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शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

unsocial behaviour of social media

सोशल मीडिया और राष्ट्रवाद का गाली-काल


सोशल मीडिया खासकर फेसबुक पर गालियां देना, किसी की दया के प्रति निष्ठा पर शक करना, किसी की जाति-समाज को एक बार में ही नकार देना, एक ऐसी समस्या बनती जा रही है जो इसे ‘‘सोशल’ नहीं रहने देगी। जान लें कि असहमति, प्रतिरोध और प्रश्न लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के अभिन्न अंग हैं और इसके बगैर लोकतंत्र का स्वरूप, सद्दाम हुसैन के इराक या मौजूदा चीन से ज्यादा नहीं होता। भारत में सत्ता परिवर्तन महज वोट के माध्यम से, इतनी शांति व सहजता से इसीलिए होते रहे हैं कि यहां सवाल करने का हक सभी को है, लेकिन जब यही सवाल मां-बहन के लिए अपमानजनक बनने लगे, देश के प्रति निष्ठा को ही संदिग्ध करार देने का जरिया बन जाएं तो एकबारगी सोचना पड़ता है कि भारत में गालियां व असहमति पर इतने कटु स्वर पहले से ही थे या फिर सोशल मीडिया की आमदरफ्त ने नए वर्ग को तैयार किया है। सनद रहे कि विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक व व्यापारिक घरानों के अपने सोशल मीडिया एकांश व वहां बैठे वेतनभेागी लोग अब एक हकीकत हैं, लेकिन कई ऐसे लोग जिन्हें हम जान-परख कर इस आभासी दुनिया में अपना मित्र बनाते हैं वे, भोपाल के हादसे या फिर सर्जिकल स्ट्राईक या ऐसे ही किसी मसले पर तर्क, बुद्धि और विवेक से परहेज रख कर ऐसी भाषा व अप्रामाणिक बाते करते हैं कि लोकतंत्र का मूल मंत्र ‘सवाल करने का हक’’ खतरे में दिखने लगता है। यह भी सही है कि दूसरी तरफ भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अपने विचारों का तालिबानीकरण कर चुके हैं व संवाद या मध्य-मार्ग की उनके शब्दों में कोई जगह होती नहीं है।
पिछले दिनों दीपावली की रात भोपाल में हुई मुठभेड़ के बाद कई ऐसे स्वर सुनने को मिले कि यदि पुलिस ने उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मारा तो भी बधाई, उन्होंने कचरा साफ किया है। पूरा इलेक्ट्रानिक मीडिया, गैरकानूनी तरीके से फरार युवकों को आतंकवादी कहता रहा, जबकि नियमानुसार उनके आगे कथित या मुजरिम शब्द होना था। इसका कई सौ गुणा असर सोशल मीडिया पर था, यहां स्वयं न्यायाधीश, स्वयं वकील और स्वयं जल्लाद की पूरी राजनीतिक विचारधारा कब्जा जमाए थी और जिस किसी ने मुठभेड़ पर सवाल उठाए, उन्हें मुसलमान की औलाद, पाकिस्तानी या ऐसे ही लफ्जों से नवाजा जाने लगा। इसमें कोई शक नहीं कि जेल-प्रहरी रमाशंकर यादव की हत्या बेहद दुखद है व उसके हत्यारे मौत के पात्र हैं, लेकिन यह भी जान लें कि शहीद यादव की मौत का असली जिम्मेदार था कौन? असल में उसकी मौत का असली कारण जेल-तंत्र का भ्रष्टाचार था।
56 वर्षीय रमाशंकर यादव की बायपास सर्जरी हो चुकी थी और वे कई महीनों से जेल प्रशासन को अपनी रात की ड्यूटी बदलने को कह रहे थे। चूंकि दिन की ड्यूटी कमाई वाली होती है सो उस पर बड़ी चढ़ावा चढ़ाने वाले को ही उसमें दर्ज किया जाता रहा। इतने खूंखरर बंदी जिस जेल में हो, जिसके बारे में पता था कि इनमें से तीन पहले भी जेल से भाग चुके हैं, बगैर शस्त्र के रक्षक को ड्यूटी पर लगाया गया। फिर मारे गए मुजरिमों की बैरक से जिस तरह से मेवा, मटन बनाने का सामान, मिला है जिस तरह वे 40 चादरें जोड़ कर एकत्र करते रहे, इससे साफ है कि जेल के लेागों को उन पर दया-दृष्टि थी। यह भी जान लें कि इन बंदियों को अदालत नहीं ले जाया जाता था, उनकी पेशी वीडियो कैमरे पर होती थी और उनसे मुलाकात का अधिकार केवल उनके परिवार वालों का, वह भी पहचान पत्र की प्रति जमा करने के बाद ही था। यह भी जान लें कि मारे गए सभी बंदी अलग-अलग सेल में थे और ये तीन अलग-अलग ब्लाक में थी। 
हालांकि पुलिस का दावा है कि फरार होने वालों ने टूथ ब्रश के हैंडल से चाबियां बनाईं, लेकिन जेल के ताले ‘‘तीन चाल’’ वाले होते हैं ना कि चटकनी वाले, सो यदि यह सच है तो दुनिया का नया आविष्कार ही होगा। वे जेल में चादर जोड़ कर सीढी बनाते रहे, चाबियां गढ़ते रहे और आईएसओ प्रमाणित जेल में किसी बंदी-रक्षक या नंबरदार (ऐसे सजायाफ्ता कैदी जो कि जेल प्रशासन की मदद करते हैं) को खबर नहीं लगी। जिस जेल में सिमी जैसे उपद्रवी संगठन और नक्सली जैसे दुहसाहसी केडर के सौ से ज्यादा लोग हों, वहां के सीसीटीवी कैमरे ठीक उस समय ही खराब हो गए? यह भी कहना जरूरी है कि मध्यप्रदेश के मालवा व निमाड़ अंचल में सिमी का नेटवर्क जबरदस्त है, वे अपना खर्च चलाने के लिए अफीम की तस्करी, बैंक डकैती व फिरौती तक का सहारा लेते हैं।
ऐसे में यदि सशस्त्र गार्ड सो रहे थे, अलग-अलग सेल में बंदी ताले तोड़ कर भाग जाते हैं तो असल में शहीद यादव की हत्या का जिम्मेदार जेल-प्रशासन ही है। यदि ऐसे सवाल कोई उठाता है तो उसे गाली देने वाले लोग तर्क के बनिस्बत पूरी तरह राजनीतिक, वह भी कुत्सित के मोहरे बन जाते हैं। यह वही जमात है जो 28 अक्तूबर तक देश की सेना को सलाम, शहीदों को नमन के नारों से सोशल मीडिया व अपने मुहल्ले के खंभों पर बैनर पाटे हुए थे, लेकिन 29 अक्तूबर से इन लोगों ने सबसे ज्यादा आतिशबाजी चलाई, इस बात की परवाह किए बगैर कि भारत माता की बलिवेदी पर प्राणौत्सर्ग करने वाले दो जवानों का अंतिम संस्कार ठीक दीपावली के दिन ही हुआ। यही नहीं इस जमात से जब आतिशबाजी के कारण होने वाले प्रदूषण की बात करो तो मां-बहन की गालियों के साथ इदउलजुहा पर बकरों की कुर्बानी रूकवाने की चर्चा करते हुए आतिशाबाजी को भारतीय परंपरा बताने की बात करने लगते हैं। यह जाने बगैर कि दीपावली पर पटाखें चलाने का इतिहास 80 साल पुराना भी नहीं है। रोशनी करना, लक्ष्मी की पूजा करना, अपने ईष्ट-मित्रों के साथ मिष्ठान, खील-बताशे साझा करना ही इस पर्व का अतीत रहा है। लेकिन गालियों के सामने किसे परवाह है तर्क की।
विडंबना यह है कि तार्किक बात करने की जगह खुद के अलावा सभी को देशद्रोही करार देने वाले सोशल मीडिया पर एक गिरोह के रूप में होते हैं व मौका पाते ही असहमति के स्वर को निर्मता से दबाते हैं। यह भी सही है कि उनको भी सवालों से असहमति का हक है, जैसे कि सवाल उठाने वाले को, लेकिन परिचर्चा में किसी की नस्ल या मां-बाप पर संदेह करना, उसकी बहन के साथ अपने रिश्ते बलात जोड़ना, इसका तरीका तो नहीं है। यह समझना जरूरी है कि सेना हो या पुलिस, भारत में वह लेाकतंत्रातमक सत्ता के अधीन है और सत्ता जनता के प्रति जवाबदेह। यदि देश की बड़ी आबादी को भोपाल में मुठभेड़ पर संशय है तो तथ्य व प्रमाण के साथ खुलासा करने में क्या बुराई है, बनिस्बत इसके कि सवाल खड़े करने वाले को ही कोसा जाए। हमने देखा है कि आपातकाल या उसके बाद पंजाब में या फिर कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में जब कभी पुलिस या बलों को निरंकुश अधिकार दिए गए तो कई ज्यादती की खबरें भी सामने आईं। आज सवाल उठाने पर पुलिस का मनोबल नीचा गिरने की बात करने वाले, रेड लाईट जंप करने पर पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर जुर्माना देने के बनिस्बत सिफारिशें करवाते दिखते हैं। वे सड़क पर थूकते हैं, घर का कचरा लापरवाही से फेंकते हैं, कर चेारी करते हैं, वे सार्वजनिक स्थान पर तंबाकू का इस्तेमाल करते हैं, वे सुविधा शुल्क लेते व देते हें, लेकिन राष्ट्रवाद को अपनी गालियों में लपेट कर किसी को भी चोटिल करने में शर्म महसूस नहीं करते।
इस तरह की प्रवृति असल में अभिव्यक्ति की आजादी के मूलभूत अधिकार ही नहीं, लोकतंत्र की आतमा ‘प्रतिरोध’ की भी बेइज्जती है। सवाल उठाना एक स्वस्थ समाज की पहचान है और जवाब देना एक समर्थ सरकार की काबिलियत। असहमति पर सहमत होना एक अच्छे नागरिक का गुण है व असहमति को तर्क के साथ स्वीकार करना प्रजातंत्र का गहना। सावधान सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी का जो खेल चल रहा है वह कहीं बहुत कुछ छिन्न-भिन्न ना कर दे। अभी तो आपने कुछ दोस्त ही खोए है अपने उजड्ड व्यवहार से कहीं, खुद को भी ना खो देना।

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