचिवालय, क्योटो हर का सपना और सत्ता के सभी तंत्र सक्रिय हैं, शहर में कूड़े व गंदगी का आलम यथावत है। अभी एक प्रख्यात अंतरराष्ट्रीय समाचार संस्था ने अपनी वेबसाईट पर शहर के दस प्रमुख स्थानों पर कूड़े के अंबार के फोटो दिए है।, जिनमें बबुआ पांडे घाट, बीएचईएल, पांडे हवेली, रवीन्द्रपुरी एक्सटेंशन जैसे प्रमुख स्थान कई टन कूड़े से बजबजाते दिख रहे है।
शायद यह भारत की रीति ही है कि हम नारों के साथ आवाज तो जोर से लगाते हैं लेकिन उनके जमीनी धरातल पर लाने में ‘किंतु-परंतु’ उगलने लगते हैं। कहा गया कि भातर को आजादी अहिंसा से मिली, लेकिन जैसे ही आजादी मिली, दुनिया के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक विभाजन के दौरान घटित हो गया और बाद में अहिंसा का पुजारी हिंसा के द्वारा ही गौलोक गया। ‘‘यहां शराब नहीं बेची जाती है’’ या ‘‘देखो गधा मूत रहा है’’ से लेकर ‘दूरदृश्टि- पक्का इरादा’, ‘‘अनुशासन ही देश को महान बनाता है’’ या फिर छुआछूत, आतंकवाद, सांप्रदायिक सौहार्द या पर्यावरण या फिर ‘बेटी बचाओ’- सभी पर अच्छे सेमिनार होते हैं, नारे व पोस्ट गढ़े जाते हैं, रैली व जलसे होते हैं, लेकिन उनकी असलियत दीवाली पर हुई हरकतों पर उजागर होती है। हर इंसान चाहता है कि देश में बहुत से शहीद भगत सिंह पैदा हों, लेकिन उनके घर तो अंबानी या धोनी ही आए, पड़ोस में ही भगत सिंह जन्मे, जिसके घर हम कुछ आंसु बहाने, नारे लगाने या स्मारक बनाने जा सकें। जब तक खुद दीप बन कर जलने की क्षमता विकसित नहीं होगी, तब तक दीया-बाती के बल पर अंधेरा जाने से रहा। प्रधानमंत्री का एक विचार आम लेागों को देना व उसके क्रियान्वयन के लिए शुरूआत करना है, उसे आगे बढ़ाना आम लोगों व तंत्र की जिम्मेदारी है। विडंबना है कि पूरे दो साल बीतने के बाद भी आम लोग दिल व दिमाग से इस महत्वपूर्ण अभियान से जुड़ नहीं पाए और यह नारे या रस्म अदायगी से ज्यादा आगे बढ़ नहीं पाया। अब तो लगता है कि सामुदायिक व स्कूली स्तर पर इस बात के लिए नारे गढ़ने होंगे कि नारों को नारे ना रहने दो, उन्हें ‘नर-नारी’ का धर्म बना दो।

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