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शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

Memories of Anupam Mishra : How books change society, government and even Geography

पुस्तकें समाज भी बदलती हैं और भूगोल भी

                                                                                                                                    पंकज चतुर्वेदी




इस सप्ताह का प्रारंभ देश के पानी, समाज और ंसस्कार से असीम सरोकार रखने वाले एक ‘‘अनुपम इंसान’’ के अवसान के दुखद समाचार को ले कर आया। अनुपम मिश्र को केवल इस लिए याद मत रखें कि उन्होंने तालाब की संस्कृति को जिला दिया, बल्कि इस लिए भी याद रखें कि आज के भौतिकवादी युग में कोई इंसान जैसा दिखता था, जैसा बोलता था, वैसा जीता भी था। अनुपम जी के ज्ञान व शोध से ज्यादा महत्वपूएार् थी, उनकी भाषा, पानी पर तैरती हुई, ढेर सारे देशज शब्द, तकनीकी शब्दों के आम बोलचाल वाले वैकल्पिक मायने। अनुपम को आमतौर पर ‘‘आज भी खरे हैं तालाब’’ पुस्तक के लिए याद किया जाता है, वह स्वाभाविक भी है, क्योंकि अकाल-ग्रस्त हिंदी साहित्य जगत में कोई पुस्तक 15 लाख से ज्यादा प्रति में छपे व लाखों पाइकों तक पहुंचे, ऐसा कम ही होता है। श्री मिश्र की स्मृति में उनकी एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक को याद करते हें जिसने देश की सीमा के बाहर भी बदलाव किया।

 तो क्या पुस्तकें केवल ज्ञान प्रदान करती हैं? इसके अलावा और क्या करती हैं?? यह सवाल अक्सर कुछ लोग पूछते रहते हैं। यदि दो पुस्तको का जिक्र कर दिया जाए तो समझ में आता है कि पुस्तकें केवल पठन सामग्री या विचार की खुराक मात्र नहीं है, ये समाज, सरकार को बदलने और यहां तक कि भूगोल बदलने का भी जज्बा रखती हैं। जब गांधी षांति प्रतिश्ठान ने ‘‘आज भी खरे हैं तालाब’’ को छापा था तो यह एक षोधपरक पुस्तक मात्र थी और आज 20 साल बाद यह एक आंदोलन, प्रेरणा पूंज और बदलाव का माध्यम बन चुकी हैं। इसकी कई लाख प्रतियां अलग-अलग संस्थाओं, प्रकाषकों ने छाप लीं, अपने मन से कई भाशाओं में अनुवाद भी कर दिए, कई सरकारी संस्थाओं ने इसे वितरित करवाया, स्वयंसेवी संस्थाएं सतत इसे लोगों तक पहुंचा रही हैं। परिणाम सामने हैं जो समाज व सरकार अपने आंखों के सामने सिमटते तालाबों के प्रति बेखबर थे, अब उसे बचाने, सहेजने और समृद्ध करने के लिए आगे आ रहे हैं।
‘रेगिस्तान की रजत बूंदे’ पुस्तक द्वारा समाज व भूगोल बदलने की घटना तो सात समुंदर पार दुनिया के सबसे विकट रेगिस्तान में बसे देष से सामने आई है। याद होगा कि भारत के रेगिस्तानी इलाकों में पीढियों से जीवंत, लोक-रंग से सराबोर समाज ने पानी जुटाने की अपनी तकनीकों का सहारा लिया है। बेहद कम बारिष, जानलेवा धूप और दूर-दूर तक फैली रेत के बीच जीवन इतना सजीव व रंगीन कैसे है, इस तिलस्म को तोड़ा है गांधी षांति प्रतिश्ठान, नई दिल्ली  के मषहूर पर्यावरणविद तथा अभी तक हिंदी की सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक ‘‘आज भी खरे हैं तालाब’’ के लेखक अनुपम मिश्र ने।  उन्होंने रेगिस्तान के बूंद-बूंद पानी को जोड़ कर लाखों कंठ की प्यास बुझाने की अद्भूत संस्कृति को अपनी पुस्तक -‘राजस्थान की रजत बूंदें’’ में प्रस्तुत किया है।

‘राजस्थान’ देष का सबसे बड़ा दूसरा राज्य है परंतु जल के फल में इसका स्थान अंतिम है। यहा औसत वर्शा 60 सेंटीमीटर है जबकि देष के लिए यह आंकड़ा 110 सेमी है। लेकिन इन आंकड़ों से राज्य की जल कुडली नहीं बाची जा सकती। राज्य के एक छोर से दूसरे तक बारिष असमान रहती है, कहीं 100सेमी तो कहीं 25 सेमी तो कहीं 10 सेमी तक भी। यदि कुछ सालों की अतिवृश्टि को छोड़ दें तो चुरू, बीकानेर, जैलमेर, बाडमेर, श्रीगंगानगर, जोधपुर आदि में साल में 10 सेमी से भी कम पानी बरसता है। दिल्ली में 150 सेमी से ज्यादा पानी गिरता है, यहां यमुना बहती है, सत्ता का केंद्र है और यहां सारे साल पानी की मारा मारी रहती है, वहीं रेतीले राजस्थान में पानी की जगह सूरज की तपन बरसती है। दुनिभ्याभर के अन्य रेगिस्तानों की तुलना में राजस्थान के मरू क्षेत्र की बसावट बहुत ज्यादा है और वहां के वाषिंदों में लोक, रंग, स्वाद, संस्कृति, कला की सुगंध भी है।
पानी की कमी पर वहां के लोग आमतौर पर लोटा बाल्टी ले कर प्रदषन नहीं करते, इसकी जगह एक एक बूंद को बचाने और उसे भविश्य के लिए सहेजने के गुर पीढी दर पीढी सिखाते जाते हैं।  रेगिस्तानी इलाकों में जहां अंग्रेजी के वाय ल् आकार की लकड़ी का टुकड़ा दिखे तो मान लो कि वहां कुईया होगी।  कुईया यानि छोटा कुआ जो सारे साल पानी देता है। सनद रहे कि रेगिस्तान में यदि जमीन की छाती खोद कर पानी निकालने का प्रयास हागा तो वह आमतौर पर खारा पानी होता है। गांव वालों के पास किसी विष्वविद्यालय की डिगरी या प्रषिक्षण नहीं होता, लेकिन उनका लोक ज्ञान उन्हें इस बात को जानने के लिए पारंगत बनाता है कि अमुक स्थान पर कितनी कुईयों बन सकती हैं।  ये कुईयां भूगर्भ जल की ठाह पर नहीं होती, बल्कि इन्हें अभेद चट्टानों के आधार पर उकेरा जाता है।
ये कुइयां कहां खुद सकती है? इसका जानकार तो एक व्यक्ति होता है, लेकिन इसकी खुदाई करना एक अकेले के बस का नहीं होता। सालों साल राजस्थान की संस्कृति में हो रहे बदलाव के चलते अब कई समूह व समुदाय इस काम में माहिर हो गए हैं। खुदाई करने वालों की गांव वाले पूजा करते हैं, उनके खाने-पीने, ठहरने का इंतजाम गांव वाले करते हैं और काम पूरा हो जाने पर षिल्पकारों को उपहारों से लाद दिया जाता हैं।  यह रिष्ता केवल यहीं समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वार -त्योहार पर उन्हें भेंट भेजी जाती हैं। आखिर वे इस सम्मान के हकदार होते भी हैं। रेतीली जमीन पर महज डेढ मीटर व्यास का कुआं खोदना कोई आसान काम नहीं हैं। रेत में दो फुट खोदो तो उसके ढहने की संभावना होती हैं। यहीं नहीं गहरे जाने पर सांस लेना दूभर होता हैं।
हुआ यूं कि गांधी षांति प्रतिश्ठान में आने वाली एक षुभचिंतक एनी मोनटॉट ने ‘रेगिस्तान की रजत बूंदें’ पुस्तक को देखा और इसका फ्रेंच अनुवाद कर डाला। जब उनसे पूछा कि फ्रेंच अनुवाद कहां काम आएगा तो जवाब था कि सहारा रेगिस्तान के इलाके के उत्तरी अफ्रीका के कई देषों में फ्रांसिसी प्रभाव रहा है और वहां अरबी, स्थानीय बर्बर बोली के अलावा ज्ञान की भाशा फा्रंसिसी ही है। कुछ दिनों बाद यह फ्रेंच अनूदित पुस्तक मोरक्को पहुंची । वहां के प्रधान मंत्री इससे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने गांधी षांति प्रतिश्ठान के एक साथी को वहां बुलवा भेजा। उन्हें हेलीकॉप्टर से रेगिस्तान दिखाया गया और भारत के रेगिस्तान की जल संरक्षण तकनीकी पर विस्तार से विमर्ष हुआ। उस 10 दिन के दौरे में यह बात स्पश्ट हो गई कि भारत की तकनीक वहां बेहद काम की है। इसके बाद इस पुस्तक की सैंकडों प्रतियां वहां के इंजीनियरों, अफसरों के बीच बंटवाई गईं। उन पर विमर्ष हुआ और आज उस देष में कोई एक हजार स्थानों पर राजस्थान के मरूस्थल में इस्तेमाल होने वाली हर बूंद को सहजने व उसके किफायती इस्तेमाल की षुद्ध देषी तकनीक के मुताबिक काम चल रहा हे। यह सब बगैर किसी राजनयिक वार्ता या समाझौतों के , किसी तामझाम वाले समारोहों व सेमीनार के बगैर चल निकला। जरिया बनी एक पुस्तक। आज उस पुस्तक के बदौलत बनी कुईयों से बस्तियां बस रही हैं, लोगों का पलायन रूक रहा है। यहां याद दिलाना जरूरी है कि सहारा रेगिस्तान की भीशण गर्मी, रेत की आंधी, बहुत कम बारिष वाले मोरक्को में पानी की मांग बढ़ रही है क्योंकि वहां खेती व उद्योग बढ़ रहे हैं। जबकि बारिष की मात्रा कम हो रही है, साथ ही औसतन हर साल एक डिगरी की दर से तापमान भी बढ़ रही है। यहां कई ओएसिस या नखलिस्तान हैं, लेकिन उनके ताबड़तोड़ इस्तेमाल से देष की जैव विविधता प्रभावित हो रही है। सन 1997 में पहले विष्व जल फोरम की बैठक भी मोरक्को में ही हुई थी। वहां की सरकार पानी की उपलब्धता बढाने को विकसित देषों की तकनीक पर बहुत व्यय करती रही, लेकिन उन्हें सफलता मिली एक पुस्तक से। फरवरी -2015 के आखिरी दिनों में मोरक्को का एक बड़ा प्रतिनिधि मंडल  भारत आया और उसने अनुपम बाबू की पुस्तकों में उल्लिखित प्रयोगों का खुद अवलोकन भी किया।
यह बानगी है कि पुस्तकें एक मौन क्रांति करती हैं जिससे हुआ बदलाव धीमा जरूर हो, लेकिन स्थाई व बगैर किसी दवाब के होता है। जिन लोगां ने अनुपम बाबू की पुस्तक ‘‘आज भी खरे हैं तालाब’’ को सहेज कर रखा है, उनके लिए यह पुस्तक भी अनमोल निधि होगी। इसकी कीमत भी रू. 200 है और इसे गांधी षांति प्रतिश्ठान, दनदायाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली 110002 से मंगवाया जा सकता हैं और यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली भी होगी।

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