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सोमवार, 7 नवंबर 2016

some long term solution for pure air in delhi

चाहिए दूरगामी योजना 

 दीपावली का पर्व और ठंड का आगाज दिल्ली के लिए कयामत बन कर आया है। आने वाले कुछ दिन जब आकाश से ओस व कुहासा गिरेगा और धरती से वाहनों व कारखानों का धुआं तो हवा में भारी कणों की मात्रा अनियंत्रित हो जाएगी। इसका सीधा असर लेगों के सांस लेने पर पड़ेगा। बीते 17 वर्षो में सबसे बुरे हालात हुए हैं हवा के। गत पांच सालों के दौरान बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुना बढ़ गई है। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ोें के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। कुछ ही दिनों पहले ही विश्व स्वास्य संगठन ने दिल्ली को दुनिया का सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर के तौर पर चिह्नित किया है। दीपावली के बाद तो खेतों में डंठल जलाने, ईट भट्टों में कचरा फूंकने, उत्सवों की बाढ़ और सड़कों पर सारे दिन वाहनों का जाम होने के चलते हालात भयावह हो चुके हैं। दिल्ली की हवा में कितना जहर घुल गया है, इसका अंदाजा खौफ पैदा करने वालो आंकड़ों को बांचने से ज्यादा डॉक्टरों के एक संगठन के उस बयान से लगाया जा सकता है, जिसमें बताया गया है कि देश की राजधानी में 12 साल से कम उम्र के 15 लाख बच्चे ऐसे हैं, जो अपने खेलने-दौड़ने की उम्र में पैदल चलने पर ही हांफ रहे हैं। इनमें से कई सौ को तो डॉक्टर चेता चुके हैं कि जिंदगी चाहते हो तो दिल्ली से दूर चले जाएं। दरअसल, इस खतरे के मुख्य कारण 2.5 माइक्रोमीटर व्यास वाला धुएं में मौजूद एक पार्टिकल और वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण वायु प्रदूषण से हुई मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इस खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसद फेफड़े के कैंसर की वजह है। याद करें कुछ साल पहले अदालत ने दिल्ली में आवासीय इलाकों में दुकानें बंद करने, अवैध कालोनियों में निर्माण रोकने जैसे फैसले दिए थे, लेकिन वोट के लालच में सभी सियासती दल अदालत को जन विरोधी बताते रहे। परिणाम सामने हैं कि सड़कों पर व्यक्ति व वाहन चलने की क्षमता से कई सौ गुना भीड़ है। कहने को तो पार्टिकुलेट मैटर या पीएम के मानक तय हैं कि पीएम 2.5 की मात्रा हवा में 50 पीपीएम और पीएम-10 की मात्रा 100 पीपीएम से ज्यादा नहीं होना चाहिए। लेकिन दिल्ली का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां यह मानक से कम से कम चार गुना ज्यादा न हो। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों में जलन, फेफड़े खराब होना, अस्थमा, कैंसर व दिल के रोग। जाहिर है कि यदि दिल्ली की सांस थमने से बचाना है तो यहां न केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी शहर-कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंने जो दिल्ली शहर के लिए हों। दिल्ली को अर्बन स्लम बनने से बचाना है तो इसमें कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा, जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम करना। दिल्ली में बढ़ते जहरीले धुएं के लिए आम तौर पर इससे सटे इलाकों में खेतों में पुआल जलाने से उपजे धुएं को दोषी ठहराया जाता है जबकि इससे कई हजार गुना ज्यादा धुआं राजधानी की सीमा से सटे सैंकड़ों ईट-भट्टों से चौबीसों घंटे उपजता है। एनसीआर में तेजी से बढ़ रही आवास की मांग या रियल एस्टेट के व्यापार ने ईटों की मांग बेलगाम कर दी है। दिल्ली की गली-गली में घूम कर हर तरह का कूड़ा, कबाड़ा जुटाने वाले जानते हैं कि पानी की बेकार बेतल से लेकर फटे जूते तक को किस तरह ट्रकों में भरकर इन भट्टों में फूंका जाता है। उल्लेखनीय है कि इन दिनों भट्टे में जलाने के लिए कोयला या लकड़ी बेहद महंगी है जबकि प्लास्टिक का यह कबाड़ा अवांछित-सा दर-दर पड़ा होता है। केंद्र सरकार का कर्मचारियों को दफ्तरों में आने-जाने के समय पर कड़ाई से निगाह रखना भी दिल्ली एनसीआर में सड़कों पर जाम व उसके कारण जहरीले धुएं के अधिक उत्सर्जन का कारण बन गया है। सभी जानते हैं कि नए मापदंड वाले वाहन यदि चालीस या उससे अधिक की स्पीड में चलते हैं तो उनसे बेहद कम प्रदूषण होता है। लेकिन यदि ये पहले गियर में रैंगते हैं तो इनसे सॉलिड पार्टिकल, सल्फर डाय ऑक्साइड व कार्बन मोनो ऑक्साइड बेहिसाब उत्सर्जित होता है। कार्यालयों में उपस्थिति के नए कानून के चलते अब शहर में निजी व सरकारी, सभी कार्यालयों का आने-जाने का समय लगभग एक हो गया है और इसीलिए एक साथ बड़ी संख्या में वाहन चालक सड़क पर होते हैं। कार्यालयों में समय को ले कर अनुशासन बहेद अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण कदम हैं, लेकिन जहां कार्यालय आने-जाने के लिए लोग औसत चालीस से अस्सी किलोमीटर हर रोज सफर करते हों, वहां कार्यालयों के खुलने व बंद होने के समय में बदलाव करना बेहद जरूरी है। सबसे बड़ी बात दिल्ली में जो कार्यालय जरूरी न हों, या जिनका मंत्रालयों से सीधा संबंध न हों, उन्हें दिल्ली से बाहर भेजना भी अच्छा कदम हो सकता है। एक साल पहले दिल्ली सरकार ने एक बड़ा-सा एक्शन प्लान बनाया था। उसमें कार फ्री डे के अलावा कुछ काम नहीं हुआ। फिलहाल, एनजीटी डपट रहा है, दिल्ली व पड़ेासी राज्य के अफसर मीटिंग-मीटिंग खेल कर फाइलों का पेट भर रहे हैं। भले ही तात्कालिक उपाय कर लिए जाएं, लेकिन दिल्ली को जिंदा रखने के लिए दूरगामी व स्थायी योजना चाहिए वरना दिल्ली एनसीआर वासियों पर जो मौत मंडरा रही है, उससे एयर प्यूरीफायर, मास्क व ऐसे ही उपकरण बेचने वालों के व्यवसाय में इजाफे के अलावा किसी के जीवन के स्तर में सुधार आने से रहा।

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