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शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

Biodiversity on target of smuggelers

तस्करों के निशाने पर औषधियां

जैव विविधता संरक्षण के लिए भारत को होना होगा सचेत

विदेशी वैज्ञानिकों की नजर अब भारत के जंगलों में मिलने वाले कोई एक दर्जन पौधों पर है। अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिक तथा दवा कंपनियों के लोग पर्यटक बन कर भारत आते हैं और स्थानीय लोगों की मदद से जड़ी-बूटियों के पारंपरिक इस्तेमाल की जानकारियां हासिल करते हैं। 1998 में मध्य प्रदेश के जंगलों में जर्मनी की एक दवा कंपनी के प्रतिनिधियों को कुछ पौधों की पहचान करते हुए पकड़ा गया था

 

भारत में तस्करों की पसंद वह नैसर्गिक संपदा है, जिसके प्रति भारतीय समाज लापरवाह हो चुका है, लेकिन पश्चिमी देश उसका महत्व समझ रहे हैं। यह महज नैतिक और कानून सम्मत अपराध ही नहीं है, बल्कि देश की जैव विविधता के लिए ऐसा संकट है, जिसका भविष्य में कोई समाधान नहीं होगा। भारत में लगभग 45 हजार पौधों के प्रजातियों की जानकारी है, जिनमें से कई भोजन या दवाईयों के रूप में बेहद महत्वपूर्ण हैं। दुर्लभ कछुओं, केकड़ों और तितलियों को अवैध तरीके से देश से बाहर भेजने के कई मामले अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पकड़े जा चुकेहैं। देश के दूरस्थ अंचलों में स्थानीय पेड़-पौधों, पशु-पक्षी, तितली-कीट की प्रजातियां या तो कीटनाशक दवाओं के अंधाधुध इस्तेमाल या फिर तस्करों के हाथों विलुप्त होती जा रही हैं। हमारा जल, मिट्टी, फसल और जीवन इन्हीं विविध जीवों और फसलों के आपसी सामंजस्य से चलता है। खेतों में चूहे भी जरूरी हैं और चूहों का बढ़ना रोकने के लिए सांप भी। सांप पर काबू पाने के लिए मोर व नेवले भी हैं। लेकिन कहीं खूबसूरत चमड़ी या पंख के लिए तो कहीं जैव विविधता की अनबुझ पहेली के गर्भ तक जाने को व्याकुल वैज्ञानिकों के प्रयोगों के लिए भारत के जैव संसार पर तस्करों की निगाहें लगी हुई हैं। वक्त साक्षी है कि पिछले कुछ वर्षो में चावल और गेहूं की कई किस्मों, जंगल के कई जानवरों व पंक्षियों को हम दुर्लभ बना चुके हैं। इसका खामियाजा भी समाज भुगत रहा है।
भारत सरकार ने 41 जड़ी बूटियों के दोहन पर रोक लगा रखी है। इसके बावजूद अतीश, दंदासा, तालीस, कुटकी, डोलू, गंद्रायण, सालम मिस्नी, जटामोसी, महामेदा, सोम आदि स्थानीय बाजार में सस्ते दामों में बिकती मिल जाती हैं। हालात इतने गंभीर हैं कि गढ़वाल की भिलंगना घाटी में गत एक दशक के दौरान 22 पादप प्रजातियां विलुप्त हो गईं। 60 प्रजातियों का जीवन-चक्र सिर्फ तीन चार साल का रह गया है। कुमाऊं और पिथौरागढ़ की शारदा नदी के किनारे के वनों से कोई 40 प्रजाति के पौधे आगामी पांच सालों में नदारद हो जाएंगे। नेपाल की सीमा पर धनगढ़ी, रक्सौल, वीरगंज, हेटोडा, नेपालगंज के महंगे होटलों में तस्कर सूचना उपकरणों से लैस पूरे साल डटे रहते हैं। ये लोग उन जड़ी-बूटियों और उनके खरीदारों के सतत संपर्क में रहते हैं, जिनकी मांग अमेरिका और यूरोप में है। लेकिन भारत में उन पर पाबंदी है। भारत के हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों व दवाईयों की बाहर जबरदस्त मांग है। नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट ऑफ अमेरिका(एनसीआई) के एक शोध के मुताबिक भारत के पहाड़ों पर मिलने वाली आयुर्वेदिक वनौषधि ‘टेक्सोल’ में गर्भाशय का कैंसर रोकने की जबरदस्त क्षमता है। फिर क्या था, देखते ही देखते नेपाल की सीमा से सटे हिमालयी इलाकों में पाए जाने वाले ‘तालीस पत्र’ नामक पेड़ पर जैसे कहर आ गया हो। यही तालीस पत्र टेक्सोल है और कभी चप्पे-चप्पे पर मिलने वाले इसके पेड़ अब दुर्लभ हो गए हैं। डॉबर, नेपाल ने तो बाकायदा इसकी खेती और उसे अमेरिका एवं इटली को बेचने के लिए अनुबंध कर रखे हैं। अरुणाचल प्रदेश की दिबांग और लोहित घाटियों में ‘मिशामी टोटा’ का टोटा होना अभी की ही बात है। डिब्रुगढ़ के बाजार में अचानक इसकी मांग बढ़ी और देखते ही देखते इसकी नस्ल ही उजाड़ दी गई। स्थानीय लोग इसका इस्तेमाल पेट दुखने व बुखार के इलाज के लिए सदियों से करते आ रहे थे। डिब्रुगढ़ में इसके दाम दो हजार रुपये किलो हुए तो कोलकाता के बिचौलियों ने इसे पांच हजार में खरीदा। वहां से इसे तस्करी के पंख लगे और जापान व स्विट्जरलैंड में इसके जानकारों ने पचास हजार रुपये किलो की दर से भुगतान कर दिया। ठीक यही हाल ‘अगर’ नाम सुगंधित औषधि का हुआ। इसके तेल की मांग अरब देशों में बहुत है। यहां तक कि सौ ग्राम तेल के एक लाख रुपये तक मिलते हैं।
एड्स और कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों का इलाज खोज रहे विदेशी वैज्ञानिकों की नजर अब भारत के जंगलों में मिलने वाले कोई एक दर्जन पौधों पर है। अमेरिका और यूरोप के वनस्पति वैज्ञानिक तथा दवा कंपनियों के लोग कुछ वर्षो से पर्यटक बन कर भारत आते हैं और स्थानीय लोगों की मदद से जड़ी-बूटियों के पारंपरिक इस्तेमाल की जानकारियां प्राप्त करते हैं। बता दें कि 1998 में मध्य प्रदेश के जंगलों में जर्मनी की एक दवा कंपनी के प्रतिनिधियों को उस समय रंगे हाथों पकड़ा गया था, जब वे स्थानीय आदिवासियों की मदद से कुछ पौधों की पहचान कर रहे थे। देश के रेगिस्तानी इलाकों में मिलने वाली गूगल (कांपीफोरा वाईट्री) की एक विशेष प्रजाति में हृदय रोग के कारक कोलेस्ट्रोल को कम करने की क्षमता है। अश्वगंधा यानी विथानिया सोम्नीफेर तो याददाश्त, मानसिक रोगों, शारीरिक दुर्बलता जैसे विकारों में राम बाणा माना जाता है। इसमें कैंसर रोधी गुण भी हैं। इसी कारण इसकी बड़ी मात्र में तस्करी हो रही है। सांस संबंधी बीमारियों के इलाज के लिए पुश्तैनी रूप से इस्तेमाल होने वाले एक पौधे की भी खासी मांग है, इसे वैज्ञानिक भाषा में ‘इफेड्रा फोलियाटा’ कहा जाता है। अमेरिका में इस पौघे से दिल की ओर जाने वाली धमनियों को खेालने की दवा बनाने के प्रयोग चल रहे हैं। यदि ये सभी प्रयोग सफल हुए तो विदेशी कंपनियां हमारी इन जड़ी-बूटियों को अपने तरीके से पेटेंट करवा कर सारी दुनिया में व्यापार करेंगी। अरावली पर्वतमाला में मिलने वाले पौधे ‘बैलानाईट्स एजीप्टीनिया’ से ऐसा गर्भनिरोधक तैयार किया गया है, जिसके कोई साइड-इफेक्ट नहीं हैं। हिमालय क्षेत्र में मिलने वाले गुलाबी फूलों ‘बरबेरिस एरिस्टाका’ से आंख की बेहतरीन दवा तैयार की गई है।
लोक जीवन का अभिन्न हिस्सा नीम का कई बीमारियों व खेती-किसानी में उपयोग होता है। नीम भारतीय पेड़ है। इसके बावजूद 1995 में यूरोपीय पेटेंट प्राधिकरण ने अमेरिका के कृषि विभाग और रसायन कंपनी डब्ल्यू.जी. ग्रेस एंड कंपनी के नाम नीम के तेल से कीटनाशक बनाने का पेटेंट जारी कर दिया। समय रहते इस फैसले को चुनौती दी गई, तब डब्ल्यू.जी. ग्रेस कंपनी ने कई प्रमाण प्रस्तुत किए कि वे लंबे समय से इस दिशा में शोध कर रहे हैं। हालांकि कंपनी का दवा खारिज हुआ, लेकिन इससे पता चला कि किस तरह अमेरिकी कंपनियां लंबे समय से भारत से नीम के तेल की तस्करी कर ही थीं। ठीक ऐसा ही हल्दी के साथ भी हो चुका है। देश में इसके लिए सशक्त कानून ना होना हैरत करने वाला है। संसद ने 2002 में जैव विविधता कानून को मंजूरी दी थी। राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण के गठन की भी योजना बनाई गई थी पर नतीजा सिफर रहा। हमारे पारंपरिक ज्ञान व जैव विविधता का सौदा करने वाले लोग देश की अर्थ व्यवस्था पर प्रहार कर रहे हैं। इस बाबत सरकार भले ही देर से चेते पर समाज को गंभीरता से ध्यान देना होगा।

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