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रविवार, 6 नवंबर 2016

Why our security personals are suffering rom tension ?

समस्याओं से घिरे सुरक्षा बल 

 

अपने साथियों और अफसरों को मारने के मामले बढ़े हैं। इन दिक्कतों को जानबूझ कर अनसुना किया जाता रहा है। सेना और अर्ध सैनिक बल के आला अफसरों पर लगातार विवाद होना, उन पर घूसखोरी के आरोप, सीमा या उपद्रव ग्रस्त इलाकों में जवानों को उचित सुविधाएं नहीं मिलने, उनके साथियों की मौत, सिपाही भर्ती में घूसखोरी की खबरों आदि के चलते सुरक्षा बल का मनोबल गिरा है

 

 

जब देश में सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर सेना की वाहवाही हो रही थी, ठीक उन्हीं दिनों दिल्ली की एक अदालत ने दक्षिण-पश्चिम कमांड के प्रभारी रहे मेजर जनरल आनंद कुमार कपूर को आय से अधिक संपत्ति के मामले में एक साल की सश्रम कारावास की सजा सुनाई थी। अभी तीन महीने पहले देहरादून में लेफ्टीनेंट कर्नल भारत जोशी को सीबीआई ने दस हजार की रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों गिरफ्तार किया था। मई में पूवरेत्तर के आईजोल में 39 असम राइफल्स के कर्नल जसजीत सिंह अपने नौ साथियों के साथ लगभग 15 करोड़ के सोने की तस्करी में गिरफ्तार हुए। ऐसी घटनाएं याद दिलवाने का कारण महज यही है कि सेना के जवान भी हमारे उसी समाज से आ रहे हैं जहां अनैतिकता, अराजकता, अधीरता तेजी से घर कर रही है। जिस तरह गैर-सैन्य समाज पर पाबंदी रखने, सतर्क करने के कई चैनल काम कर रहे हैं, सेना पर सवाल करने को किसी धार्मिक आस्था को चोट पहुंचाने जैसा कार्य नहीं मान लेना चाहिए। आंकड़े गवाह हैं कि बीते एक दशक में अपने ही लोगों के हाथों या आत्महत्या में मरने वाले सुरक्षाकर्मियों की संख्या देश विरोधी तत्वों से मोर्चा लेने में शहीदों से यादा रही है। वहीं सुरक्षा बलों में काबिल अफसरों की कमी, नौकरी छोड़ने की दर और क्वार्टर गार्ड या फौजी जेलों में आरोपी कर्मियों की संख्या में इजाफा, अदालतों में मुकदमेबाजी बढ़ी हैं। लोग भूल गए होंगे कि मई 2001 में एक फौजी सिपाही सुबाराम को फांसी की सजा सुनाई गई थी, क्योंकि उसने अपने अफसर को गोली मार दी थी। असल में, सुबाराम अपने साथियों की हत्या करने वाले आतंकवादियों को पनाह देने वालों को हाथों-हाथ सजा देना चाहता था, जबकि राजनीतिक आदेशों में बंधे अफसरों ने ऐसा करने से रोका था। उसके सब्र का बांध टूटा व उसने अपने अफसर को ही मार डाला।
पिछले कुछ सालों के दौरान सीमावर्ती और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ऐसी घटनाएं होना आम बात हो गई है जिसमें कोई उन्मादी सिपाही अपने साथियों को मार देता है या फिर खुद की जीवनलीला समाप्त कर लेता है। इन घटनाओं से आ रही दूरगामी चेतावनी की घंटी को फौजी आलाकमान ने कभी सुनने की कोशिश नहीं की जबकि फौजी के शौर्य और बलिदान से छितरे खून को अपना वोट बैंक में बदलने को तत्पर नेता इसे जानबूझ कर अनसुना करते हैं। सेना और अर्ध सैनिक बल के आला अफसरों पर लगातार विवाद होना, उन पर घूसखोरी के आरोप, सीमा या उपद्रव ग्रस्त इलाकों में जवानों को उचित सुविधाएं ना मिलने के कारण उनके साथियों की मौत, सिपाही स्तर पर भर्ती में घूसखोरी की खबरों आदि के चलते सुरक्षा बल का मनोबल गिरा है। सभी बलों में अपने साथी को ही मार देने के औसतन बीस मामले हर साल सामने आ रहे हैं। ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने कोई दस साल पहले एक जांच दल बनाया था, जिसकी रिपोर्ट जून 2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेश, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं जैसे मसलों पर कई सिफारिशें की गई थीं। इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिशें, निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप, शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। लेकिन इन पर सिर्फ कागजी अमल ही हो पाया।
आंकड़े बताते हैं कि जनवरी 2009 से दिसंबर 2014 के बीच नक्सलियों से जूझते हुए केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के कुल 323 जवान देश के काम आए। वहीं इस अवधि में 642 सीआरपीएफ कर्मी दिल का दौरा पड़ने से मर गए। आत्महत्या करने वालों की संख्या 228 रही। मलेरिया से मरने वालों का आंकड़ा भी 100 के पार है। कुल मिलाकर सीआरपीएफ दुश्मन से नहीं खुद से ही जूझ रही है। केंद्रीय बलों के जवान तैनाती वाले क्षेत्र में ना तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं और ना ही उन्हें स्थानीय बोली-भाषा संस्कार की जानकारी है। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिशानिर्देश पर ही काम करते हैं। पुलिस की फर्जी व शोषण की कार्रवाइयों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा नहीं करते हैं। अधिकांश मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को ङोलना पड़ता है। बेहद घने जंगलों में लगातार गश्त बेहद तनावभरा है। इस तरह का दवाब कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है। सनद रहे सेना कभी आक्रमण के लिए और अर्ध सैनिक बल निगरानी व सुरक्षा के लिए तैनात हुआ करते थे। लेकिन आज फौज की तैनाती और ऑपरेशन में राजनीतिक हितों के हावी होने का परिणाम है कि कश्मीर में फौज व अर्ध सैनिक बल चौबीसों घंटे तनावग्रस्त रहते हैं। साथ ही यदि कियी जवान से कुछ गलती या अपराध हो जाए तो उसके साथ न्याय यानी कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया भी गौरतलब है। पहले से तय हो जाता है कि फलां ने अपराध किया है और उसे कितनी सजा देनी है। नियमानुसार अरोपी के परिजनों को ‘चार्जशीट’ के बारे में सूचित किया जाना चाहिए, ताकि वे उसके बचाव की व्यवस्था कर सकें। लेकिन अधिकांश मामलों में सजा पूरी होने तक घर वालों को सूचना ही नहीं दी जाती है। आम फौजी समाज से यादा घुल-मिल नहीं पाता है और ना ही अपना दर्द बयां कर पाता है। वहां की अंदरूनी कहानी कुछ और है। किसी भी बल की आत्मा कहे जाने वाला सिपाही-वर्ग अपने ही अफसर के हाथों शोषण और उत्पीड़न का शिकार होता है। देहरादून, महु, पुणो, चंडीगढ़ जैसी फौजी बस्तियों में सेना के आला रिटायर्ड अफसरों की कोठियों के निर्माण में रंगरूट यानी नई भर्ती वाला जवान ईंट-सीमेंट की तगाड़ियों ढोते मिल जाएगा। जिस सिपाही को देश की चौकसी के लिए तैयार किया जाता है वह मजदूरों की जगह काम करने पर मजबूर होता है। कुछ हजार रुपये का वेतन पाने वाले जवान हर अफसर के घर सब्जी ढोते मिल जाता है। ऐसे ही हालता अर्ध सैनिक बलों में हैं।
गैर अधिकारी वर्ग के अस्सी फीसदी सुरक्षाकर्मी छावनी इलाकों में घुटनभरे कमरे में ही अपना जीवन काटते हैं। उसके ठीक सामने अफसरों की ‘पांच सितारा मेस’ होती है। सेना व अर्ध सैनिक मामलों को राष्ट्रहित का बता कर उसे अतिगोपनीय कह दिया जाता है और ऐसी दिक्कतों पर अफसर व नेता सार्वजनिक बयान देने से बचते हैं। जबकि वहां मानवाधिकारों और सेवा नियमों का जमकर उल्लंघन होता रहता है। आज विभिन्न उच न्यायालयों में सैन्य बलों से जुड़े आठ हजार से यादा मामले लंबित हैं। अकेले 2009 में सुरक्षा बलों के 44 हजार लोगों ने इस्तीफा दिया था। इनमें 36 हजार मामले सीआरपीएफ व बीएसएफ के हैं। इस तथ्य को संसद में स्वीकार किया गया है। जवानों के हालात सुधारे बगैर मुल्क के सामने आने वाली चुनौतियों से निपटना कठिन होगा। अब जवान पहले से यादा पढ़ा-लिखा है। वह संवेदनशील और सूचनाओं से लैस है। उसके साथ काम करने में अधिक सतर्कता की जरूरत है।

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