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शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

Control Pollution : do not wait for next Diwali

इंतजार ना करें अगली दीवाली का, दिल्ली के सिखों से लें सीख

पंकज चतुर्वेदी,
दीपावली के बाद दिल्ली ही नहीं देश के बड़े हिस्से में ‘स्मॉग’ ने जो हाल किया उसे याद कर ही सिरहन आ जाती है। स्मॉग यानि फॉग यानि कोहरा और स्मोक यानि धुआं का मिश्रण। इसमें जहरीले कण शामिल होते हैं जो कि भारी होने के कारण उपर उठ नहीं पाते व इंसान की पहुंच वले वायुमंडल में ही रह जाते हैं। जब इंसान सांस लेता है तो ये फेफड़े में पहुंच जाते हैं। किस तरह दमा और सांस की बीमारी के मरीज बेहाल रहे, किस तरह आठ दिन सड़कों पर यातायात प्रभावित हुआ, कई दुर्घटनाएं हुई व लोग मारे गए, कई हजार लोग ब्लड प्रेशर व हार्ट अटैक की चपेट में आए- इसके किस्से हर कस्बे, शहर में हैं।

 पिछले साल 28 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह कहते हुए आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबंदी से इंकार कर दिया था कि इसके लिए पहले से ही दिशा-निर्देश उपलब्ध हैं व सरकार को इस पर अमल करना चाहिए। तीन मासूम बच्चों ने संविधान में प्रदत्त जीने के अधिकार का उल्लेख कर आतिशबाजी के कारण सांस लेने में होने वाली दिक्कत को लेकर सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी कि आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी जाए। सरकार ने अदालत को बताया था कि पटाखे चलाना, प्रदूषण का अकेला कारण नहीं है। अदालत ने भी पर्व की जन भावनाओं का खयाल कर पाबंदी से इंकार कर दिया, लेकिन बीती दीपावली की रात दिल्ली व देश में जो कुछ हुआ, उससे साफ है कि आम लोग कानून को तब तक नहीं मानते है,जब तक उसका कड़ाई से पालन ना करवाया जाए। पूरे देश में हवा इतनी जहर हो गई कि 68 करोड़ लोगों की जिंदगी तीन साल कम हो गई।
अकेले दिल्ली में 300 से ज्यादा जगह आग लगी व पूरे देश में आतिशबाजी के कारण लगी आग की घटनाओं की संख्या हजारों में हैं। इसका आंकड़ा रखने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कितने लेाग आतिशबाजी के धुंए से हुई घुटन के कारण अस्पताल गए। दीपावली की रात प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी व देश के लिए अनिवार्य ‘‘स्वच्छता अभियान’’ की दुर्गति देशभर की सड़कों पर देखी गई। हालांकि इस बीच एक उम्मीद की किरण दिल्ली में सिख समाज की ओर से आई है। आगामी 14 नवंबर को श्री गुरूनानक देव के प्रकाशोत्सव पर होने वाले आयोजन व जुलूस में किसी भी प्रकार की आतिशबाजी ना चलाने की अपील दिल्ली सिख गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने की है।

दीपावली की अतिशबाजी ने राजधानी दिल्ली की आबोहवा को इतना जहरीला कर दिया गया कि बाकायदा एक सरकारी सलाह जारी की गई थी कि यदि जरूरी ना हो तो घर से ना निकलें। कई स्कूल बंद किए गए। इस बार दीपावली पर लक्ष्मी पूजा का मुहर्त कुछ जल्दी था, यानि पटाखे चलाने का समय ज्यादा हो गया। फेफड़ों को जहर से भर कर अस्थमा व कैंसर जैसी बीमारी देने वाले पीएम यानि पार्टिक्यूलर मैटर अर्थात हवा में मौजूद छोटे कणों की निर्धारित सीमा 60 से 100 माईक्रो ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है, जबकि दीपावली की शाम से यही यह सीमा 900 के पार तक हो गई। ठीक यही हाल ना केवल देश के अन्य महानगरों के बल्कि प्रदेशों की राजधानी व मंझोले शहरों के भी थे। सनद रहे कि पटाखे जलाने से निकले धुंए में सल्फर डाय आक्साईड, नाईट्रोजन डाय आक्साईड, कार्बन मोनो आक्साईड, शीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर सांसों के जरिये शरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश में मैाजूद पशु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाए तो भयानक वायु प्रदूषण होता है। यदि इसके कागज वले हिस्से को रिसाईकल किया जाए तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है।

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और यदि इसे डंपिंग में यूं ही पड़ा रहने दिया जाए तो इसके विषैले कण जमीन में जज्ब हो कर भूजल व जमीन को स्थाई व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। आतिशबाजी से उपजे शोर के घातक परिणाम तो हर साल बच्चे, बूढ़े व बीमार लोग भुगतते ही हैं। दिल्ली के दिलशाद गार्डन में मानसिक रोगों का बड़ा चिकित्सालय है। यहां अधिसूचित किया गया है कि दिन में 50 व रात में 40 डेसीबल से ज्यादा का शोर ना हो। लेकिन यह आंकड़ा सरकारी मॉनिटरिंग एजेंसी का है कि दीपावली के पहले से यहां शोर का स्तर 83 से 105 डेसीबल के बीच है। दिल्ली के अन्य इलाकों में यह 175 तक पार गया है।

हालांकि यह सरकार व समाज दोनों को भलीभांति जानकारी थी कि रात 10 बजे के बाद पटाखे चलाना अपराध है। कार्रवाई होने पर छह माह की सजा भी हो सकती है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2005 में दिया था जो अब अब कानून की शक्ल ले चुका है। 1998 में दायर की गई एक जनहित याचिका और 2005 में लगाई गई सिविल अपील का फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे। 18 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी और न्यायमूर्ति अशोक शर्मा ने बढ़ते शोर की रोकथाम के लिए कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारों की आड़ में दूसरों को तकलीफ पहुंचाने, पर्यावरण को नुकसान करने की अनुमति नहीं देते हुए पुराने नियमों को और अधिक स्पष्ट किया, ताकि कानूनी कार्रवाई में कोई भ्रम न हो। अगर कोई ध्वनि प्रदूषण या सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्देशों का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ भादंवि की धारा 268, 290, 291 के तहत कार्रवाई होगी। इसमें छह माह का कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। पुलिस विभाग में हेड कांस्टेबल से लेकर वरिष्ठतम अधिकारी को ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर कार्रवाई का अधिकार है। इसके साथ ही प्रशासन के मजिस्ट्रियल अधिकारी भी कार्रवाई कर सकते हैं। विडंबना है कि इस बार रात एक बजे तक जम कर पटाखे बजे, ध्वनि के डेसीमल को नापने की तो किसी को परवाह थी ही नहीं, इसकी भी चिंता नहीं थी कि ये धमाके व धुआं अस्पताल, रिहाईशी इलााकों या अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में बेरोकटोक किए जाते रहे।
असल में आतिशबाजी को नियंत्रित करने की शुरूआत ही लापरवाही से है। विस्फोटक नियमावली 1983 और विस्फोटक अधिनियम के परिपालन में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिए थे कि 145 डेसीबल से अधिक ध्वनि तीव्रता के पटाखों का निर्माण, उपयोग और विक्रय गैरकानूनी है। प्रत्येक पटाखे पर केमिकल एक्सपायरी और एमआरपी के साथ-साथ उसकी तीव्रता भी अंकित होना चाहिए, लेकिन बाजार में बिकने वाले एक भी पटाखे पर उसकी ध्वनि तीव्रता अंकित नहीं है। सूत्रों के मुताबिक बाजार में 500 डेसीबल की तीव्रता के पटाखे भी उपलब्ध हैं। यही नहीं चीन से आए पटाखों में जहर की मात्रा असीम है व इस पर कहीं कोई रोक टोक नहीं है। कानून कहता है कि पटाखा छूटने के स्थल से चार मीटर के भीतर 145 डेसीबल से अधिक आवाज नहीं हो। शांति क्षेत्र जैसे अस्पताल, शैक्षणिक स्थल, न्यायालय परिसर व सक्षम अधिकारी द्वारा घोषित स्थल से 100 मीटर की परिधि में किसी भी तरह का शोर 24 घंटे में कभी नहीं किया जा सकता।
पिछले साल अदालत ने तो सरकार को समझाईश दे दी थी कि केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारें पटाखों के दुष्प्रभावों के बारे में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में व्यापक प्रचार करें और जनता को इस बारे में सलाह दे। लेकिन छट पूजा के अवसर पर दिल्ली में मुख्यमंत्री की मौजूदगी में लेाग आतिशबाजी चलाते रहे व उन्होंने एक नागरिक की तरह लोगों को ऐसा करने से रोका नहीं। इस साल तो सरकार ने विज्ञापन भी जारी नहीं किए, देशभर के स्कूलों में बच्चों को आतिशबाजी ना चलाने की शपथ, रैली जैसे प्रयोग भी बहुत कम हुए। टीवी व अन्य प्रचार माध्यमों ने भी इस पर कोई अभियान चलाया नहीं था, लेकिन 30 अक्तूबर की रात बानगी है कि सभी कुछ महज औपचारिकता, रस्म अदायगी या ढकोसला ही रहा। यह जान लें कि दीपावली पर परंपराओं के नाम पर कुछ घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाईयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है। हालांकि इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि आतिशबाजी चलाना सनातन धर्म की किसी परंपरा का हिस्सा है, यह तो कुछ दशक पहले विस्तारित हुई सामाजिक त्रासदी है। आतिशबाजी पर नियंत्रित करने के लिए अगले साल दीपावली का इंतजार करने से बेहतर होगा कि अभी से ही आतिशबाजियों में प्रयुक्त सामग्री व आवाज पर नियंत्रण, दीपावली के दौरान हुए अग्निकांड, बीमार लोग, बेहाल जानवरों की सच्ची कहानियां सतत प्रचार माध्यमों व पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचाने का कार्य शुरू किया जाए। यह जानना जरूरी है कि दीपावली असल में प्रकृति पूजा का पर्व है, यह समृद्धि के आगमन और पशु धन के सम्मान का प्रतीक है। इसका राष्ट्रवाद और धार्मिकता से भी कोई ताल्लुक नहीं है। यह गैरकानूनी व मानव-द्रोही कदम है। हो सकता है कि अभी आप 500 और 1000 के नोट के विमर्श में डूबे हों लेकिन आतिशबाजी के खिलाफ आने वाले एक साल तक व्यापक अभियान चलाने की जरूरत है, वरना हम दो हजार के नए नोट की पूजा करने लायक समाज का हिस्सा नहीं रह पाएंगे। काश हम दिल्ली के सिख समाज से कुछ सीख ले पाएं।

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