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रविवार, 4 दिसंबर 2016

Save the Elephant

ऐसे कैसे बचेगा गजराज ?

                                                                                                                            पंकज चतुर्वेदी,

पिछले दिनों असम में एक व्यस्क मादा हाथी की पतंजलि हर्बल और फूड पार्क के निर्माण स्थल में गहरे गड्ढे में गिरकर मौत हो गई। सनद रहे यह इलाका हाथी के लिए संरक्षित है और यहां व्यावसायिक इकाई की अनुमति से वैसे ही लोग गुस्से में थे। असम के उत्तरी इलाके सोणितपुर जिले के घोरामारी में स्थित इस पार्क में हुई घटना पर कार्यवाही करते हुए पश्चिमी सोणितपुर वन संभाग के अतिरिक्त वन संरक्षक जसीम अहमद ने कहा है कि प्राथमिकी तेजपुर थाने के अंतर्गत सलानीबाड़ी थाना में दर्ज की गई। पार्क के निर्माणकर्ता उदय गोस्वामी के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। वह घोड़ामारी असम औद्योगिक विकास निगम परिसर में पतंजलि पार्क के समन्वयक भी हैं।उन्होंने बताया कि जब वन मंत्री प्रमिला रानी ब्रह्मा ने मादा हाथी की मौत के बाद स्थल का दौरा किया तब पार्क में 14 से अधिक गड्ढों में मिट्टी डालकर भर दिया गया है। हथिनी के गिरने व उसके बच्चे द्वार अपनी मां को ना छोड़ने का एक मार्मक वीडियो भी सामने आया है। हालांकि सख्त निर्देश थे कि 200 एकड़ की जगह का आधे हिस्से पर उसे कोई निर्माण कार्य नहीं हो ताकि वहां पर हाथी आराम से रह सके। लेकिन बात को अनसुना कर दिया गया। बता दें कि इस माह की शुरुआत में मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल, योगगुरु बाबा रामदेव, आचार्य बालकृष्ण और अन्य वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में पूर्वोत्तर भारत में अब तक के सबसे बड़े पतंजलि फूडपार्क की आधारशिला रखी गयी थी।
उधर इन दिनों झारखंड-उड़ीसा-छत्तीसगढ की सीमा के आसपास एक हाथी-समूह का आतंक है। जंगल महकमे के लोग उस झूंड को भगाते घूम रहे हैं जबकि जिन दर्जनों लोगों को वह हाथी-दल घायल या नुकसान कर चुका है; उसे मारने की वकालत कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि हाथी बस्ती में आ गया है, लेकिन यदि तीस साल पहले के जमीन के रिकार्ड को उठा कर देखें तो साफ हो जाएगा कि इंसान ने हाथी के जंगल में घुसपैठ की है। दुनियाभर में हाथियों को संरक्षित करने के लिए गठित आठ देशों के समूह में भारत शामिल हो गया है। भारत में इसे ‘राष्ट्रीय धरोहर पशु’ घोषित किया गया है। इसके बावजूद भारत में बीते दो दशकों के दौरान हाथियों की संख्या स्थिर हो गई है। जिस देश में हाथी के सिर वाले गणेश को प्रत्येक शुभ कार्य से पहले पूजने की परंपरा है, वहां की बड़ी आबादी हाथियों से छुटकारा चाहती है।
कभी हाथियों का सुरक्षित क्षेत्र कहलाने वाले असम में पिछले सात सालों में हाथी व इंसान के टकराव में 467 लोग मारे जा चुके हैं। अकेले पिछले साल 43 लोगों की मौत हाथों के हाथों हुई। उससे पिछले साल 92 लोग मारे गए थे। झारखंड की ही तरह बंगाल व अन्य राज्यों में आए रोज हाथी को गुस्सा आ जाता है और वह खड़े खेत, घर, इंसान; जो भी रास्ते में आए कुचल कर रख देता है। देशभर से हाथियों के गुस्साने की खबरें आती ही रहती हैं। पिछले दिनों भुवनेश्वर में दो लोग हाथी के पैरों तले कुचल कर मारे गए।ऋषिकेश के कई इलाकों में हाथियों के डर से लोग खेतों में नहीं जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में हाथी गांव में घुस कर खाने-पीने का सामान लूट रहे हैं। इंसान को भी जब जैसा मौका मिल रहा है, वह हाथियों की जान ले रहा है। दक्षिणी राज्यों के जंगलों में गर्मी के मौसम में हर साल 20 से 30 हाथियों के निर्जीव शरीर संदिग्ध हालात में मिल रहे हैं। प्रकृति के साथ लगातार हो रही छेड़छाड़ को अपना हक समझने वाला इंसान हाथी के दर्द को समझ नहीं रहा है और धरती पर पाए जाने वाले सबसे भारी भरकम प्राणी का अस्तित्व संकट में है।
19 वीं सदी की शुरूआत में एशिया में हाथियों की संख्या दो लाख से अधिक आंकी गई है। आज यह बामुश्किल 35 हजार है। सन 1980 में भारत में 26 से 28 हजार हाथी थे। अगले दशक में यह घट कर 18 से 21 हजार रह गई। भले ही सरकारी दावे कुछ हों, लेकिन आज यह आंकड़ा 15 हजार के आसपास सिमट कर रह गया है। भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में सबसे अधिक हाथी हैं। उसके बाद दक्षिण का स्थान आता है। हिमालय की तराई भी गजराज का पसंदीदा क्षेत्रा रहा है।
1959 में एशियाई हाथी को संकटग्रस्त वन्यजाति में शामिल किया गया था। इसी के मद्देनजर आठवीं पंचवर्षीय योजना में हाथी परियोजना के लिए अलग से वित्तीय प्रावधान रखे गए थे। सरकारी फाईलों के मुताबिक 1991-92 से देश में यह विशेष परियोजना लागू है। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी के बाद गजराज के सिर पर मौत का साया अधिक गहराता जा रहा है।
उत्तर-पूर्वी राज्यों में, विशेषकर नगा लोग हाथियों को ‘बवाल’ समझते हैं। उनका डर है कि हाथी उनके लहलहाते धान के खेतों को तबाह कर डालता है और मौका मिलने पर उनके गांवों को भी नहीं छोड़ता है। इसलिए वे इसके शिकार की फिराक में रहते है। इस शिकार में एक तरफ तो वे ‘शत्रु विजय’ का गर्व अनुभव करते हैं और दूसरी ओर उन्हें दावत के लिए प्रचुर मांस मिलता है। इन क्षेत्रों में हाथी की हड्डी, मद, दांत व अन्य अंगों को ले कर कई चिकित्सीय व अंधविश्वासीय मान्यताएं हैं, जिनके कारण जनजाति के लोग हाथी को मार देते हैं। वैसे इन दिनों कतिपय बाहरी लोग इन आदिवासियों को छोट-मोटे लालच में फंसा कर ऐसे शिकार करवा रहे हैं।
कर्नाटक के कोडगू और मैसूर जिले में 643 वर्ग किमी में फैला नागरहोल पार्क हाथियों का पसंदीदा आवास है। इसके दक्षिण-पश्चिम में केरल की व्यानाद सेंचूरी है। पास में ही बांदीपुर (कर्नाटक) और मधुमलाई (तमिलनाडु) के घने जंगल हैं। भारत में पाए जाने वाले हाथियों का 40 फीसदी यहां रहता है। पिछले कुछ सालों में यहां जंगल की कटाई बढ़ी है। हर साल बारिश से पहले इन जंगलों में हाथियों की मौत हो रही है। वन विभाग के अफसर लू या दूषित पानी को इसका कारण बता कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। हकीकतन यहां हाथियों को 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटों तक भटकना पड़ता है। गौरतलब है कि हाथी दिखने में भले ही भारी भरकम हैं, लेकिन उसका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है। थेाड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है। ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानि जंगल को जब नुकसान पहुंचाया जाता है तो मनुष्य से उसकी भिड़ंत होती है।
असल संकट हाथी की भूख है। कई-कई सदियों से यह हाथी अपनी जरूरत के अनुरूप अपना स्थान बदला करता था। गजराज के आवागमन के इन रास्तों को ‘‘एलीफेंट कॉरीडार’’ कहा गया। सन 1999 में भारत सरकार के वन तथा पर्यावरण मंत्रालय ने इन कॉरिडोरों पर सर्वे भी करवाया था। उसमें पता चला था कि गजराज के प्राकृतिक कॉरिडोर से छेड़छाड़ के कारण वह व्याकुल है। हरिद्वार और ऋषिकेश के आसपास हाथियों के आवास हुआ करते थे। आधुनिकता की आंधी में जगल उजाड़ कर ऐसे होटल बने कि अब हाथी गंगा के पूर्व से पश्चिम नहीं जा पाते हैं। रामगंगा को पार करना उनके लिए असंभव हो गया है। अब वह बेबस हो कर सड़क या रेलवे ट्रैक पर चला जाता है और मारा जाता है। ओडिसा के हालात तो बहुत ही खराब हैं। हाथियों का पसंदीदा ‘‘सिंपलीपल कॉरिडार’’ बोउला की क्रोमियम खदान की चपेट में आ गया। सतसोकिया कॉरिडोर को राष्ट्रीय राजमार्ग हड़प गया।
ठीक ऐसे ही हालात उत्तर-पूर्वी राज्यों के भी हैं। यहां विकास के नाम पर हाथी के पारंपरिक भोजन-स्थलों का जम कर उजाड़ा गया और बेहाल हाथी जब आबादी में घुस आया तो लोगों के गुस्से का शिकार बना। हाथियों के एक अन्य प्रमुख आश्रय-स्थल असम में हाथी बेरोजगार हो गए है और उनके सामने पेट भरने का संकट खड़ा हो गया है। सन 2005 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद हाथियों से वजन ढुलाई का काम गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। इसके बाद असम के कोई 1200 पालतू हाथी एक झटके में बेरोजगार हो गए। हाथी उत्तर-पूर्वी राज्यों के समाज का अभिन्न हिस्सा रहा है सदियों से ये हाथी जंगलों से लकड़ी के लठ्ठे ढोने का काम करते रहे हैं। अदालती आदेश के बाद ये हाथी और उनके महावत लगभग भुखमरी की कगार पर हैं। असम में कहीं भी जाईए, सड़कों पर ये हाथी अब भीख मांगते दिखते हैं। सनद रहे कि एक हाथी की खुराक के लिए महीने भर में कम से कम दस हजार रूपए खर्च करना ही होते हैं। ऐसे में ‘‘हाथी पालना’’ अब रईसों के बस से भी बाहर है। असम के कुछ महावत अब अपने जानवरों को दिल पर पत्थर रख कर राजस्थान, दिल्ली जैसे राज्यों में बेच रहे हैं।
दक्षिणी राज्यों में जंगल से सटे गांवों मे रहने वाले लोग वैसे तो हाथी की मौत को अपशकुन मानते हैं, लेकिन बिगड़ैल गजराज से अपने खेत या घर को बचाने के लिए वे बिजली के करंट या गहरी खाई खोदने को वे मजबूरी का नाम देते हैं। यहां किसानों का दर्द है कि ‘हाथी प्रोजेक्ट’ का इलाका होना उनके लिए त्रासदी बन गया है। यदि हाथी फसल को खराब कर दे तो उसका मुआवजा इतना कम होता है कि उसे पाने की भागदौड़ में इससे कहीं अधिक खर्चा हो जाता है। हाथी के पैरों के नीचे यदि इंसान कुचल कर मर जाए तो मुआवजा राशि 25 हजार मात्र होती है। वैसे यहां दुखी ग्रामीणों की आड़ में कई ‘वीरप्पन’ हाथी दांत के लिए हाथियों के दुश्मन बने हुए है।
उत्तरांचल के जिम कार्बेट पार्क में कुछ साल पहले तक 1300 से अधिक हाथी रहते थे। रामगंगा परियोजना के लिए रिजर्व जलाशय और फिर कुनाई चीला शक्ति नहर के लिए उस जंगल के बड़े हिस्से को उजाड़ा गया। फिर बांध से विस्थापितों ने अपने नए घर-खेतों के लिए 1,65,000 एकड़ वन क्षेत्रों को काट डाला। यहां हरियाली के नाम पर यूक्लिप्टस जैसे गैर-चारा पेड़ लगाए गए। जंगल कटने से हाथियों के लिए चारे-पानी का संकट खड़ा हुआ। भूख से बेहाल गजराज कई बार फसल और संपत्ति को नुकसान कर बैठते हैं।
ऐसे ही भूखे हाथी बिहार के पलामू जिले से भाग कर छत्तीसगढ़ के सरगुजा व सटे हुए आंध्रप्रदेश के गांवों तक में उपद्रव करते रहते हैं। कई बार ऐसे बेकाबू हाथियों को जंगल में खदेड़ने के दौरान उन्हें मारना वन विभाग के कर्मचारियों की मजबूरी हो जाता है। उत्तरांचल में पिछले 25 सालों के दौरान कई हाथी ट्रेन से टकरा कर मारे गए हैं। कोई एक दर्जन हाथियों की मौत जंगल से गुजरती बिजली की लाईनों में टूटफूट के कारण होना सरकारी रिकार्ड में दर्ज है। ये वाकिये अनियोजित विकास के कारण प्राकृतिक संपदा को हो रहे नुकसान की बानगी हैं।
नदी-तालाबों में शुद्ध पानी के लिए यदि मछलियों की मौजूदगी जरूरी है तो वनों के पर्यांवरण को बचाने के लिए वहां हाथी अत्यावश्यक हैं। मानव आबादी के विस्तार, हाथियों के प्राकृतिक वास में कमी, जंगलों की कटाई और बेशकीमती दांतों का लालच; कुछ ऐसे कारण हैं जिनके कारण हाथी को निर्ममता से मारा जा रहा है। यदि इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो जंगलों का सर्वोच्च गौरव कहलाने वाले गजराज को सर्कस, चिड़ियाघर या जुलूसों में भी देखना दुर्लभ हो जाएगा।

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