बढती उम्मीदवारी से घटता लोकतंत्र
पंकज चतुर्वेदी
नोट बंदी के बाद काले धन पर मुकम्मल चोट की उम्मीद पाले आम लोगों के लिए भारत के निर्वाचन आयोग ने यह जानकारी भी दे दी कि असल में अवैध धन का मूल राजनीतिक दल हैं नाकि गांव- टोलों का वह आम आदमी जो अपने ही पैसे लेने के लिए एक महीने से लाईनों में लगा है। बकौल मुख्य चुनाव आयुक्त इस समय भारतीय निर्वाचन आयोग में 1900 से ज्यादा राजनीतिक दल नामांकित हैं लेकिन इनमें से 400 से अधिक दल आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा। आयोग ने आशंका जताई है कि ऐसे दलों को बनाने का असली मकसद कालेधन को सफेद करना होता है। उल्लेखनीय है कि पंजीकृत राजनीतिक दलों को चंदा लेने, आयकर से छूट जैसी कई सुविधांए मिली हुई हैं। यह भी जान लें कि केवल चुनाव ना लड़ने वाले 400 दल ही इस खेल में खलनायक नहीं हैं, कई ऐसे भी दल हैं जो नाम के लिए चुनाव लड़ते हैं व गंभीरता से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए तय सीमा से अधिक खर्च में भागीदार होते हैं। यही नहीं बहुत से वोट कटवा दल लोकतंत्र को इतना कमजोर कर रहे हैं कि अब कुल मतदाता के 14-15 फीसदी वोट ले कर भी लेाग मानननीय बन रहे हैं नतजतन उन्हें जनता का व्यापक समर्थन मिलता नहीं है। और ना ही वे जनभवानओं की कदर करते हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने ऐसे दलों को छांट कर उन पर कार्रवाई की प्रक्रिया शुरू कर दी है। जैदी ने कहा, “इन दलों का नाम रद्द किए जाने के बाद उन्हें राजनीतिक दल के तौर पर मिलने वाले दान या आर्थिक मदद पर आयकर से मिलने वाली छूट बंद हो जाएगी। ”
हालांकि चुनाव आयोग अब कुछ दलों से उनकी आय-व्यय का ब्यौरा मांग रहा है ताकि उनकी मान्यता रद्द करने की प्रक्रिया ष्ुारू की जा सके, लेकिन जान लें कि यह सबकुछ इतना आसान नहीं होगा। चुनाव आयोग ने राज्य चुनाव आयोग से कभी चुनाव न लड़ने वाली पार्टियों को मिले चंदे का भी ब्योरा मांगा है। जैदी के अनुसार चुनाव आयोग अब हर साल सभी पंजीकृत राजनीतिक दलों की जांच की जाएगी और किसी तरह की अनियमितता पाए जाने पर उन पर कार्रवाई की जाएगी। भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने देष के राजनीतिक दलों के काला धन में लबालब होने की जो बात कही, यह पहली बार नहीं है। इससे पहले सन 2011 में भी एस.वाय. कुरेषी के काल में इस पर गंभीर कदम उठाने के सुझाव दिए गए थे, लेकिन किसी की भी इच्छा षक्ति चुनाव प्रक्रिया में षुचिता की नहीं रही है।
लोकतंत्र में पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत लाने और उन्हें मिलने वाले चंदे पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं लेकिन इस मसले पर ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां एकमत हैं। इस मसले पर एक आरटीआई पर सुनवाई करते हुए जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की वर्तमान सरकार की राय जाननी चाही थी तो सरकार ने राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के तहत लाने का विरोध किया था। सरकार ने कहा था कि “अगर राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के तहत लाया गया तो इससे उनके सुचारू कामकाज में अड़चन आएगी।” एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक (एडीआर) रिफॉर्म्स के साल 2013-14 के आंकड़ों के अनुसार देश की छह राष्ट्रीय पार्टियों की कुल आय का 69.3 प्रतिशत “अज्ञात स्रोत” से आया था। एडीआर के आंकड़ों के अनुसार साल 2013-14 में छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पास कुल 1518.50 करोड़ रुपये थे। राजनीतिक दलों में सबसे अधिक पैसा बीजेपी (44ः) के पास था। वहीं कांग्रेस (39.4ः), सीपीआई(एम) (8ः), बीएसपी (4.4ः) और सीपीआई (0.2ः) का स्थान था। सभी राजनीतिक दलों की कुल आय का 69.30 प्रतिशत अज्ञात स्रोतों से आया था। राजनीतिक पार्टियों को अपने आयकर रिटर्न में 20 हजार रुपये से कम चंदे का स्रोत नहीं बताना होता। पार्टी की बैठकों-मोर्चों से हुई आय भी इसी श्रेणी में आती है। साल 2013-14 तक सभी छह राष्ट्रीय पार्टियों की कुल आय में 813.6 करोड़ रुपये अज्ञात लोगों से मिले दान था। वहीं इन पार्टियों को पार्टी के कूपन बेचकर 485.8 करोड़ रुपये की आय हुई थी। साल 2013-14 में कांग्रेस की कुल आय का 80.6 प्रतिशत और बीजेपी की कुल आय का 67.5 प्रतिशत अज्ञात स्रोतों से आया था।
चुनाव आयोग में इस समय पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 1866 है जिसमें 56 मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय दल हैं जबकि शेष गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल थे। पिछले लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान464 राजनीतिक दलों ने उम्मीदवार खड़े किये थे। चुनाव आयोग द्वारा एकत्र आंकड़ों को संसद में उपयोग के लिए विधि मंत्रालय के साथ साझा किया गया था। मंत्रालय का विधायी विभाग आयोग की प्रशासनिक इकाई है। चुनाव आयोग के अनुसार 10 मार्च 2014 तक देश में ऐसे राजनीतिक दलों की संख्या 1593 थी। 11 मार्च से 21 मार्च के बीच 24 और दल पंजीकृत हुए और 26 मार्च तक 10 और दल पंजीकतृ हुए। पिछले वर्ष मार्च के अंत तक चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 1627 दर्ज की गई। आज यह 1800 से पार हो गई। यह चौंकाने वाली बात आयोग की छानबीन में उजागर हुई कि कुछ दल चंदे से उगाहे पैेसे को शेयर बाजार में लगा देते हैं व एवं कुछ गहने खरीद लेते हैं। राजनीतिक दल कों के गठन पर कड़ाई करने या उनको मिलने वाले चंदे पर छूट हटाने जैसे मसलों के विरोध में भी कई बातें कही जाती हैं। हालांकि सन 2011 में भी आयोग ने कुछ और सिफारिशें की थीं-. मसलन, राजनीतिक दलों को अपने खातों की नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक या आयोग की ओर से अधिकृत लेखाकार से अपने एकाउंट का अंकेक्षण करवाएं ,खातों का सालाना लेखा-जोखा प्रकाशित करें आदि। सिफारिष यह भी थी के इन बातों को ना मानने वाले दल की मान्यता रद्द कर दी जाए।
मामला अकेले काले धन का नहीं है, इसकी बानगी मध्यप्रदेष विधानसभा के पिछले चुनाव के ये आंकड़े हैं - मध्यप्रदेष में 230 सीटों के लिए कोई 57 पार्टियों के 3179 उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें 1397 निर्दलीय थे। दलीय उम्मीदवारों की हालत कुछ ऐसी थी- समाजवादी पार्टी , कुल उम्मीदवार 187, जीता-1;बसपा 228 में जीते 7; लोजपा 119 में जीते 0, जनषक्ति 201 में जीते 05। सीट- चंदला, कुल मतदान 56.98, उम्मीदवार 24 और विजेता भाजपा उम्मीदवार को मिले इसके भी महज 20.65 प्रतिषतं । यह है कुल मतदाता का 11.76 प्रतिषत। महाराजपुर- कुल मतदान 65.15 प्रतिषत, उम्मीदवारों की संख्या 20 और विजेता को मिले महज 18.78 प्रतिषत वोट।ये आंकड़े गवाह हैं कि जिसे हम बहुमत की पसंद कह रहे हैं उसे तो कुल मतदाओं के चौथाई तो क्या आठवें हिस्से का भी समर्थन प्राप्त नहीं है। गंभीरता से देखें तो यह कुछ लोगों के लिए यह सत्ता हथियाने का पर्व था, तो कुछ लोगों के लिए किसी को नीचे गिराने का साधन । ऐेसे लोगों की संख्या भी कम नहीं थी जोकि इसे मखौल मान रहे थें, या फिर कतिपय नेताओं के लिए ऐसे औजार बन रहे थे, जो लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार कर उसे कमजोर करने में लगे हैं । कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राषि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयषुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याषी चुनने में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रषासनिक दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याषी चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं ।
सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याषी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविषेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजूट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मषीन का आकार बढ़ जाता है । चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्धों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों,, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देष के 200 से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है ।
लोकतंत्र में चुनाव लड़ने का हक सभी को है लेकिन जब यह उम्मीदवारी लोकतंत्र की मूल भावना की ही हत्या करने लगे तो उस पर नियंत्रण करना भी अनिवार्य है। अवैध धन, कर की चोरी, चुनाव प्रक्रिया में धन का बढ़ता महत्व जैसी बीमारियों का इलाज करना है तो कम से कम लोकसभा चुनाव में छोटे दलों पर पाबंदी या नियंत्रण पर विचार जरूर होना चाहिए। साथ ही राजनीतिक दलों के चंदे, उसके व्यय का सालाना जाहिरा किया जाना भी अनिवार्य करना चाहिए।
पंकज चतुर्वेदी
नोट बंदी के बाद काले धन पर मुकम्मल चोट की उम्मीद पाले आम लोगों के लिए भारत के निर्वाचन आयोग ने यह जानकारी भी दे दी कि असल में अवैध धन का मूल राजनीतिक दल हैं नाकि गांव- टोलों का वह आम आदमी जो अपने ही पैसे लेने के लिए एक महीने से लाईनों में लगा है। बकौल मुख्य चुनाव आयुक्त इस समय भारतीय निर्वाचन आयोग में 1900 से ज्यादा राजनीतिक दल नामांकित हैं लेकिन इनमें से 400 से अधिक दल आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा। आयोग ने आशंका जताई है कि ऐसे दलों को बनाने का असली मकसद कालेधन को सफेद करना होता है। उल्लेखनीय है कि पंजीकृत राजनीतिक दलों को चंदा लेने, आयकर से छूट जैसी कई सुविधांए मिली हुई हैं। यह भी जान लें कि केवल चुनाव ना लड़ने वाले 400 दल ही इस खेल में खलनायक नहीं हैं, कई ऐसे भी दल हैं जो नाम के लिए चुनाव लड़ते हैं व गंभीरता से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए तय सीमा से अधिक खर्च में भागीदार होते हैं। यही नहीं बहुत से वोट कटवा दल लोकतंत्र को इतना कमजोर कर रहे हैं कि अब कुल मतदाता के 14-15 फीसदी वोट ले कर भी लेाग मानननीय बन रहे हैं नतजतन उन्हें जनता का व्यापक समर्थन मिलता नहीं है। और ना ही वे जनभवानओं की कदर करते हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने ऐसे दलों को छांट कर उन पर कार्रवाई की प्रक्रिया शुरू कर दी है। जैदी ने कहा, “इन दलों का नाम रद्द किए जाने के बाद उन्हें राजनीतिक दल के तौर पर मिलने वाले दान या आर्थिक मदद पर आयकर से मिलने वाली छूट बंद हो जाएगी। ”
हालांकि चुनाव आयोग अब कुछ दलों से उनकी आय-व्यय का ब्यौरा मांग रहा है ताकि उनकी मान्यता रद्द करने की प्रक्रिया ष्ुारू की जा सके, लेकिन जान लें कि यह सबकुछ इतना आसान नहीं होगा। चुनाव आयोग ने राज्य चुनाव आयोग से कभी चुनाव न लड़ने वाली पार्टियों को मिले चंदे का भी ब्योरा मांगा है। जैदी के अनुसार चुनाव आयोग अब हर साल सभी पंजीकृत राजनीतिक दलों की जांच की जाएगी और किसी तरह की अनियमितता पाए जाने पर उन पर कार्रवाई की जाएगी। भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने देष के राजनीतिक दलों के काला धन में लबालब होने की जो बात कही, यह पहली बार नहीं है। इससे पहले सन 2011 में भी एस.वाय. कुरेषी के काल में इस पर गंभीर कदम उठाने के सुझाव दिए गए थे, लेकिन किसी की भी इच्छा षक्ति चुनाव प्रक्रिया में षुचिता की नहीं रही है।
लोकतंत्र में पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत लाने और उन्हें मिलने वाले चंदे पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं लेकिन इस मसले पर ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां एकमत हैं। इस मसले पर एक आरटीआई पर सुनवाई करते हुए जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की वर्तमान सरकार की राय जाननी चाही थी तो सरकार ने राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के तहत लाने का विरोध किया था। सरकार ने कहा था कि “अगर राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के तहत लाया गया तो इससे उनके सुचारू कामकाज में अड़चन आएगी।” एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक (एडीआर) रिफॉर्म्स के साल 2013-14 के आंकड़ों के अनुसार देश की छह राष्ट्रीय पार्टियों की कुल आय का 69.3 प्रतिशत “अज्ञात स्रोत” से आया था। एडीआर के आंकड़ों के अनुसार साल 2013-14 में छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पास कुल 1518.50 करोड़ रुपये थे। राजनीतिक दलों में सबसे अधिक पैसा बीजेपी (44ः) के पास था। वहीं कांग्रेस (39.4ः), सीपीआई(एम) (8ः), बीएसपी (4.4ः) और सीपीआई (0.2ः) का स्थान था। सभी राजनीतिक दलों की कुल आय का 69.30 प्रतिशत अज्ञात स्रोतों से आया था। राजनीतिक पार्टियों को अपने आयकर रिटर्न में 20 हजार रुपये से कम चंदे का स्रोत नहीं बताना होता। पार्टी की बैठकों-मोर्चों से हुई आय भी इसी श्रेणी में आती है। साल 2013-14 तक सभी छह राष्ट्रीय पार्टियों की कुल आय में 813.6 करोड़ रुपये अज्ञात लोगों से मिले दान था। वहीं इन पार्टियों को पार्टी के कूपन बेचकर 485.8 करोड़ रुपये की आय हुई थी। साल 2013-14 में कांग्रेस की कुल आय का 80.6 प्रतिशत और बीजेपी की कुल आय का 67.5 प्रतिशत अज्ञात स्रोतों से आया था।
चुनाव आयोग में इस समय पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 1866 है जिसमें 56 मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय दल हैं जबकि शेष गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल थे। पिछले लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान464 राजनीतिक दलों ने उम्मीदवार खड़े किये थे। चुनाव आयोग द्वारा एकत्र आंकड़ों को संसद में उपयोग के लिए विधि मंत्रालय के साथ साझा किया गया था। मंत्रालय का विधायी विभाग आयोग की प्रशासनिक इकाई है। चुनाव आयोग के अनुसार 10 मार्च 2014 तक देश में ऐसे राजनीतिक दलों की संख्या 1593 थी। 11 मार्च से 21 मार्च के बीच 24 और दल पंजीकृत हुए और 26 मार्च तक 10 और दल पंजीकतृ हुए। पिछले वर्ष मार्च के अंत तक चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 1627 दर्ज की गई। आज यह 1800 से पार हो गई। यह चौंकाने वाली बात आयोग की छानबीन में उजागर हुई कि कुछ दल चंदे से उगाहे पैेसे को शेयर बाजार में लगा देते हैं व एवं कुछ गहने खरीद लेते हैं। राजनीतिक दल कों के गठन पर कड़ाई करने या उनको मिलने वाले चंदे पर छूट हटाने जैसे मसलों के विरोध में भी कई बातें कही जाती हैं। हालांकि सन 2011 में भी आयोग ने कुछ और सिफारिशें की थीं-. मसलन, राजनीतिक दलों को अपने खातों की नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक या आयोग की ओर से अधिकृत लेखाकार से अपने एकाउंट का अंकेक्षण करवाएं ,खातों का सालाना लेखा-जोखा प्रकाशित करें आदि। सिफारिष यह भी थी के इन बातों को ना मानने वाले दल की मान्यता रद्द कर दी जाए।
मामला अकेले काले धन का नहीं है, इसकी बानगी मध्यप्रदेष विधानसभा के पिछले चुनाव के ये आंकड़े हैं - मध्यप्रदेष में 230 सीटों के लिए कोई 57 पार्टियों के 3179 उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें 1397 निर्दलीय थे। दलीय उम्मीदवारों की हालत कुछ ऐसी थी- समाजवादी पार्टी , कुल उम्मीदवार 187, जीता-1;बसपा 228 में जीते 7; लोजपा 119 में जीते 0, जनषक्ति 201 में जीते 05। सीट- चंदला, कुल मतदान 56.98, उम्मीदवार 24 और विजेता भाजपा उम्मीदवार को मिले इसके भी महज 20.65 प्रतिषतं । यह है कुल मतदाता का 11.76 प्रतिषत। महाराजपुर- कुल मतदान 65.15 प्रतिषत, उम्मीदवारों की संख्या 20 और विजेता को मिले महज 18.78 प्रतिषत वोट।ये आंकड़े गवाह हैं कि जिसे हम बहुमत की पसंद कह रहे हैं उसे तो कुल मतदाओं के चौथाई तो क्या आठवें हिस्से का भी समर्थन प्राप्त नहीं है। गंभीरता से देखें तो यह कुछ लोगों के लिए यह सत्ता हथियाने का पर्व था, तो कुछ लोगों के लिए किसी को नीचे गिराने का साधन । ऐेसे लोगों की संख्या भी कम नहीं थी जोकि इसे मखौल मान रहे थें, या फिर कतिपय नेताओं के लिए ऐसे औजार बन रहे थे, जो लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार कर उसे कमजोर करने में लगे हैं । कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राषि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयषुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याषी चुनने में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रषासनिक दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याषी चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं ।
सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याषी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविषेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजूट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मषीन का आकार बढ़ जाता है । चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्धों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों,, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देष के 200 से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है ।
लोकतंत्र में चुनाव लड़ने का हक सभी को है लेकिन जब यह उम्मीदवारी लोकतंत्र की मूल भावना की ही हत्या करने लगे तो उस पर नियंत्रण करना भी अनिवार्य है। अवैध धन, कर की चोरी, चुनाव प्रक्रिया में धन का बढ़ता महत्व जैसी बीमारियों का इलाज करना है तो कम से कम लोकसभा चुनाव में छोटे दलों पर पाबंदी या नियंत्रण पर विचार जरूर होना चाहिए। साथ ही राजनीतिक दलों के चंदे, उसके व्यय का सालाना जाहिरा किया जाना भी अनिवार्य करना चाहिए।
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