कौन सिखाएगा सड़क-संस्कार ?
देश की राजधानी दिल्ली हो या राज्य की जयपुर या भोपाल या फिर दूरस्थ गांवों तक, आम आदमी इस बात से सदैव रूष्ट मिलता है कि उसके यहां की सड़क टूटी है, संकरी है, या काम की ही नहीं है। लेकिन समाज कभी नहीं समझता कि सड़कों की दुर्गति करने में उसकी भी भूमिका कम नहीं है। अब देशभर में बाईस लाख करोड़ खर्च कर सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। श्वेत क्रांति व हरित क्रांति के बाद अब देश सड़क-क्रांति की ओर अग्रसर है। यह तो जान लेना चाहिए कि सड़क निर्माण पर खर्च होने वाली राशि कहीं आसमान से नहीं टपकेगी। यह हमारी-तुम्हारी जेब से ही निकाली जाएगी, टैक्स के नाम पर या और किसी माध्यम से। इतनी बड़ी राशि खर्च कर तैयार सड़कों का रखरखाव भी महंगा होगा। अभी तक देश में बिछी सड़कों के जाल के रखरखाव पर सालाना खर्च इससे भी अधिक होता है।
लेकिन यह नसीहत कौन दे कि लोगों को अब सड़क-इस्तेमाल करने के संस्कार सीखने होंगे। अभिप्राय तो सही तरीके से ड्राइविंग या पैदल चलने वालों को रास्ता देने के शिष्टाचार से होगा। यह एक चिंता का विषय है कि जिस देश में हर साल लगभग एक लाख लोग सड़क हादसों में मारे जा रहे हों, वहां तेज गति के वाहन चलने वाले सुपरफास्ट एक्सप्रेस वे बनाना कहां तक न्यायोचित व प्रासंगिक है ? एक्सप्रेस वे पर चलने के सामान्य शिष्टाचार की धज्जियां उड़ती देखना हो तो राजधानी दिल्ली से 30-40 किमी दूरी पर मथुरा या करनाल हाईवे पर देख सकते हैं। यहां विपरीत दिश में चलते वाहन, बैलगाड़ी या ट्रैक्टर का मनमाने तरीके से संचालन, ‘‘जुगाड़’’ जैसे गैरकानूनी वाहनों में भरी भीड़ व ओवरलोड टैंपो या बसों की भागमभाग, ओवरटक करते वाहन देखे जा सकते हैं। सड़क के व्यस्ततम समय में टोल नाकों पर वाहनों की लंबी लाईन, और वहां पहले निकलने की होड़ में एक दूसरे को धकियाते वाहन और उनको नियंत्रित करने वाली किसी व्यवस्था का न होना दर्शाता है कि हिंदुस्तान के लेाग अभी ऐसी सड़कों पर चलने के लायक नहीं हैं। साथ ही हमारी व्यवस्थाएं भी इतनी चाक चौबंद नहीं हैं कि 100 या 120 किमी प्रतिघंटे की गति से वाहन दौड़ाने वाली सड़कों पर खूनी खेल होने से रोक सके। सुपरफास्ट ट्रैफिक के लिए बनी सड़कों के फ्लाई ओवरों पर साईकल रिक्शा, या रेहड़ी का बीच में ही अटक जाना व उसके पीछे ओटोमोबाईल वाहनों का रेंगना सड़क के साथ-साथ इंधन की भी बर्बादी करता है, लेकिन इस की देखभाल के लिए कोई नहीं है।
कुल मिला कर हमारी सोच बेहद थोथी है। दिल्ली से ग्रेटर नोएडा के बीच सरपट रोड के दोनों ओर अब मकान और दुकान ही देखने लगे हैं। ग्रेटर नोएडा से आगरा के बीच ताज एक्सप्रेस वे पर पांच नए शहर बसाने के लिए बड़े-बड़े प्राईवेट बिल्डरों को ठेका दिया जा रहा है। जाहिर है कि यहां की संभावित लाखों-लाख आबादी अपने दैनिक उपयोग के लिए इसी एक्सप्रेस -वे का इस्तेमाल करेगी। इस पर इक्का-तांगा भी चलेंगे और साईकिल और रिक्शा भी। जाहिर है कि इस सड़क की हालत बहुत-कुछ राजधानी दिल्ली की आउटर रिंग रोड की तरह हो जाएगी। भले ही पाकिस्तान की वित्तीय व प्रशासनिक स्थिति हमसे दोयम हो, लेकिन वहां यूरोप-अमेरिका की तर्ज पर हाईवे पर चप्पे-चप्पे पर कैमरे लगे हैं। हाईवे पर कम स्पीड के वाहन चलने पर पाबंदी है और बेतरतीब गाड़ी पार्क करने का मतलब तत्काल भारी जुर्माना है। यही नहीं निर्धारित स्पीड से अधिक पर गाड़ी चलाने पर कैमरे में कैद हो कर भारी जुर्माना लगाया जाता है। लेकिन हमारे देश में एक भी सड़क ऐसी नहीं है, जिस पर कानून का राज हो। गोपीनाथ मुंडे, राजेश पायलेट, साहिब सिंह वर्मा जैसे कद्दावर नेताओं को हम सड़क की साधारण लापरवाहियों के कारण गंवा चुके हैं। लेकिन सरकार में बैठे लोग माकूल कानूनों के प्रति बेपरवाह हैं।
सड़कों पर इतना खर्च हो रहा है, उसके रखरखाव करने वाले महकमों के वेतन व सुविधाओं पर हर रोज लगभग दो करोड़ रूपए खर्च हो रहे हैं इसके बावजूद सड़कों पर चलना यानी अपने को, सरकार को व उस पर चल रहे वाहनों को कोसने का नाम हो गया है। पहले तो देखें कि सड़क की दुर्गति कैसे होती है। सड़कों के निर्माण में नौसिखियों व ताकतवर नेताओें की मौजूदगी कमजोर सड़क की नींव खोेद देती है। यह विडंबना है कि देशभर में सड़क बनाते समय उसके सुपरवीजन का काम कभी कोई तकनीकी विषेशज्ञ नहीं करता है। सड़क ढ़ालने की मशीन के चालक व एक मुंशी, जो बामुश्किल आठ दर्जा पास होता है, सड़क बना डालता है। यदि कुछ विरले मामलों को छोड़ दिया जाए तो सड़क बनाते समय डाले जाने वाले बोल्डर, रोड़ी, मुरम की सही मात्रा कभी नहीं डाली जाती है। शहरों में तो सड़क किनारे वाली मिट्टी उठा कर ही पत्थरों को दबा दिया जाता है। कच्ची सड़क पर वेक्यूम सकर से पूरी मिट्टी साफ कर ही तारकोल डाला जाना चाहिए, क्योंकि मिट्टी पर गरम तारकोल वैसे तो चिपक जाता है, लेकिन वजनी वाहन चलने पर वहीं से उधड़ जाता है। इस तरह के वेक्यूम-सकर से कच्ची सड़क की सफाई कहीं भी नहीं होती है। हालांकि इसके बिल जरूर फाईलों में होते है। इसी तरह सड़क बनाने से पहले पक्की सड़क के दोनों ओर कच्चे में खरंजा लगाना जरूरी होता है। यह तारकोल को फैलने से रोकता है व इस में रोड़ी मिल कर खरंजे के दबाव में एक सांचे सी ढ़ल जाती है। आमतौर पर ऐसे खरंजे कागजों में ही सिमटे होते हैं। कहीं ईंटें बिछाई भी जाती है तो उन्हें मुरम या सीमेंट से जोड़ने की जगह महज वहां से खोदी मिट्टी पर टिका दिया जाता है। इससे थोड़ा पानी पड़ने पर ही ईंटें ढ़ीली हो कर उखड़ आती हैं। यहां से तारकोल व रोड़ी के फैलाव व फटाव की शुरूआत होती है ।
सही सुपरवीजन नहीं होने के कारण सड़क का ढलाव ठीक न होना भी सड़क कटने का बड़ा कारण है। सड़क बीच में से उठी हुई व सिरों पर दबी होना चाहिए, ताकि उस पर पानी पड़ते ही किनारों की ओर बह जाए। लेकिन शहरी सड़कों का तो कोई लेबल ही नहीं होता है। बारिश का पानी यहां-वहां बेतरतीब जमा होता है और यह जान लेना जरूरी है कि पानी सड़क का सबसे बड़ा दुश्मन है। सड़क किनारे नालियों की ठीक व्यवस्था न होना भी सड़क की दुश्मन है। नालियों का पानी सड़क के किनारों को काटता रहता है। एक बार तारकोल कटा तो वहां से गिट्टी, बोल्डर का निकलना रुकता नहीं है।
सड़कों की दुर्गति में हमारे देश का उत्सव-धर्मी चरित्र भी कम दोषी नहीं है। महानगरों से लेकर सुदूर गांवों तक घर में शादी हो या भगवान की पूजा, किसी राजनैतिक दल का जलसा हो या मुफ्त लगा लंगर; सड़क के बीचों-बीच टेंट लगाने में कोई संकोच नहीं होता है। टेंट लगाने के लिए सड़कों पर चार-छह इंच गोलाई व एक फीट गहराई के कई छेद करे जाते हैं। उत्सव समाप्त होने पर इन्हें बंद करना अपनी शान में गुस्ताखी माना जाता है। इन छेदों में पानी भरता है और सड़क गहरे तक कटती चली जाती है। कुछ दिनों बाद कटी-फटी सड़क के लिए सरकार को कोसने वालों में वे भी शामिल होते हैं, जिनके कुकर्मों का खामियाजा जनता के पैसे से बनी सड़क को उठाना पड़ रहा होता है।
नल, टेलीफोन, सीवर, पाईप गैस जैसे कामों के लिए सरकारी मकहमे भी सड़क को चीरने में कतई दया नहीं दिखाते हैं । सरकारी कानून के मुताबिक इस तरह सड़क को नुकसान पहुंचाने से पहले संबंधित महकमा स्थानीय प्रशासन के पास सड़क की मरम्मत के लिए पैसा जमा करवाता है। लेकिन सड़कों की दुर्गति यथावत रहती है। नया मकान बनाने या मरम्मत करवाने के लिए सड़क पर ईंटें, रेत व लोहे का भंडार करना भी सड़क की आयु घटाता है। हमारे देश की नई कालेानियों में भी पानी की मुख्य लाईन का पाईप एक तरफ ही होता है, यानी जब दूसरी ओर के बाशिंदे को अपने घर तक पाईप लाना है तो उसे सड़क खोदना ही होगा। एक बार खुदी सड़क की मरम्मत लगभग नामुमकिन होती है। सड़क पर घटिया वाहनोें का संचालन भी उसका बड़ा दुश्मन है। यह दुनिया में शायद भारत में ही देखने को मिलेगा कि सरकारी बसें हों या फिर डग्गामारी करती जीपें, निर्धारित से दुगनी तक सवारी भरने पर रोक के कानून महज पैसा कमाने का जरिया मात्र हाते हैं। ओवरलोड वाहन, खराब टायर, दोयम दर्जे का ईंधन ये सभी बातें भी सरकार के चिकनी रोड के सपने को साकार होने में बाधाएं हैं।
सवाल यह खड़ा होता है कि सड़क-संस्कार सिखाएगा कौन ? ये संस्कार सड़क निर्माण में लगे महकमों को भी सीखने होंगे और उसकी योजना बनाने वाले इंजीनियरों को भी। संस्कार से सज्जित होने की जरूरत सड़क पर चलने वालों को भी है और यातायात व्यवस्था को ठीक तरह से चलाने के जिम्मेदार लोगों को भी। सड़क के संस्कार अक्षुण्ण रहें, यह सुनिश्चित करने का जिम्मा उन एजंसियों का भी है जो सड़क से टोल टैक्स उगाह रहे हैं तो उन लोगों पर भी जो अपने रूतबे या भदेसपन का नाजायज फायदा उठा कर सड़क के कानूनों को तोड़ते हैं। सड़क घेर कर उत्सव मनाने वालों या उस पर बिल्डिंग मटैरियल फैलाने वालों पर कड़ी कानूनी कार्यवाही करना महति है, क्योंकि सुंदर सड़कें किसी राष्ट्र की प्रगति की प्रतीक हैं और सड़क पर अनाधिकृत कब्जा करने वाले देश की प्रगति के बाधक हैं।
वैसे तो यह समाज व सरकार दोनों की साझा जिम्मेदारी है कि सड़क को साफ, सुंदर और सपाट रखा जाए। लेकिन हालात देख कर लगता है कि कड़े कानूनों के बगैर यह संस्कार आने से रहे।
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