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गुरुवार, 22 दिसंबर 2016
For bettter farming looking back to organic system
हमारे खेत किस तरह जहरीले बन गए है। उसकी बानगी है दिल्ली से सटे पष्चिम उत्तर प्रदेष के कुछ इलाके। वैसे तो नोएडा की पहचान एक उभरते हुए विकसित इलाके के तौर पर है लेकिन यहां के कई गांव वहां रच-बस चुकी कैंसर की बीमारी के कारण जाने जाते हैं। अच्छेजा गांव में बीते पांच साल में दस लोग इस असाध्य बीमारी से असामयिक काल के गाल में समा चुके हैं। अब अच्छेजा व ऐसे ही कई गांवों में लोग अपना रोटी-बेटी का नाता भी नहीं रखते हैं। दिल्ली से सटे पश्चिम उत्तर प्रदेश का दोआब इलाका, गंगा-यमुना नउी द्वारा सदियों से बहा कर लाई मिट्टी से विकसित हुआ था। यहां की मिट्टी इतनी उपजाऊ थी कि पूरे देश का पेट भरने लायक अन्न उगाने की क्षमता थी इसमें। अब प्रकृति इंसान की जरूरत तो पूरा कर सकती है, लेकिन लालच को नहीं । और ज्यादा फसल के लालच में यहां अंधाधुंध खाद व कीटनाशकों का जो प्रयोग शुरू हुआ कि अब यहां पाताल से, नदी, से जोहड़ से, खेत से, हवा से हवा-पानी नहीं मौत बरसती हैं। बागपत से लेकर ग्रेटर नोएडा तक के कोई 160 गांवों में हर साल सैंकड़ों लोग कैंसर से मर रहे हैं। सबसे ज्यादा लेगों को लीवर व आंत का कैंसर हुआ हे। बाल उड़ना, किडनी खराब होना, भूख कम लगना, जैसे रोग तो यहां हर घर में हैं। सरकार कुछ कर रही है, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण भी कुछ नोटिस दे रहा है, लेकिन इलाके में खेतों में छिड़कने वाले जहर की बिक्री की मात्रा हर दिन बढ़ रही है। दुखद है कि अब नदियों के किनारे ‘विष-मानव’ पनप रहे हैं जो कथित विकास की कीमत चुकाते हुए असमय काल के गाल में समा रहे हैं। हमारे देश में हर साल कोई दस हजार करोड़ रूपए के कृषि-उत्पाद खेत या भंडार-गृहों में कीट-कीड़ों के कारण नष्ट हो जाते हैं । इस बर्बादी से बचने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा हैं । जहां सन 1950 में इसकी खपत 2000 टन थी, आज कोई 90 हजार टन जहरीली दवाएं देश के पर्यावरण में घुल-मिल रही हैं । इसका कोई एक तिहाई हिस्सा विभिन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अंतर्गन छिड़का जा रहा हैं । सन 1960-61 में केवल 6.4 लाख हेक्टर खेत में कीटनाशकों का छिड़काव होता था। 1988-89 में यह रकबा बढ़ कर 80 लाख हो गया और आज इसके कोई डेढ़ करोड़ हेक्टर होने की संभावना है। ये कीटनाशक जाने-अनजाने में पानी, मिट्टी, हवा, जन-स्वास्थ्य और जैव विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। इपले अंधाधुंध इस्तेमाल से पारिस्थितक संतुलन बिगड़ रहा है, सो अनेक कीट व्याधियां फिर से सिर उठा रही हैं। कई कीटनाशियों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ गई है और वे दवाओं को हजम कर रहे हैं। इसका असर खाद्य श्रंखला पर पड़ रहा है और उनमें दवाओं व रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर पर आ गई है। एक बात और, इस्तेमाल की जा रही दवाईयों का महज 10 से 15 फीसदी ही असरकारक होता है, बकाया जहर मिट्टी, भूगर्भ जल, नदी-नालों का हिस्सा बन जाता है। यह दुर्दषा अकेले नोएडा की नहीं, बल्कि देष के अधिकांष खेतों की हो गई है।
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